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“इस बार होली के रंगों में खून है”

कैलाश सत्यार्थी

कैलाश सत्यार्थी

हर साल होली पर

उगते थे इंद्रधनुष

दिल खोलकर लुटाते थे रंग।

 

मैं उन्हीं रंगों से सराबोर होकर

तरबतर कर डालता था तुम्हें भी,

तब हम एक हो जाते थे

अपनी बाहरी और भीतरी

पहचानें भूलकर।

 

लेकिन ऐसा नहीं हो सकेगा

इस बार,

सिर्फ एक रंग में रंग डालने के

पागलपन ने

लहूलुहान कर दिया है

मेरे इंद्रधनुष को।

 

अब उसके खून का लाल रंग

सूखकर काला पड़ गया है,

अनाथ हो गए मेरे बेटे के

आंसुओं की तरह।

जिसकी आंखों ने मुझे

भीड़ के पैरों तले

कुचलकर मरते देखा है।

 

जिस्म पर नाखूनों की खरोंचें और फटे कपड़े लिए

गली से भाग, जल रहे घर में जा दुबकी,

अपनी ही किताबों के दम घोंटू धुएं से

किसी तरह बच सकी

तुम्हारी बेटी के स्याह पड़ गए,

चेहरे की तरह।

 

आसमान में टकटकी लगाकर

देखते रहना मेरे दोस्त,

फिर से बादल गरजेंगे

फिर से ठंडी फुहारें बरसेंगी

फिर इन्द्रधनुष उगेगा।

वही सतरंगा इन्द्रधनुष

और मेरा बेटा, तुम्हारी बेटी, हमारे बच्चे

उसके रंगों से होली खेलेंगे।

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