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“क्या जस्टिस गोगोई को सरकार के हित में लिए गए फैसलों का ईनाम मिला है?”

जस्टिस गोगोई और नरेन्द्र मोदी

जस्टिस गोगोई और नरेन्द्र मोदी

लोकतंत्र में न्यायपालिका को कितना निष्पक्ष व महत्वपूर्ण बताया गया है, यह बताने की आवश्यकता नहीं है क्योंकि जम्हूरियत की यह गाड़ी चार पहियों पर दौड़ रही है जिनमें एक पहिया न्यायपालिका का भी है, जिसके खंडन की या व्याख्या की कोई विशेष आवश्यकता नहीं है।

न्यायपालिका का अस्तित्व सदैव से खड़ा है और विशालकाय रूप धारण किया है लेकिन व्यवस्थाओं की लचरता किसे छोड़ती है।

जब व्यवस्थाएं पूर्णतः लचर हो जाती हैं और हाथ खड़े करके कहती हैं कि अब हमसे ना हो पाएगा, तो समझ लीजिए कि किसी ऊंची गद्दी पर बैठा नेता अपने अंहकार के संदर्भ में किस्से गढ़ रहा है, जो अपने चेलों को सुनाएगा और हंसते हुए कहेगा कि ‘हम ही सरकार हैं’।

कई महत्वपूर्ण फैसले जिन्हें रंजन गोगोई ने मोदी सरकार में लिए

रंजन गोगोई औऱ नरेन्द्र मोदी। फोटो साभार- सोशल मीडिया

16 मार्च को नौ बजे के लगभग खबर आती है कि पूर्व सीजेआई रंजन गोगोई को राष्ट्रपति द्वारा राज्यसभा के लिए नामित किया गया है। हम जानते हैं कि भारत में राष्ट्रपति का पद ‘रबर-स्टैम्प’ वाला है जिसका प्रत्यक्ष अर्थ यही निकलता है कि मोदी सरकार ने पूर्व सीजेआई को यह पद भेंट में दिया है लेकिन इससे चौंकने की आवश्यकता नहीं थी क्योंकि काम के बदले इनाम मिलना तो लाज़मी है।

रंजन गोगोई ने अपने कार्यकाल में कई फैसले दिए जिनमें मोदी सरकार की सहूलियत का विशेष ख्याल रखा गया। जिनमें राम मंदिर, कश्मीर के मानवाधिकार, ऑपरेशन कमल और राफेल प्रमुखता से उभरकर आते हैं लेकिन सोचने वाली बात यह है कि ये सारे फैसले विवादित रहे क्योंकि कानूनविद भी चकित रह गए कि आखिरकार गोगोई साहब किस कॉलेज के विद्यार्थी रहे हैं।

यौन शोषण का मामला तो रफा-दफा ही हो गया!

रंजन गोगोई। फोटो साभार- सोशल मीडिया

रंजन गोगोई सुप्रीम कोर्ट के विवादित जजों में से एक हैं क्योंकि उन पर यौन शोषण का भी आरोप लग चुका है हालांकि उस मामले में वो निर्दोष पाए गए लेकिन इस मामले में निर्दोष पाया जाना ही काफी नहीं है, क्योंकि जिस महिला ने जज साहब पर आरोप लगाया था उसे पहले नौकरी से निकाल दिया गया और बाद में वापस रख लिया गया।

तो यहां सवाल यह खड़ा होता है कि अगर महिला का आरोप सही था तो उसे निकाला क्यों गया और यदि आरोप गलत था तो वापिस नौकरी पर रखा क्यों गया?

लेकिन इन सब सवालों से हमें क्या मतलब है, हमें तो बस यह देखना है कि पाकिस्तान की जीडीपी कितनी है, वहां टमाटर कितने रुपये किलो बिक रहा है और उनके हाथ मे कटोरा आया या नहीं!

अरुण जेटली का बयान आखिर क्यों हो रहा है वायरल

अरुण जेटली। फोटो साभार- सोशल मीडिया

इन दिनों पूर्व वित्त मंत्री स्व. अरुण जेटली का यह बयान बहुत वायरल हो रहा है जिसमें वो कह रहे हैं, “दो तरह के जज होते हैं, एक जो कानून जानते हैं और दूसरे जो कानून मंत्री को जानते हैं। जज रिटायर नहीं होना चाहते हैं। रिटायर होने से पहले दिए फैसले रिटायरमेंट के बाद मिलने वाले काम से प्रभावित होते हैं।”

अगर प्रत्यक्ष रूप से देखा जाए तो 2019 में रिटायर हुए गोगोई ने कई फैसले सरकार के हित में लिए जिनका इनाम आज उन्हें मिल रहा है। अर्थात उनकी मेहनत रंग लाई लेकिन लोकतंत्र का रंग छूट गया मानो वह कह रहा हो कि अभी तो मैं ढंग से चढ़ा भी नहीं था और तुमने इतनी जल्दी उतार फेंका, क्या यह नाइंसाफी नहीं है।

रिटायरमेंट के समय जस्टिस रंजन गोगोई ने क्या बयान दिया था?

जस्टिस रंजन गोगोई। फोटो साभार- सोशल मीडिया

27 मार्च 2019 को एक सुनवाई के दौरान जस्टिस गोगोई का एक बयान आया कि रिटायरमेंट के बाद मिलने वाला पद न्यायपालिका की स्वतंत्रता पर दाग के समान है। अब इस बात को लगभग एक साल बीत गया है और गोगोई साहब ने अपनी सोच में इतनी तरक्की कर ली है कि संदेह होने लगता है अमेरिका आगे चल रहा है या गोगोई साहब।

जिस बयान ने उन्हें एक साल पहले अखबारों और टीवी चैनलों का हीरो बना दिया था, आज उसी बयान ने उन्हें लोकतांत्रिक मूल्य रखने वाले देश में ‘ज़ीरो’ बना दिया है।

न्यायपालिका में से ‘न्याय’ शब्द को हटा देना चाहिए क्योंकि इसका कोई मोल नहीं बचा है। सरकारों ने इसे कबाड़ के भाव खरीद लिया है और उनकी जेब में भारत का दुबका हुआ लोकतंत्र पड़ा है जो शायद कह रहा है कि मैं कभी था ही नहीं, ना 1998 में था ना आज हूं।

इंदिरा गाँधी को सिख दंगों में क्लीन चिट देने वाले जज रंगनाथ के साथ कया हुआ था?

इंदिरा गाँधी। फोटो साभार- सोशल मीडिया

सिख दंगों पर इंदिरा सरकार को क्लीन चिट देने वाले जज रंगनाथ मिश्रा को भी 1998 में काँग्रेस द्वारा राज्यसभा भेजा गया। बस फर्क इतना है कि गोगोई को राष्ट्रपति ने नामित किया है और मिश्रा को काँग्रेस पार्टी ने चुनाव के तहत भेजा लेकिन ये भारत की न्यायपालिका पर ऐसे दाग हैं जिन्हें शायद गौमूत्र भी नहीं धो सकता।

गद्दी की लालसा सबसे घातक होती है जिसमें व्यक्ति सही-गलत के फर्क को भूल जाता है और मन से टपकने वाली लालच की लार इतनी ज़हरीली है कि वह पूरी व्यवस्था को मार देती है।

एक पद की लालसा पूरी व्यवस्था को खतरे में डाल देती है और लोकतंत्र सिर्फ वोट देने तक ही सीमित रह जाता है। जनता उस मूढ़ दर्शक की भांति देखती रहती है जिसे इन सबमें मज़ा आता है लेकिन वो यह नहीं भांप पाती कि इससे सबसे अधिक खतरा उसे ही है।

कभी-कभी तो लगता है कि अदालत के शटर गिरा देने चाहिए

सुप्रीम कोर्ट। फोटो साभार- सोशल मीडिया

जम्हूरियत के चारों पहिए पंक्चर होने की कगार पर हैं लेकिन हम सो रहे हैं बस फर्क इतना है कि कोई घर में, कोई ट्रेन में, कोई ऑफिस में तो कोई नेता की गोद में।

कभी कभी लगता है कि कोर्ट को बंद कर देना चाहिए। अदालत के शटर गिरा देने चाहिए और सारे फैसले 11 अशोका रोड़, नई दिल्ली से ही तय कर देने चाहिए ताकि पब्लिक को यह ना लगे कि कोर्ट जैसी कोई स्वतन्त्र संवैधानिक संस्था है जो सरकार के दबाव में नही आती है।

लेकिन आज इस मरे हुए लोकतंत्र के जनाजे में न्यायपालिका सबसे आगे चल रही है और ऊंची गद्दी पर बैठने वाले नेता अपने पिट्ठुओं के सामने अहंकार का दम्भ भर रहे हैं।

मगर इन सब बातों के बीच एक बात बहुत महत्वपूर्ण है और वो है ‘डर’। यदि आपको इन बातों से डर नहीं लगा तो आप निर्भीक या वीर योद्धा नहीं हैं बल्कि कायर हैं, ऐसे कायर जो सच्चाई देखने में डर रहे हैं। आज के इस घातक समय में डरना उतना ही आवश्यक हो गया है जितना सांस लेना है, तो बस डरिए।

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