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आखिर क्यों काटे जा रहे हैं लाखों हेक्टेयर जंगल?

फोटो साभार- Flickr

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भगवान के अद्भुत वरदानों में से एक हमारे वन विश्व की जैव विविधता, आर्थिक विकास, आजीविका तथा पर्यावरणीय अनुकूलन प्रतिक्रियाओं जैसे ऋतुचक्र एवं प्रकृति में संतुलन के मुख्य आधार हैं। एक अरब से अधिक लोगों के आजीविका के स्रोत वन कार्बन डाइ ऑक्साइड प्रदूषण  को सोखने के लिए एक बेहतरीन सिंक का कार्य करते हैं।

जंगलों के महत्व, टिकाऊ वन प्रबंधन, जैव विविधता संरक्षण और उनकी बहुपक्षीय भूमिकाओं और शिक्षा के महत्व के बारे में जागरूकता रखते हुए संयुक्त राष्ट्र महासभा ने 21 दिसंबर 2012 को प्रत्येक वर्ष 21 मार्च को अंतरराष्ट्रीय वन दिवस मनाने का निर्णय लिया था।

वन क्षेत्र क्यों हो रहे हैं लुप्त?

सन् 2017 की उपग्रहीय सर्वेक्षण की एक रिपोर्ट के अनुसार प्रतिवर्ष विश्व में एक फुटबॉल के मैदान के बराबर वन क्षेत्र का लुप्त होना बहुत चिंताजनक समाचार है। भारत में एक रिपोर्ट के अनुसार 2001 से 2018 तक लगभग 16 लाख हेक्टेयर वन भूमि नष्ट हुई है।

वहीं, स्वतंत्रता के बाद से गैर-वानिकी उद्देश्यों के लिए 57 लाख हेक्टेयर वन भूमि उपयोग हुई है। जिसमें 45 लाख हेक्टेयर 1950-1980 के दौरान तथा शेष 12 लाख हेक्टेयर वन (संरक्षण) अधिनियम 1980 के दौरान।

भारत सरकार की वन नीति में निर्धारित 33% वन आच्छादन के परिपेक्ष में वर्तमान रिपोर्ट वन आवरण में वृद्धि के संकेत के साथ 24.56 % भौगोलिक क्षेत्र में वन आच्छादन की घोषणा करती है।

अनियंत्रित चराई, वन अतिक्रमण, झूम या शिफ्टिंग कल्टिवेशन आदि समस्याएं वनों की उत्पादकता और पुनरुत्पादन की प्रमुख चुनौतियां है जो वन प्रबंध पर प्रतिकूल प्रभाव छोड़ती आई हैं।

जलवायु परिवर्तन है बड़ी वजह

साथ ही वैश्विक जलवायु परिवर्तन के कारण मौजूदा वन स्थितियों की समग्र गिरावट, वन और वानिकी को वांछित आर्थिक, नीतिगत सहयोग और अनुसंधानित सलाह और समर्थन की कमी  द्वारा वन अधिकारियों के सामने नई चुनौतियों ने पतित वनों का पुनरुद्धार और नए  क्षेत्रों के वनीकरण  के काम को और भी चुनौतीपूर्ण  बना दिया है।

यह एक विडम्बना है कि वनों की महत्ता का आकलन महज़ उनके उत्पादों जैसे लकड़ी, घास, कोयला, जड़ी बूटी इत्यादि को लेकर ही किया जाता रहा है। तथा इन्हीं को आधार मानकर वानिकी का राष्ट्रीय सकल घरेलू उत्पाद (GDP) में योगदान लगभग 2% से नीचे ही आंका गया है।

शहरीकरण और वैश्वीकरण की अंधी दौड़ से प्रेरित विकास के नाम पर होने वाला वनों का अंधाधुंध विनाश और इन पर पड़ने वाले भार द्वारा  ना केवल वनों की उत्पादक क्षमता में उत्तरोत्तर गिरावट आई है, बल्कि इनके पुनः पतन में भी योगदान दिया है।

बजट भी निराशाजनक

विगत कुछ वर्षों में वनों द्वारा कार्बन डाई ऑक्सायड का अवशोषण, मिट्टी और पानी का संरक्षण, जैव विविधता का आश्रय, प्राणवायु का उत्पादन जैसे कई और अस्पर्शय योगदानों के आर्थिक आकलन को भी गणना में लेने की बातें मुखरित हुई हैं मगर इस दिशा में अभी तक कोई नीति और निर्णय के अभाव में वनों के महत्व महज़ भौतिक और मूर्त उत्पादों तक ही सीमित हैं।

कोलकाता के प्रोफेसर दास के एक आकलन के अनुसार 50 साल में एक पेड़ द्वारा लगभग 188000 डॉलर (1989 आधार वर्ष) वर्तमान के 4.9 करोड़ रुपये के समतुल्य प्रत्यक्ष तथा अप्रतक्ष्य लाभ मिलते हैं। वन और वानिकी की उपेक्षा और प्रामुख्यता का सबसे बड़ा प्रमाण राष्ट्रीय बजट में मिलने वाला आवंटन है जो कि स्वतंत्रता के बाद किसी भी वर्ष 1 प्रतिशत से ऊपर नहीं पहुंच पाया है।

पर्यावरण पर विकास और अर्थशास्त्रीय प्राबल्य और नगण्य राजनीतिक उपेक्षा के साथ-साथ जन मानस में वनों के प्रति लगाव एवम चिंता की कमी वन और वानिकी की सबसे मुखर समस्याएं हैं।

वन प्रबंधन का निराशाजनक रवैया

वनों की अल्प उत्पादकता और बहुउद्देश्यीय भूमि आधारित ज़रूरतों को पूरा करने की बढ़ती हुई असमर्थता भारतीय वानिकी के लिए एक बहुत बड़ी वृत्तिक चुनौती और व्यावहारिक समस्या है।

साथ ही लकड़ी और ईंधन के अतिरिक्त लघु वनोपज जैसे- घास, बीज, फल, जड़ी-बूटी, चारा आदि के लिए मांग और आपूर्ति के बीच की खाई को पूरा करने के लिए वांछित रणनीति के अभाव में मौजूदा वनों का दोहन और वनों का सतत क्षरण बदस्तूर जारी है।

वर्तमान में आरक्षित वनों के बाहर के क्षेत्र हरित आवरण के लक्ष्य को पूरा करने की काफी क्षमता रखते हैं मगर इनकी महत्ता की उपेक्षा वर्तमान वन प्रबंधन की एक और विडंबना है।

वन-महोत्सव कार्यक्रम की उपेक्षा क्यों हो रही है?

इन सबके अतिरिक्त सामाजिक समस्या के रूप में उभरी गरीबी की समस्या के फलस्वरूप पैदा शिफ्टिंग खेती और अतिक्रमण जैसी समस्याओं के निवारण के लिए समयानुरूप नीतिगत हस्तक्षेप, वित्त एवं संस्थागत समर्थन तथा सहयोगी विभागों की भागीदारी युक्त विशिष्ट और एकीकृत रणनीतियों की आवश्यकता है।

वनों के महत्व और उपयोगिता को मद्देनजर रखकर 1950 में श्री के.एम. मुंशी द्वारा वृक्षारोपण को प्रोत्साहन देने के लिए प्रारम्भ किया वन-महोत्सव कार्यक्रम आज राजनीतिक इच्छाशक्ति और प्रामुख्यता के अभाव और उपेक्षा के फलस्वरूप मात्र एक सरकारी औपचारिकता बन कर रह गया है।

पर्यावरण सम्बन्धित उपरोक्त चुनौतियों और समस्याओं के बावजूद हाल ही में तेलंगाना राज्य द्वारा पंचायती राज और नगरपालिका अधिनियमों के संशोधन पर्यावरण क्षेत्र में ऐतिहासिक नीतिगत प्राथमिकता और सामयिक हस्तक्षेप का प्रमाण है।

वृक्षारोपण और वृक्षों के संरक्षण, उनकी उत्तरजीविता (85%) के लिए पंचायतों और नगर पालिकाओं के बीच भूमिकाएं और ज़िम्मेदारियां, ग्रीन फंड, संस्थागत ढांचे और वित्तीय सहायता के साथ सामूहिक ज़िम्मेदारी की व्यवस्था एक मज़बूत राजनीतिक दृढ़ इछाशक्ति और संकल्प को परिलक्षित करती  है।

तेलंगाना की यह उपलब्धि सराहनीय है

तेलंगाना सरकार द्वारा 2015 में हरित आवरण को बढ़ाने के उद्देश्य से प्रारम्भ किया वृक्षारोपण कार्यक्रम तेलंगाना का हरिता हारम (हरित माला) राज्य सरकार तथा वर्तमान मुख्यमंत्री श्री के. चंद्रशेखर राव की पर्यावरण क्षेत्र के प्रति असाधारण और ऐतिहासिक पहल को दर्शाता है जिसके अंतर्गत 230 करोड़ लक्ष्य में 182 करोड़ का पौधारोपण हुआ है।

आरक्षित वनों  के बाहर वृक्षारोपण की प्राथमिकता और शहरी क्षेत्रों में हरित स्थान की कमी को पूरा करने और स्वस्थ वातावरण और पर्यावरण प्रदान करने के उद्देश्य से 95 शहरी पार्कों को चिन्हित कर कार्य प्रारम्भ हुआ है और अब तक 32 शहरी पार्कों को सार्वजनिक उपयोग हेतु खोला गया है।

बढ़ती मानव आबादी से उत्पन्न ज़रूरतों के लिए वनों सहित प्राकृतिक संसाधनों का दोहन एक अपरिहार्य सच्चाई है मगर मानव जाति के अस्तित्व के लिए वनों की महत्ता को देखते हुए वन और वानिकी की वर्तमान चुनौतियां आत्मावलोकन के साथ-साथ मज़बूत निर्णायक नीति हस्तक्षेप की मांग कर रही है।

सभी सरकारों, नौकरशाहों, समाजसेवी संस्थानों, समुदायों और  विशेष रूप से नवयुवकों में  जागरूकता के साथ-साथ वांछित पहल और ठोस कदमों  द्वारा ही वन संसाधनों का उचित प्रबंधन, सतत उपयोग द्वारा मांगों और आपूर्ति के बीच सामंजस्य और जलवायु परिवर्तन की चुनौतीयों  का सक्षम रूप से सामना सम्भव है।


नोट: लेखक मोहन चंद्र परगाईं हैदराबाद में भारतीय वन सेवा अधिकारी हैं।

उनका ट्विटर हैंडल- @pargaien

ईमेल- mcpargaien@gmail.com

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