होली रंगों का त्यौहार, जिसे मोहब्बत का भी त्यौहार कहा जाता है। लखनऊ में गंगा जमुनी तहज़ीब को बनाए रखने में यह त्यौहारों का बड़ा ही विशेष महत्व रहा है मगर इतनी अच्छाइयां होने के बावजूद यह त्यौहार कुरीतियों और बुरी आदतों से अछूता नहीं है।
बचपन से हम बॉलीवुड के गाने सुनते आए हैं, “अंग से अंग मिलाना सजन तुम ऐसे रंग लगाना” या “रंग बरसे भीगे चुनर वाली, रंग बरसे” आदि। आज के दौर में तो फूहड़ टाइप के भोजपूरी गीतों का अधिक चलन है।
होली और सहमति
इन सब के बीच सहमति नाम की चीज़ कहीं भी नहीं है। जब मैं आठ या नौ साल का था, तब ऐसे गानों से प्रभावित होकर मैंने अपनी एक क्लासमेट पर गलत तरीके से रंग फेंक दिया था।
रंग उसकी आंख में जाते-जाते बचा। हम बुरा ना मानो होली है कहकर सारी बातों को अनदेखा नहीं कर सकते हैं।
सड़क पर जाते हुए किसी इंसान पर रंग फेंक देना बिना उसकी सहमति के यह समझे बिना कि वह किस काम से जा रहा है, यह एक कुप्रथा ही। किसी को पकड़कर ज़बरदस्ती उसके गाल खींचकर रंग देना एक तरह का शोषण है। “बुरा ना मानो होली है” कहकर आप इस बात को सही नहीं ठहरा सकते हैं कि आपने जो किया वह सही था।
होली और यौन शोषण
गाँवों में पुरुष इस दिन को लेकर उत्तेजना में रहते हैं। इस दिन कहीं ना कहीं कुछ लोग होली के नाम पर अपनी ठरक को संतुष्ट करना चाहते हैं। वे कोशिश करते हैं कि महिलाओं के निजी अंगों में रंग भर सकें।
ऐसा करने के लिए कुछ रिश्ते हैं, जहां एक तरह की छिपी हुई अनुमति समाज ने दे रखी है। देवर-भाभी, जीजा-साली इनमें से एक है। “देवर जी भतार बन जाई न” जैसे घटिया गाने इन घटनाओं को तूल देते हैं। यह कुप्रथा जाने कब से चली आ रही है।
इस समाज में हमें यह समझ विकसित करने की ज़रूरत है कि बुरा ना मानो होली है कहकर आप शोषण की अनुमति नहीं पा जाते हैं। इसलिए आप जिस पर भी रंग डालें, उनकी सहमति होनी चाहिए और साथ ही साथ मर्यादा का ध्यान रखें कि आप शरीर के किन अंगों को छू सकते हैं और किन अंगों को नहीं।