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“डिटेंशन कैंप के मलबे पर खड़े होकर मैं भारत का संविधान पढ़ूंगा”

कौशिक राज

कौशिक राज

यह कविता नागरिकता संशोधन विधेयक और एनआरसी के सांप्रदायिक गठजोड़ के खिलाफ लिखी गई है, जिसके ज़रिये जनता से एक संवाद स्थापित करने की कोशिश की गई है।

मैं आशा करता हूं कि वे इस कानून के खिलाफ आगे आएं और संविधान के मूल्यों की रक्षा करें। यह कविता नागरिकता संशोधन विधेयक और एनआरसी के खिलाफ लगातार संघर्ष कर रहे साथियों को समर्पित है।

मैं तुम्हारे डिटेंशन कैंप में घुसकर

भारत का संविधान पढ़ रहा हूं,

जिसके एक एक शब्द उसकी ईंटों को चुनौती दे रहे हैं

जैसे भोर की पहली किरण देती है अंधेरे को।

उन नाज़ी ईंटों की हैसियत नहीं है

कि संविधान की प्रस्तावना को भी बर्दाश्त कर पाए,

मुझे संविधान पढ़ने की भी ज़रूरत नहीं है,

उसके पन्ने पलटने से ही

तुम्हारे डिटेंशन कैंप ताश के पत्तों की तरह ढहकर

मलबे के ढेर में तब्दील हो जाएंगे,

और मैं उस मलबे के ढेर पर खड़ा हो कर

भारत का संविधान पढूंगा।

 

कल बिना मुंडी के लाशों के ढेर पर खड़े होकर ना पढ़ना पड़े

इसलिए आज मलबे के ढेर पर खड़ा होकर पढ़ रहा हूं,

क्योंकि किसी भी मुल्क के डिटेंशन कैंप में बिछने वाली

लाशों के सर लगा देने चाहिए

उस मुल्क के झंडे के बीचों बीच,

और लहरा देना चाहिए उस मुल्क के पतन का परचम।

 

आखिर कब तक उन लाशों को नकार कर

वे झंडे अपने मुल्क की महानता का परचम बुलंद करते रहेंगे?

 

मैं ये संविधान संसद के गलियारों से नहीं लाया हूं

जिसकी मौत को आवाम ने गहरी नींद समझकर

उससे उम्मीदें खत्म नहीं की हैं।

मेरा संविधान मिट्टी में सना है

मैं इसे बाबरी मस्जिद के मलबे से खोदकर लाया हूं,

मेरा संविधान आंसुओं से गीला है

मैं इसे झेलम से निकाल कर लाया हूं,

मेरा संविधान लाल है

मैं इसे दादरी की खून की नदी में तैरकर

डूबने से बचा कर लाया हूं।

मेरे संविधान के सर पर बंदूक है

मगर खौफ हथेलियों को मुट्ठी में तब्दील नहीं होने दे रही

मैं हाशिमपुरा की नालियों से संविधान बटोर कर लाया हूं।

मेरे संविधान ने सारे ज़ुल्म झेले हैं,

वो अब इंकलाब चाहता है।

 

वज़ीर ए आज़म, आप यह तय करना चाहते हैं कि

कौन इस मुल्क का नागरिक है और कौन नहीं,

मैंने तय कर लिया है कि कड़ाके की ठंड है

और मेरे मुल्क के बदन पर एक कपड़ा तक नहीं है,

वो आपके विधेयक को जलाकर आग तापेगा।

 

मैंने तय कर लिया है कि संसद के वास्तविक सिद्धांतों

और सड़कों पर गड्ढे बहुत हैं,

वो आपके विधेयक से वो गड्ढे भरेगा,

मैंने तय कर लिया है कि मेरा मुल्क भूखा है

वो आपका विधेयक खा जाएगा।

 

आप यह भी तय करना चाहते हैं कि

आपके तानाशाही फरमानों पर हमारी प्रतिक्रिया क्या हो,

उनके सकारात्मकता की गहराई कितनी हो,

मेरे हाथों पर सजी मेरे ही खून की मेंहदी का रंग गाढ़ा होगा

और कितना गाढ़ा होगा

ये अगर आप तय करेंगे

तो मैं मेहंदी का सर्वश्रेष्ठ रंग फिका घोषित कर दूंगा।

 

प्रतिक्रिया के तौर पर

मैं संविधान का अनुच्छेद 14 पढ़ना चाहता हूं,

मैं चाहता हूं कि इसके एक एक शब्द आपके विधेयक पर

हिमालय पर बर्फ़ की चादर सी बिछ जाए।

 

“राज्य, भारत के राज्यक्षेत्र में किसी व्यक्ति को विधि के समक्ष समता से या विधियों के समान संरक्षण से वंचित नहीं करेगा।”

 

मैं चाहता हूं कि एक धर्म से नागरिकता के कागज़ात मांगे जाने पर

इस अनुच्छेद के पन्ने भेजे जाएं,

सरकारी दफ्तरों की दीवारों पर इस अनुच्छेद के शब्द लिख दिए जाएं

इस ऐलान के साथ कि उनके धुंधले होने से पहले

गैरबराबरी के कानून के शब्द मिट जाने चाहिए।

 

मैं महामहिम को नया कलम भेंट करना चाहता हूं,

कल रात नए कानून पर हस्ताक्षर करने के साथ ही

धर्म निरपेक्षता की फांसी मुकर्रर करने के बाद

उनके कलम की निब

और बिस्मिल-अशफाक के सपनों के टूटने की आवाज़

अभी तक मुल्क में गूंज रही है।

 

मगर मुल्क का हर इंसान बेचैन क्यों नहीं है

मैं चाहता हूं कि सामान्यता के सारे चिन्ह मिटा दिए जाएं,

सरसों के फूलों के पीले रंग उनसे छीन लिए जाएं,

आसमान का नीला रंग उससे छीन लिया जाए,

इन सबको संविधान के सिद्धांतों के खून से रंग दिया जाए

और प्रकृति की हर उस चीज़ को

जिसने आवाम की चेतना को सामान्यता की परत से ढक रखा है।

मैं पसीने की बूंदों का रंग भी लाल में बदलते देखना चाहता हूं,

कम से कम आवाम इन रंगों को वापस बहाल करने के लिए तो सड़कों पर उतरे।

 

मैं भी चुप रह जाता

नहीं सुनाता आपको संविधान

लेकिन मैं चाहता हूं कि

इसके शब्दों का आपके ज़ुबानों पर चढ़ने की गति

इसके पन्नों से उतरने से कहीं अधिक हो।

मुझसे भी आने वाली नस्लें पूछेंगी कि जब ये सब हो रहा था

तब मैं कहां था,

मैं तब भारत का संविधान पढ़ रहा था।

यह सवाल मैं आपके लिए भी छोड़ कर जाता हूं।

जब ये सब चल रहा था तब आप कहां थे?

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