हमारे भारत देश में दहेज एक कुरीति नहीं, बल्कि सम्मान का सामान बन गया है। हां, यह बात ज़रूर है कि इसे एक कुरीति माना जाता है मगर दुःखद है कि यह सिर्फ किताबों या विद्यालयों में होने वाली निबंध प्रतियोगिता तक ही सीमित है।
इससे इतर इसकी चर्चा ना कहीं होती है और ना ही इस पर कोई लिखता है।
दहेज़ व्यवस्था बेटियों को बोझ बनाती जा रही है
वक्त के साथ दहेज़ की इस कुरीति ने समाज में अपनी जड़ें और जमा ली हैं। भ्रूण हत्या और बेटी को बोझ समझने की विचारधारा के पीछे एक बड़ा कारण दहेज़ भी है।
बेटी के पैदा होने के बाद पिता अपनी बेटी के शादी के लिए पैसे जोड़ने लगता है। उसके नाम से बीमा करता है और इसके अतिरिक्त जो भी सम्भव होता है वह करता है। ताकि समय आने पर बेटी की शादी बेहतर जगह की जा सके।
समाज मे बेटों के संदर्भ में देखें तो परिणाम उलट दिखाई देंगे। बेटों के लिए इस तरह का कोई बंदोबस्त नहीं किया जाता है मगर इतने बंदोबस्त करने के बाद भी बेटी की शादी में पिता को ज़मीन या घर बेचना पड़ जाता है। कई बार तो इतने में भी नहीं होता है तो पिता को लोन भी लेना पड़ जाता है।
लड़के वालों के लिए होता है सम्मान
वही, अगर लड़के वालों की बात की जाए तो दहेज़ को सिर्फ धन-संपत्ति के तौर पर नहीं देखा जाता है, बल्कि यह सम्मान के तौर पर दिया जाने वाला सामान होता है। दहेज़ की रकम की चर्चा जब तक आठ-दस गाँव में ना हो तब तक यह रकम कम ही होती है।
दहेज़ लेने के बाद बाप शान से बताता है कि बेटे को दहेज़ में दस लाख के साथ बुलेट मिली है। वह यही नहीं रुकता, बल्कि दहेजुआ बुलेट को दोस्तों में ले जाकर इतराता है। दोस्तों को बैठाकर चौराहों और चाय की दुकानों पर घूमता है, ताकि आसपास और गाँव के लोगों को अपनी शान बता सके।
लड़के के स्टेटस के हिसाब से फिक्स है दहेज़ की रकम
अब तो दहेज़ की रकम लड़के के स्टेटस के हिसाब से फिक्स है। सिपाही का इतना, तो दरोगा का इतना, सरकारी मास्टर है तो फिर मुंह मांगी रकम। लड़के का पिता लड़की वालों से ऐसे पैसे लेता है जैसे उसने कभी लड़की के पिता को कर्ज़ दिया हो और उसकी वसूली करने आया है।
कई बार सब कुछ तय होने के बाद, लड़की के पिता के पास शादी से ठीक दो दिन पहले फोन आता है,
देखिए तय तो गाड़ी स्पेलेंडर ही हुई थी मगर लड़के की पसंद बुलेट है। आप मैनेज कर लीजिए।
अब पिता मैनेज कहां से करे! तब रिश्तेदारों के सामने हाथ फैलाने के अतिरिक्त कोई चारा नहीं होता है।
मैंने दिया इसलिए लूंगा वाली विचारधारा
कई लोग कहते हैं कि उन्हें दहेज़ इसलिए चाहिए, क्योंकि उन्होंने अपनी बहन या बेटी की शादी के लिए दहेज़ दिया था। यह मामला वैसे ही है जैसे मैंने अपनी बेटी के लिए दूल्हा खरीदा है और अब तो इसे रिवायत बना दिया गया है।
इसलिए अपने बेटे को बेच रहा हूं। सोचिए आखिर यह कैसी विडंबना है? जिस विचारधारा ने या कुरीति ने आपको परेशान किया, आपको रिश्तेदारों के आगे हाथ फैलाने पर मजबूर किया। आप उसे ही आगे बढ़ा रहे हैं। यानी आप खुद नहीं चाहते कि यह कुरीति समाज से खत्म हो।
दहेज़ कोई सम्मान की बात नहीं और ना ही इससे आपका स्टेटस पता चलता है, बल्कि आप एक नए और पवित्र बहुमूल्य रिश्ते का आंकलन चंद पैसों से कर देते हैं। जिन रिश्तों की बुनियाद पैसे पर टिक गई हो उस रिश्ते में ना मधुरता रहती है और ना ही मज़बूती।
एक बाप आपको अपना सबसे कीमती चीज़ दे रहा है, अपनी बेटी। जिसे वह बड़े गर्व से पालता है। दुनिया की हर खुशी उसके लिए त्याग करता है, उसे बेहतर तालीम और संस्कार देता है।
इतनी कीमती चीज़ के अतिरिक्त आपको और क्या चाहिए? क्या आप इस कीमती और अनमोल रिश्ते को रुपये से तौल लेंगे? नहीं तौल पाएंगे, फिर क्यों दहेज़ लेते हैं? इस दूषित व्यवस्था का त्याग कर दीजिए।