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1650 से अब तक हमने महामारी के बारे में क्या जाना?

सन् 1650 में लंदन में आए एक भयंकर प्लेग की वजह से जीवन तहस-नहस होने की कगार पर आ गया था। उस समय के प्रसिद्ध अंग्रेजी उपन्यासकार डैनियल डिफॉे अपने जर्नल “जर्नल ऑफ दी प्लेग ईयर” में लिखते हैं की लगभग हर एक घर में मातम की आवाजें सुनाई देती थी, सड़के सूनी और वीरान पड़ गई थी और लाशों का अंतिम संस्कार करने तक के लिए भी लोग नहीं मिलते थे। लोग भारी मात्रा में लंदन छोड़कर आस-पास के गांव की ओर रवाना होने लग गए। बीमारी की जकड़ इतनी भयंकर थी कि डेनियल आम जिंदगी पर प्लेग का जायजा लेते हुए लिखते हैं कि:

“बीमार होने के लिए यह सबसे गलत समय था। अगर कोई जरा भी शिकायत करता तो लोग समझते कि उसको प्लेग हो गया।”

कहीं ना कहीं यह स्तिथि आज के कोरोना वायरस की भी है कि जरा भी कोई छीकें या खांसे उसे बीमार घोषित कर दिया जाता है।

यूं तो प्लेग और कोरोनावायरस को एक दर्जा नहीं दिया जा सकता लेकिन आज कोरोनावायरस जिस तरह का आतंक मचा रहा है उसे देखकर यूरोप में उठी प्लेग की तबाही याद आ जाती हैI डेनियल के इस जनरल के माध्यम से हम उस समय के वातावरण, सरकारों द्वारा किए गए कार्यों, और लोगों में मची लूटपाट, धोखाधड़ी एवं डर को अपनी परिस्थितियों के संदर्भ में समझ सकते हैं। 

यूं तो आज हम अपने आप को मॉडर्न और तकनीकी रूप से अपने पूर्वजों से बहुत आगे मानते हैं लेकिन डेनियल के जर्नल को पढ़कर हमें अचंभा होगा की महामारी के सामने आज भी उतने ही पिछड़े हैं और बेबस हैं जितने हमारे पूर्वज प्लेग के सामने थे।

डेनियल लिखते हैं की दिन-ब-दिन मौत की खबरें तेजी से बढ़ने लगी इसका एक मुख्य कारण लोगों में महामारी को लेकर जानकारी का अभाव और जरूरी सावधानी ना बरतने की प्रवृत्ति थी।  डेनियल लिखते हैं कि:

“लोगों की अवधारणाएं और यह विचार की मृत्यु और जीवन पूर्व निर्धारित है जैसे विचारों की वजह से लोग बेपरवाही से ऐसी जगह और लोगों के संपर्क में आ जाते जो बीमारी से ग्रस्त हैं और इस वजह से लोग धड़ल्ले से मरते कभी 10 तो कभी 15000 एक हफ्ता की दर से”

ऐसी ही लापरवाही इटली जर्मनी जैसे देशों ने दिखाई जिसका खामियाजा उन्हें अपनी एक बड़ी आबादी को बीमारी से ग्रस्त होकर चुकाना पड़ा। भारत मैं निसंदेह ही बीमारी का प्रकोप इस बात पर तय करेगा कि लोग कितनी लापरवाह और जानकारी के अभाव में हैं। ऐसी स्थितियों में इतिहास हमें सिखाता है कि हम बहुत ही सावधानी से महामारी का सामना करें।

दूसरी चीज जो हमें डेनियल के जर्नल में चौका देने वाली मिलती है वह है मक्कारी छल-कपट और लोगो के जीवन से खेल कर पैसे कमाने वालों की हैवानियत। डेनियल बताते हैं कि:

“लंदन के हर एक घर और गली-नुक्कड़ पर फर्जी डॉक्टरों, हकीम, और ढोंगियो द्वारा दीवारों पर इश्तेहार लगा दिए गए थे जिनमें लोगों को तरह-तरह की अफवाह और युक्तियों से लुभाने की कोशिश की जाती थी।”

डेनियल कुछ इस्तेहरो का वर्णन करते है जैसे:

” कभी ना विफल होने वाली औषधि बीमारी के खिलाफ मौजूद है”

” बेजोड़ काढ़ा प्लेग के लिए जिसे पहले कभी नहीं खोजा गया”

“प्लेग का अचूक इलाज” आदि।

आज भी जब करोना वायरस जैसी महामारी पूरे विश्व में तबाही मचा रही है कुछ लोग इस तरह की मक्कारीओं से लोगों को ठग रहे हैं। फर्क बस इतना है कि अब दीवारों पर इस्तेहर लगाकर नहीँ बल्कि व्हाट्सएप के जरिए लोगों को तरह-तरह के नुस्खे बताए जा रहे हैं जिनका कोई सबूत नहीं है । कोई जानवरों का पेशाब पिलाने की बात करता है तो कोई ताबीज कि बात करता है।

जहां दवाइयों और तकनीकी साधनों ने बीमारी के आगे दम तोड़ दिए, वही सरकारों द्वारा जो सबसे बेहतर उपाय लोगों को उपलब्ध कराया गया वह था अपने अपने घरों में बंद हो जाना। डेनियल इस पर भी लिखते हैं की उनके जमाने में जब सब कुछ विफल साबित हो रहा था तो “रेगुलेशन ऑफ द सिटी” अर्थात “शहर का नियंत्रण” ही सबसे कारगर युक्ति साबित हुई । मिनिस्ट्रो द्वारा प्रकाशित किए गए एक नियम का हवाला देते हुए डेनियल लिखते हैं: 

” 7 अगस्त 1665 में एक ऐलान किया गया जिसमें कहा गया कि किसी भी कदम से अगर बीमारी का प्रभाव रुकता है तो उसका पालन करना अनिवार्य है और इसी के चलते सारे सामाजिक जमघटो को, प्लेग के टलने तक, प्रतिबंधित किया जाता है।”

उस दौरान भी सभी मेले, नाटकों और जम्घटो को बन्द करा दिया गया था।

ऐसे नियमों के चलते तमाम लंदन के डिस्ट्रिक्ट बंद कर दिए गए थे डेनियल लिखते हैं:

“मिडिलसेक्स डिस्ट्रिक्ट के जजों ने यह फैसला लिया कि सेंट गिरीश पैरिस के सभी घरों को बंद कर दिया जाएगा और उन सभी गलियों को भी जहां प्लेग फैला हुआ था और उन घरों पर गार्ड तैनात किए जाएंगे ताकि कोई अंदर या बाहर ना जा सके। मुर्दा लोगों को सावधानी के साथ दफन किया जाएगा जैसे ही उनकी मृत्यु की पुष्टि होगी। इन सब कदमों के चलते डेनियल बताते हैं की प्लेग इन गलियों में कम हो गया।”

डेनियल के इन शब्दों को पढ़कर तो यही लगता है कि उस समय की सच्चाई और आज की सच्चाई महामारी के सामने एक समान ही है। आज भी तमाम देशों के शहरों में तालाबंदी हो गई है। पुलिस तैनात है और लोग घर से बाहर तक नहीं निकल सकते और यही एक चारा है जो हमें इस महामारी से बचा सकता है।

लेकिन चौंकाने वाली बात यह है कि लगभग 400 से अधिक साल बाद भी इतनी तकनीकी साधनों के होते हुए भी एक वायरस पूरी दुनिया को ठप कर सकता है। ऐसे में एक ही सवाल उठता है कि आखिर हमारी वैज्ञानिक और तकनीकी उपलब्धि क्या हमें एक महामारी से भी सुरक्षित नहीं रख सकती तो फिर उस तरक्की का क्या फायदा और क्या यह तरक्की हमें जरूरत की छोटी-छोटी चीजें से लेकर अस्पतालों में बेड तक मौजूद नहीं करा सकती?

डेनियल की यह जर्नल हमारे युग के लिए बड़े सवाल पैदा करती है और हमारे युग के वैज्ञानिक और तकनीकी घमंड को भी चकनाचूर करती है । अंत में मानव के पास जिंदा बचे रहने का उसका एकमात्र कारगर उपाय ही उपलब्ध है जोकि है पीछे हटना और दुबक जाना। मानव इस बचाओ तकनीक को सदियों से इस्तेमाल करता हुआ रहा है जब से वह गुफाओं में रहता था से लेकर जब प्लेग जैसी बीमारियां यूरोप और विश्व के अन्य भागों में कोहराम मचा रही थी से लेकर आज तक केवल पीछे हटकर प्रकृति के सामने नतमस्तक हो जाना और अपने वक्त का इंतजार करना ही मनुष्य का सबसे बढ़ा बचाव तकनीक सिद्ध हो रहा है।

पर क्योंकि यह सबसे कारगर युक्ति साबित हो रही है तो इसका मतलब यह नहीं है कि प्लेग और महामारियो से केवल हम डर कर ही जीते आए हैं डेनियल अपने समय के उन जबज़ो और बहादुर लोगों के बारे में लिखते हैं जिन्होंने अपनी जानें गंवा दी दूसरों को सुरक्षित रखने के लिए। वो लिखते हैं:

” मैं इसे बिना लिखे नहीं छोड़ सकता कि उन ओफिसरो, कॉन्स्टेबलो, पुलिस वालों और तमाम अधिकारियों जिनको गरीब लोगों के रखरखाव की जिम्मेदारियां सौंपी गई थी उन्होंने अपना कार्य बहुत बहादुरी से किया क्योंकि उनके काम में सबसे ज्यादा खतरा था और वह बीमारी के सबसे करीब थे और यह भी कहना मैं जरूरी समझता हूं कि ऐसे बहुत से लोग मारे भी गए, पर क्या सचाई इससे अलग होसक्ती थी।”

इसलिए हमें उन लोगों के साहस और बहादुरी की सराहना करनी चाहिए जो आज हमारे लिए इस महामारी से लड़ रहे हैं। यह वही लोग हैं जो हमारे लिए साहस की एक नई परिभाषा इन गंभीर समय में लिख रहे हैं।

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