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“आर्थिक ज़िम्मेदारी ना निभाकर सरकार लोगों का ध्यान अर्थव्यवस्था से भटका रही है”

नरेन्द्र मोदी

नरेन्द्र मोदी

आपने अक्सर राजनेताओं को बाज़ार और उद्योगों के नाम पर बात करते हुए यह सुना होगा कि वे औद्योगिक विकास द्वारा सामाजिक खुशहाली लाने की बात करते हैं।

दूसरी ओर आपने यह भी सुना होगा कि मोनोपॉली का खतरा बताकर सरकारों और नीतियों की आलोचना की जाती हैं, जिसके साथ अक्सर कहा जाता है कि कुछ कंपनियां बाज़ार का सारा पैसा खींचकर बैठ रहीं हैं।  

ये बातें यूं तो किसी भी आर्थिक-सामाजिक तंत्र से जुड़ी हुई मुख्य बातें हैं लेकिन वर्तमान भारत में जिस तरह अर्थव्यवस्था और विकास से लोगों का ध्यान भटकाया जा रहा है, वह इन मामलों को समझने की ज़रूरत को बहुत बढ़ा देता है। 

अनियंत्रित बाज़ार एक खतरा

प्रतीकात्मक तस्वीर। फोटो साभार- Flickr

कमाई करना किसी भी कम्पनी या लाभ के लिए कार्य करने वाले उद्यम हेतु एक स्वाभाविक प्रक्रिया है। शायद ही कोई ऐसा व्यापारी हो जो बाज़ार में सबसे बड़ी और एकमात्र दुकान ना चाहता हो मगर इसी स्वभाव की वजह से अनियंत्रित बाज़ार ना सिर्फ खरीददारों के लिए बल्कि स्वयं व्यापारियों के लिए एक खतरा बन जाता है।

क्योंकि वह एक ऐसे जंग के मैदान में बदल जाता है, जहां बड़ा व्यापारी छोटे को खाना शुरू कर देता है। यह सब अंततः एक व्यापारिक तानाशाही अर्थात मोनोपॉली की ओर बढ़ जाता है।

ध्यान देने वाली बात यह है कि व्यापारियों के नैतिक मूल्यों की बात नहीं है। बिल गेट्स और वॉरेन बफे जैसे उद्यमी एक हाथ से अकूत पैसा बनाते हैं. तो दूसरे से उसका उपयोग मानव सेवा में भी करते हैं। यह बात उद्यमों का लाभ के लिए होने से उत्पन्न एक स्थिति का परिचय है।

अनिश्चितता से बचने के लिए ज़रूरत होती है सरकारों की

पीएम मोदी। फोटो साभार- सोशल मीडिया

सरकार एक ऐसी व्यवस्था है, जो नागरिकों के प्रतिनिधि के रूप में नागरिकों के अधिकार क्षेत्र, अर्थात सार्वजनिक क्षेत्र, संसाधनों, जैसे ऊर्जा, जल, ज़मीन, बिजली, खनिज, वगैरह विभिन्न उद्यमों को उचित नियमन से इस तरह वितरित करती है कि जनता की मूलभूत सुविधाएं और आवश्यकताओं की पूर्ति होने के समांतर उद्यमों को कार्य करने लायक सुविधा मिलती रहती है।

जब सरकारी तंत्र नागरिकों के हित में बाज़ार के नियमन की मंशा से कार्य करता है, तो वह उद्योग तंत्र और बाज़ार को सुविधाएं और स्थान उपलब्ध कराता है। ताकि उद्योगों का चहुंमुखी विकास उनके जनतंत्र के हर हिस्से में हो।

बाज़ार में समान रूप से बहुराष्ट्रीय, राष्ट्रीय, प्रांतीय, मध्यम, लघु, गृह और कुटीर उद्योगों की विभिन्न परतें बनीं रहें। अगर इस तरह का विकेन्द्रित तंत्र बनाकर सरकार, उद्योगों और सार्वजानिक क्षेत्रों के बीच एक बहुआयामी और हवादार तंत्र विकसित करती है, तो ठीक किसी श्वसन तंत्र की तरह उच्च-मध्य-निम्न वर्ग के बीच मुद्रा का आवागमन बराबर होता रहता है।

जिसके अच्छे स्वास्थ्य की निशानी निरंतर बहुस्तरीय रोज़गार, निर्माण और मुद्रा के प्रवाह के “नीचे से ऊपर” और “ऊपर से नीचे” बने रहने की सततता से मापा जा सकता है। इस तरह की अर्थव्यवस्था आपको कुछ विकसित यूरोपीय देशों जैसे डेनमार्क, स्वीडन, फिनलैंड, नॉर्वे में प्रचुरता से मिलेगी।

उद्यमों की पिट्ठू क्यों बन जाती है सरकार?

रैली के दौरान जनता

अगर सरकार लाभ के लिए कार्य करने वाले उद्यमों की पिट्ठू बन जाती है, तो वह जनता की नहीं रहती है। जनता को बांटकर उसका ध्यान आर्थिक ज़रूरतों के प्रति गैरहाज़िर करके वह कुछ चुनिंदा वर्गों या व्यापारियों के हाथ में सारी सत्ता इकठ्ठा कराने की प्रक्रिया में लगकर जनसेवा के बजाय व्यापारियों के लाभ को उद्देश्य बना लेती है।

उसे पैसे और संसाधनों के असामान्य वितरण और विभिन्न औद्योगिक क्षेत्रों में कुछ एक ही चुनिंदा कंपनियों की शक्ति सर्वोपरि हो जाने के गुण से पहचाना जाना सकता है। 

इस तरह की सरकारों के चरम रूप को आप सऊदी अरब में देख सकते हैं, जहां अरब की सारी संपत्ति शेख वर्ग के हाथ में हैं जिन्होंने संपूर्ण व्यापारिक तंत्र अमेरिकी कंपनियों के हाथों में देकर जनता और समाज को गैरज़रूरी मुद्दों से भटकाया हुआ है। जिससे उनकी सामाजिक दशा इस स्तर पर जा चुकी है कि आतंकवाद जैसे घृणित राजनीतिक औज़ार का उपयोग अपनी सत्ता बनाए रखने के लिए अरब के शेख और अमेरिकी कम्पनियों का तंत्र लगातार करता रहता है।

इस तरह की व्यवस्था आकार कैसे लेती है? लोकतंत्र का पतन कैसे होता है? सामान्य जनता को यह तंत्र ध्रुवीकरण द्वारा भ्रमित कैसे करता है? तमाम सामाजिक-आर्थिक क्षति, बेरोज़गारी, और आतंकवाद के बाद भी यह अपना शासन कैसे बनाए रखते हैं?

यह सब समझने के लिए वर्तमान भारत एक अच्छा उदाहरण प्रस्तुत करता है। भारत के नागरिकों को जनता की सुविधाओं से जुड़े मुद्दों पर बात और कार्य करने के लिए सरकार को मजबूर करना ही चाहिए, क्योंकि भारत की स्थिति में अभी बहुत देर नहीं हुई है।

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