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आदिवासियों को दया का पात्र मानकर लोग खुद को सर्वोपरि क्यों समझते हैं?

फोटो साभार- Flickr

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‘आदिवासी’ शब्द सुनकर आपके दिमाग में क्या आता है ? हरे पत्ते पहने,  झींगा-ला-ला-हू-हू करके हाथ में भाला लेकर उछलते कूदते लोग? कुछ ऐसा ही ध्यान में आता होगा ना? यह सोच सिर्फ आपकी नहीं है, दुनिया में रहने वाले हर वर्ग के लोग आदिवासियों के बारे में ज़्यादातर ऐसा ही सोचते हैं।

आदिवासियों के बारे में सामान्य मनुष्य की तरह सोचा ही नहीं जाता है। हां, कभी- कभी भले ही कुछ लोग उनके हक की बात करते नज़र आ जाते होंगे मगर सच यही है कि हर कोई उन्हें बस दया करने और खुद को सर्वोपरी दिखाने का पात्र ही समझता हैं।

मुझे भी बहुत कुछ ज़्यादा नहीं पता था। इतना ही समझ आता था कि ये कुछ ऐसे लोग हैं जो बाकी से अलग हैं और बेहद ही पिछड़े हैं। इन सारी धारणाओं का कारण था अज्ञानता, आम शब्दों में कहूं तो दूरी जो आधुनिकता की देन थी।

पिछले वर्ष मैनें झारखण्ड राज्य की राजधानी रांची में एक वर्कशॉप की थी। ये वर्कशॉप एक आदिवासी समाज द्वारा कराई जा रही थी। इस वर्कशॉप का मकसद सभी लोगों को आदिविसडम से जोड़ना था। सात दिन की इस वर्कशॉप में हर दिन आदिवासी समाज के कई बड़े डायरेक्टर, राइटर, नैशनल अवॉर्ड विजेता जर्नलिस्ट शामिल हुए थे।

प्रतीकात्मक तस्वीर। फोटो साभार- Flickr

स्टोरीटेलिंग की इस वर्कशॉप में मैंने आदिवासियों को बेहद ही करीब से जाना। वे सभी बिल्कुल हमारे जैसे ही आम लोगों की तरह होते हैं। उनके कपड़ें पहनने का तरीका भी हमारे जैसा ही है। अब व् अपनी पारंपरिक पोशाक बस खास मौकों पर ही पहनते हैं। वे बात भी बिल्कुल हमारी तरह ही करते हैं हिंदी में, बस आपस में कभी-कभी अपनी भाषा का प्रयोग कर लेते हैं। सामाजिक मुद्दे हों या फिर कोई आम बात, उनकी राय और सोच भी हमारी तरह ही होती हैं।

एक चीज़ जो उन्हें हमसे अलग करती है वो है उनका भोलापन। शायद इसलिए आज भी कहीं ना कहीं आदिवासियों का एक बड़ा आंकड़ा आधुनिकता से पीछे रह गया। सरपट दौड़ती ज़िंदगी की इस रेस में भी वो आज तक अपनी जड़ों से जुड़े हुए हैं।

मुझे याद है कि वो कमरा जिसमें हमारी क्लास होती थी, उसमें मौजूद सभी सजावट का सामान हाथों से बनाया हुआ था। हर एक लेक्चर में पर्यावरण की बिगड़ती स्थिति की चिंता झलकती थी। एक दिन हमें लेक्चर देने के लिए दीपक बारा सर आए थे। दीपक बारा सर एक जर्नलिस्ट हैं।

यूं हीं बातों ही बातों में सर ने बताया कि आदिवासी समाज अपने लगाए हुए पेड़ों में आए फल को कभी भी अकेले नहीं खाता हैं। किसी भी पेड़ में आए फल को दो भागों में बांटा जाता है। जिसमें से एक भाग तोड़कर व्यक्ति अपने इस्तेमाल के लिए रखता है और दूसरा भाग पेड़ों पर ही छोड़ दिया जाता है। ये भाग पशु-पक्षियों और प्रकृति के लिए होता है। इस तरह से आदिवासी समाज के लोग प्रकृति को धन्यवाद देते हैं।

जब मैंने पापा को अपनी इस वर्कशॉप के बारे में बताया था तो उन्होंने मुझे बड़ा ही सीरियस होकर एक नसीहत दी कि ज़्यादा बाहर ना घूमूं क्योंकि उस एरिया में आदिवासी लोग ज़्यादा रहते हैं।

साथ ही साथ ये भी बताया कि आदिवासी लोग ठीक नहीं होते हैं। पुरानी सोच वाले कम-पढ़े लिखे आदमी का यह कहना एक बार फिर डाइजेस्ट हो जाता है मगर जब कोई हम उम्र यह कहे कि आदिवासी लड़कियां आराम से पट जाती हैं तो ये बात बहुत चुभती है।

सात दिनों में मुझे ऐसी एक भी चीज़ समझ नहीं आई जिसमें मुझे वे खुद से ज़रा भी अलग लगे हों। उनकी प्रकृति के प्रति समझ और लगाव हमसे कई ज्यादा हैं। वे जहां खुद को प्रकृति का सहचर समझते हैं हम उसके मालिक बन बैठे हैं।

प्रतीकात्मक तस्वीर। फोटो साभार- सोशल मीडिया

आज भी शादी के घरों में काम करने के लिए आदिवासी महिलाओं को बुलाया जाता है और उन्हें दूर ज़मीन पर ही खाना परोस दिया जाता है। उचित संसाधानों के अभाव में कई प्रतिभावान आदिवासी बच्चे अन्धकारमय जीवन से बाहर ही नहीं आ पाते हैं। यहां तक कि इस अभाव ने कई विशेष जनजातियों का नाम तक मिटा दिया है।

इसी वर्ष नए साल के दूसरे दिन मैं अपने दोस्तों के साथ रांची से कुछ दूर स्थित पंचघाघ जलप्रपात घुमने गई थी। सब कुछ अच्छा था जैसे ही हम लोग खाना बनाने लगे हर कुछ समय के बाद दो से तीन लोगों का समूह कभी बड़े तो कभी बच्चे आस-पास आकर खड़े हो जाते।

मेरे लिए यह पहला अनुभव था। थोड़ी देर बाद पता चला कि ये लोग खाने का इंतज़ार कर रहे हैं। मेरे तीन तरफ तीन लोगों का समूह था। एक माँ अपनी दृष्टिबाधित बच्ची के साथ एक ओर, चार बच्चों का समूह दूसरी ओर और दो बूढ़े बाबा मेरे तीसरी ओर।

हमारे खाना खाने तक वे वहीं खड़े रहे, और सब्ज़ी खत्म होने के बाद वे चावल और सब्जी का रस लेकर वापस गए। जिन्हें जंगली या जंगल का माना जाता है वे दूसरों के झूठे पत्तल में परोसे खाने को खाने के लिए मजबूर हैं।

देश और दुनिया के कई भागों में आज भी ऐसी आदिवासी जनजातियां मौजूद हैं जो विकास नाम के पंक्षी के बारे में कुछ जानती ही नहीं हैं। आज भी यह समाज झरनों के पानी और कंद-मूल के सहारे जीवन बिता रहा है।

भले ही आज एक ढेला नमक के लिए किसी आदिवासी को दो दिन की मज़दूरी नहीं करनी पड़ती मगर 21वीं सदी का सभ्य समाज आदिवासियों को मजदूरों से ज्यादा कुछ नहीं समझता है।

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