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“दिहाड़ी मजदूरों को कोरोना के डर से ज़्यादा, भूखमरी का भय है”

वैश्विक स्तर पर कोरोना वायरस के प्रोकोप की वजह से बड़े पैमाने पर लोगों की मौतें हो चुकी हैं। कोरोना वायरस का संकट गहराता जा रहा है। दिन ब दिन कोरोना वायरस से संक्रमित होने वाले पीड़ितों की संख्या बढ़ती जा रही है। स्थिति बहुत गंभीर और संवेदनशील होती जा रही है। इससे निपटने के लिए प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने 24 मार्च को राष्ट्र के नाम संबोधन में 21 दिनों के लिए राष्ट्रव्यापी लॉकडाउन की घोषणा की।

इस लॉकडाउन की मार हमारे समाज में आर्थिक और सामाजिक रूप से कमज़ोर दिहाड़ी मजदूरों पर सबसे ज़्यादा पड़ रहा है। दिहाड़ी मजदूर वो होते हैं जो रोज़ कमाते और खाते हैं। आपको ये बाज़ार में किसी चौराहे या किसी फेमस जगह पर खड़े या बैठे मिल जाएंगे। ठंडी हो या गर्मी खुले आसमान में दो वक्त की रोटी की आस में रोज़गार की राह देखते हैं। अगर दिन में काम नहीं मिलता है तो रात को चूल्हें में आग नहीं लगता है, परिवार भूखा सोता है और अगली सुबह फिर किसी चौक-चौराहे पर खड़े होकर रोज़गार की राह देखते हैं।

लॉकडाउन होने की वजह से इनके सामने रोज़ी-रोटी का संकट आ गया है। यह संकट इनके लिए कोरोना वायरस की अपेक्षा में कहीं ज़्यादा बड़ा है। मजदूरों का कहना है कि इस देशबंदी ने हमें पूरी तरह से भूखमरी के कगार पर पहुंचा दिया है। बीमारी तो बाद में पहले हम भूख से मर जाएंगे। इन्हें कोरोना के खौफ से कहीं ज्यादा खाली पेट सूखने का डर सता रहा है।

प्रधानमंत्री ने कोरोना को हराने के लिए देशवासियों को अपने घरों के बाहर लक्ष्मण रेखा खीचने की सलाह दी है लेकिन उन दिहाड़ी मजदूरों का क्या जो अभी तक अपने घरों की लक्ष्मण रेखा में नहीं आ सके हैं। वे अपने घरों से दूर दूसरे राज्यों में दुर्गम स्थिति में फंसे हैं जहां उनके लिए ना तो खाने का इंतज़ाम है और ना ही घर वापस आने के लिए उचित वाहन की व्यवस्था है। अचानक लॉकडाउन की वजह से गरीब मजदूरों पर संकट की दीवार गिर पड़ी है, फैक्ट्री बन्द हो गया है, काम नहीं मिल रहा है। जेब में कुछ पैसे हैं लेकिन पेट में अन्न नहीं है, क्योंकि होटल बन्द हैं।

लॉकडाउन के बाद अपने गंतव्य तक पैदल जाते मजदूर

लॉकडाउन के बाद देश में दिल्ली, मुंबई, गुजरात जैसे महानगरों से दिहाड़ी मजदूरों से जुड़ी कुछ ऐसी तस्वीरें आई जिसने देश के लोगों को विचलित कर दिया। कोरोना वायरस ने दिहाड़ी मजदूरों को पलायन करने के लिए मजबूर कर दिया। आम तौर पर मजदूरों का पलायन रोज़गार की तलाश में होता है लेकिन इस बार दिहाड़ी मजदूरों का पलायन अपने पैतृक गांव पहुंचने के संघर्ष में लगा है।

देशव्यापी बन्दी के बाद सड़कों पर ना कोई वाहन दिख रहें और ना ही कोई जानवर। इन दिनों दिख रहे हैं, तो सिर पर भारी बोझा लिए दिहाड़ी मजदूर जो अपने छोटे-छोटे बच्चों और परिवार के साथ हज़ारों किलोमीटर पैदल चल रहे हैं। इस उम्मीद में कि वो अपने पैतृक गाँव पहुंच सकें।

कोरोना के संक्रमण से बचने के लिए लॉकडाउन का फैसला सराहनीय है इससे संक्रमण फैलने पर अंकुश लगेगा। लॉकडाउन से पहले की तैयारी पर कुछ सवाल उठता है। क्या सरकार ने लॉकडाउन का फैसला लेने के दौरान इन दिहाड़ी मजदूरों का ध्यान रखा। क्या सरकार ने लॉकडाउन का फैसला जल्दबाज़ी में लिया।

लॉकडाउन के बाद दिहाड़ी मजदूरों को अपने गाँव तक पहुंचाने के लिए वाहन की व्यवस्था ना करना सरकार का मजदूर वर्ग के प्रति असंवेदनशीलता दर्शाता है। केंद्र सरकार और राज्य सरकार के तरफ से दिहाड़ी मजदूरों को लॉकडाउन की वजह से आर्थिक संकट से बचाने के लिए राहत पैकेजों की घोषणाएं हुई है। जोकि सराहनीय हैं लेकिन लॉकडाउन फैसले में उचित प्रबंधन न होने की वजह से मजदूरों के चेहरों पर चिंता की लकीरें स्पष्ट नज़र आ रही हैं, तभी तो वे पलायन करने को मजबूर हैं। मजदूर अपनी व्यथा बताते हुए कह रहें हैं हमें कोरोना बाद में मारेगा पहले भूख मार देगी।

जब मजदूर हज़ारों किलोमीटर की पैदल यात्रा करके अपने गाँव पहुंच सकेगा तभी तो सरकारी राहत पैकेजों का लाभ उठा पाएगा। अगर मजदूर घर की चौखट पहुंचने से पहले दम तोड़ देता है तो वो कैसे सरकारी राहत पैकेजों का लाभ उठा सकेगा?

सरकार और मजदूर दोनों के सामने कुछ चुनौतियां हैं। सरकार के सामने चुनौती है कि वो कैसे मजदूर वर्ग के अंतिम व्यक्ति तक राहत पैकेज पहुंचा सकें और मजदूरों को उनके गांव सुरक्षित पहुंचा सकें। मजदूरों के सामने चुनौती है कि वो कैसे अपने गांव पहुंच सकें ताकि राहत पैकेज का लाभ ले सकें।

हज़ारों की संख्या में पैदल चलकर आ रहे हैं दिहाड़ी मजदूर, अगर कोरोना वायरस से संक्रमित पाए गएं तो कोरोना वायरस संकट से निपटने के लिए लॉकडाउन करने का फैसला अर्थहीन हो जाएगा। ऐसे में सरकार को इस मसले पर गंभीरता से विचार करना चाहिए और मजदूरों को घर तक पहुंचाने की उचित व्यवस्था सुलभ करानी चाहिए।

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