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LGBTQ+ कम्युनिटी को अस्पताल जाने से क्यों लगता है डर?

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देश में औरत और मर्द को जो मुकाम है उस मुकाम तक एक समुदाय नहीं पहुंच सका या यूं कहें कि उसे पहुंचने नहीं दिया गया। बहरहाल, इस बात को समझने के लिए पहले कुछ उदाहरण लेते हैं।

पहला मामला

रौशनी (बदला हुआ नाम) की त्वचा पर इन्फेक्शन हो गया था। अपनी अलग पहचान के चलते वह सरकारी अस्पताल नहीं जाना चाहती थी। उसने शहर के एक बड़े निजी अस्पताल जाने की राह चुनी।

लेकिन निजी अस्पताल के रिसेप्शन से ही उसे डॉक्टर के उपलब्ध नहीं होने और वहां से चले जाने को कहा गया। जबकि वह समय लेकर गई थी। ऐसा व्यवहार उसके साथ बार बार हुआ, क्योंकि रौशनी एक ट्रांसजेंडर है।

दूसरा मामला

शलभ (बदला हुआ नाम) के साथ भी कुछ ऐसा ही हुआ। उसने पहली बार डॉक्टर के सामने अपनी पहचान बताई। डॉक्टर ने अन्य स्टाफ के सामने ताना मारते हुए कहा,

उस” जैसे लोगों के कारण ही दुनिया में एड्स की बीमारी फैल रही है।

शलभ को इतनी ज़्यादा ग्लानि हुई कि उस रात उसने आत्म हत्या करने की कोशिश की।

तीसरा मामला

भावना (बदला हुआ नाम) को लड़कों की तरह रहना पसंद है। उसके परिजनों ने कई बार उसकी बुरी तरह से पिटाई की और उसे औरतों की तरह रहने का दबाव बनाया। एक डॉक्टर ने भावना को “लड़की” बनाने के नाम पर 2 लाख रुपये ऐंठ लिए।

भावना अपने परिजनों को नहीं समझा पा रही थी कि उसे शरीर ज़रूर औरत का मिला है मगर उसकी भावनाएं पुरुषों जैसी हैं। हद तो तब हो गई जब भावना की माँ ने उसे जबरन एक पुरुष से सम्बन्ध बनाने के लिए दबाव डाला।

समाज क्यों नहीं समझता कि रौशनी, शलभ और भावना किसी दूसरे गृह से नहीं हैं

रौशनी, शलभ और भावना किसी अन्य ग्रह के लोग नहीं हैं। वे आप और हम जैसे इसी दुनिया के सामान्य नागरिक हैं। अपनी अलग लैंगिक पहचान और भावनात्मक रूचि के चलते उन्हें समाज और सेवा प्रदाताओं के तानों और भेदभाव से गुज़रना पड़ता है।

पिछले साल अनुच्छेद 377 हटाने के साथ भले ही सुप्रीम कोर्ट ने उन्हें अपनी पसंद का साथी चुनने और उसके साथ रहने की आज़ादी दे दी हो लेकिन समाज आज भी उन्हें मुख्य धारा में शामिल करने को तैयार नहीं। यहां तक कि कई बार डॉक्टर भी पूर्वाग्रह से ग्रसित होकर उनका इलाज करने से मना कर देते हैं।

LGBTQ+ समुदाय की ज़िंदगी भेदभाव से कदमताल कर गुज़रती है

LGBTQ+ समुदाय के लोग हमेशा अपनी पहचान उजागर होने के तनाव, समाज के लिए “कलंक” मानने की भावना और होने वाले भेदभाव से भयभीत रहते हैं। ये तनाव अन्य लोगों की अपेक्षा इस समुदाय में ज़्यादा है।

इन्हें अपने चलने के तरीके, हाव-भाव, कपड़े पहनने के तरीके और अभिव्यक्ति आदि के कारण अस्पताल में होने वाले भेदभाव और गाली गलौच का भी सामना करना पड़ता है।

कई अस्पतालों में “गोपनीयता” की नीति नहीं होने के कारण इनकी पहचान इनके परिवार या समाज तक पहुंच जाती है। जिसके बाद इन पर हिंसा होना आम बात है। कई डॉक्टर इसे आज भी बीमारी मानते हैं और समलैंगिकता खत्म करने के लिए अलग-अलग थैरेपी की सलाह देते हैं। जबकि विश्व स्वास्थ्य संगठन के अनुसार समलैंगिकता कोई बीमारी नहीं है।

समलैंगिक लोगों के आत्मविश्वास में कमी आना, अवसाद में चले जाना और खुद को नुकसान पहुंचाने की प्रवृतियां इन चीज़ों से बढती हैं। ये लोग अपने साथियों और पारिवारिक सदस्यों से यौनिक हिंसा के भी सबसे ज़्यादा शिकार होते हैं।

इनकी आत्महत्या के हैं सबसे ज़्यादा मामले

इन्डियन जर्नल और साइकोलॉजिकल साइन्सेज़ के अनुसार, भारत में ट्रांसजेंडर लोगों में से 31% लोग आत्महत्या कर लेते हैं। इनमे से 50% ने अपने 20वें जन्मदिन से पहले कम-से-कम एक बार आत्महत्या की कोशिश की होती है।

एक सर्वे के अनुसार 26% LGBTQ+ समुदाय के लोगों को पहचान उजागर होने के बाद डॉक्टर ने सेवाएं देने से मना कर दिया। जबकि भारत के संविधान के अनुसार प्रत्येक भारतीय को उचित स्वास्थ्य सेवा लेने का मौलिक अधिकार मिला हुआ है।

सर्वे के अनुसार 52% लोग अस्पताल तक जाने में भी डरते हैं। इनमें अधिकांश युवा वर्ग के लोग हैं, जिन्हें अपनी पहचान उजागर होने या परिवार को पता चलने की स्थिति में बदनामी का डर सताता है।

असमानताओं को दूर करने के लिए क्या करें डॉक्टर

LGBTQ+ समुदाय के लोगों का इलाज करते समय डॉक्टर्स पूर्वाग्रह से ग्रसित नहीं हों। उनकी गोपनीयता का सम्मान करें। पेशेंट हिस्ट्री लेते समय संवेदनशीलता रखें। अपने स्टाफ को प्रशिक्षण दें कि वे संवेदनशील व्यवहार करें और हंसी मज़ाक ना बनाएं।

ज़ीरो टोलरेंस नीति अपनाएं। उनका पूरा इलाज करें। उसकी लैंगिक पहचान के बारे में असहज होने वाले प्रश्न नहीं पूछें। इलाज के दौरान घिसी पीटी बातें जैसे “अरे, आप तो औरत जैसे दिखते हो” या “आप इतनी सुन्दर महिला हैं फिर लेस्बियन कैसे हैं” जैसे वाक्य ना बोलें। अपने अस्पताल के माहौल को सभी के लिए सुरक्षित बनाएं। जेंडर न्यूट्रल शौचालय बनाएं।


 

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