वो फ़ुरात के साहिल पर हों या किसी और किनारे पर
सारे लश्कर एक तरह के होते हैं, सारे ख़ंजर एक तरह के होते हैं।
इफ़्तिख़ार आरिफ़
24 फरवरी 2020 को देश की राजधानी दिल्ली में जो मुस्लिम विरोधी हिंसा हुई, उसके बारे में अब सभी जानते हैं। इसको लेकर तरह-तरह की बातें हो रही हैं।
एक गुट का कहना है कि हिंसा मुस्लिम पक्ष की ओर से शुरू हुई थी, दूसरे पक्ष का कहना है कि हिंसा मुस्लिम बहुल क्षेत्र पर हुए एक हमले से शुरू हुई थी।
दोनों ही पक्ष अपनी बात को सच मान रहे हैं लेकिन तथ्य यह है कि जिस क्षेत्र में हिंसा हुई, वह मुस्लिम बहुल क्षेत्र था। मुस्लिम बाहुल्य क्षेत्र से निकलकर किसी भी अन्य क्षेत्र पर कोई हमला नहीं किया गया।
दो दिन तक दिल्ली का एक बड़ा हिस्सा जलता रहा। देश की राजधानी दिल्ली, वो दिल्ली जिसकी सुरक्षा देश में सबसे अधिक होती है। वो दिल्ली, जिसमें देश के प्रधानमंत्री, राष्ट्रपति, पूरा मंत्रिमंडल, सभी सांसद, एक मुख्यमंत्री और उसका मंत्रिमंडल, 70 विधायक व अन्य कई गणमान्य निवास करते हैं।
मगर ना तो दंगाइयों को रोकने वाला कोई था और ना ही पुलिस को आदेश देने वाला। बात यहां केवल सरकारी तंत्र की नहीं है। जब आपके पड़ोसी का घर जल रहा हो, तब सरकार, पुलिस आदि पर आरोप लगाते रहना और पड़ोसी को जलने देना बेईमानी है।
जब हम छोटे थे, तब हमको यब बताया गया था कि पड़ोसी का हक धर्म का हिस्सा है। जब हम बड़े हुए तो जाना कि महात्मा गाँधी के अनुसार स्वदेशी का मतलब ही यह था कि पहले आप पड़ोसी का साथ देंगे, फिर मोहल्ले वालों का फिर अपने शहर वालों का मगर दिल्ली में लोगों ने क्या किया?
केन्द्र सरकार के तमाम मंत्री कहां थे?
सबसे पहला सवाल सरकार से होना चाहिए। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और गृहमंत्री अमित शाह को सीधे तौर पर जवाबदेही लेनी चाहिए।इंटेलिजेंस विभाग आखिर यह क्यों नहीं बता पाया कि दिल्ली में हज़ारों लोगों की भीड़ सड़कों पर हथियारों के साथ खुलेआम घूम सकती है।
गौरतलब है कि जिस दिन यह सब हो रहा था, उस दौरान अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप भारत में थे। ऐसे में इस तरह दंगाइयों का खुलेआम सड़कों पर घूमना, सुरक्षा में भारी चूक के तौर पर देखा जाना चाहिए। दुःख की बात यह है कि केंद्र सरकार का कोई मंत्री अब तक भी मृत और घायलों की सुध लेने नहीं पहुंच पाया। ऐसे में सरकार से सवाल लाज़िम हैं।
दिल्ली पुलिस केन्द्र के हाथों में है वाला बहाना आखिर कब तक?
दूसरा सवाल दिल्ली सरकार से होना चाहिए। दिल्ली के मुख्यमंत्री और उनके विधायकों का शुरू से यही कहना है कि दिल्ली पुलिस केंद्र सरकार के पास है और हम कुछ नहीं कर सकते हैं। यह एक बहाना है जो अब सड़ चुका है। कानून का कोई भी जानकार आपको बता सकता है कि दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल के पास भले ही पुलिस की डोर नहीं है लेकिन प्रशासन उन्हीं के पास है।
अर्थात, डीएम आदि को वही आदेश देते हैं। इसका मतलब यह है कि कर्फ्यू या सेना को बुलाने की सिफारिश जैसे आदेश सीधे मुख्यमंत्री दे सकते थे मगर नहीं दिए।
इसके आगे अगर हम यह भी ना मानें तो कम-से-कम इतना तो दिल्ली के 70 विधायक कर सकते थे कि वो एक साथ उन गलियों और मोहल्लों में चले जाते। दिल्ली पुलिस को उनको सुरक्षा देना मजबूरी होती और दंगा खुद रुक जाता।
विपक्षी दलों की क्या मजबूरी थी?
तीसरा सवाल सभी विपक्ष कहलाने वाले लोगों से है। ऐसी क्या मजबूरी थी कि विपक्ष के सांसद, नेता, सामाजिक कार्यकर्त्ता दो दिन तक उस इलारे में नहीं गए?
अगर वे सब साथ में उस इलाके में जाते तो ना केवल पुलिस पर दबाव बनता, बल्कि दंगाई खुद एक बड़ी शांतिप्रिय भीड़ देखकर भाग खड़े होते।
कुछ लोगों को मेरी यह बात ख्याली पुलाव लग रही होगी लेकिन अपने तीन साल के छोटे से राजनितिक जीवन में मैं दंगा रोकने की यह ईमानदारी जहानाबाद में देख चूका हूं। या यूं कहिए कि उस ईमानदारी का एक छोटा सा हिस्सा भी बनने का सौभाग्य प्राप्त हुआ था।
मैंने कैसे जहानाबाद में भड़कते दंगे को थमते देखा
ज़्यादा पुरानी बात नहीं है कि मैंने बिहार में स्थित अपने ज़िले जहानाबाद में एक दंगा भड़कते हुए देखा, जिसमें पहले दो गुटों में छुटपुट पत्थरबाज़ी हुई फिर पलक झपकते ही सारा माहौल ही बदल दिया गया और सारे शहर में अफरा-तफरी मचा दी गई। दोपहर को हुई इस घटना की खबर शाम होते होते आग की तरह पूरे क्षेत्र में फैल गयी और ज़िला प्रशासन हिंसा को रोकने में विफल ही रहा।
दूसरे दिन यह दंगा और बढ़ा जिसमें मस्जिदों को क्षतिग्रस्त किया गया। इतना सब होने के बाद ज़िला प्रसाशन ने पटना मुख्यालय में अतिरिक्त सुरक्षा बल के लिए बोला फिर वहां से भारी संख्या में पुलिस बल एवं RAF के जवानों की तैनाती की गई जिससे कुछ हद तक माहौल काबू में आया।
इसमें जो बात गौर करने वाली है, वो यह कि किसी भी लोकल नेता या सामाजिक कार्यकर्ता ने शांति बनाए रखने का काम सरकार और पुलिस के ज़िम्मे नहीं छोड़ा था, बल्कि किसी भी राजनीतिक दल के नेता सड़कों पर लोगों की मदद के लिए निकले थे। शहर के कद्दावर नेताओं की यह मुस्तैदी देख पुलिस और सरकार को भी एकदम से कदम उठाने पड़े।
मैं खुद विपक्षी दल में होने के बावजूद लोगों को समझाने-बुझाने उनके बीच पहुंचा था और पुलिस के अफसरों से लगातार बातचीत कर उन पर दबाव बना रहा था। यह किसी ने नहीं सोचा कि दंगा थम जाए फिर सरकार और पुलिस को घेरेंगे अभी कुछ लोगों को मरने दिया जाए।
मुआवज़ा देकर हीरो भी तो बनना है!
यह बात हमें समझनी होगी कि पहले किसी भी इंसान की जान बचाना फर्ज़ है। जबकि हम देख रहे हैं कि राजनीति दो खेमों में बंट गई है। एक तो वो जो दंगा कर कुछ लोगों को मारकर उसके बदले वोट मांगेंगे। दूसरे वो जो इन मरने वालों के मरने के बाद उनकी कब्र पर जाकर आंसू बहाएंगे और उसके बदले वोट मांगेंगे।
दोनों ही सूरतों में गरीब इंसान को मरने दिया जाना राजनीतिक फायदे के तौर पर देखा जाता है। होना तो यह चाहिए कि पहले इंसान की जान बचने की कोशिश हो लेकिन अगर ये लोग ज़िंदा रह जाते तो सरकार मुआवज़ा किसको देती? मुआवज़ा देकर हीरो भी तो बनना है।
अगर लोगों की जान बच जाती तो कुछ नेता बाद में मरने वालों के परिवार के साथ तस्वीर खिंचवाकर मसीहा कैसे बनते? इसलिए जान बचाने के वक्त सिर्फ ट्वीट किए गए या वो भी नहीं। जब आग ने बस्तियों को जलाकर खाक कर दिया, तो सभी नेता, अभिनेता और कार्यकर्ता उस राख को अपने माथों पर मलकर इंसानियत के देवता कहलाए। कोई यह नहीं पूछेगा कि जब घर जला तो हुज़ूर आप कहां थे।