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“रंग लगाने के बहाने मेरे शरीर के हर हिस्से को छूने की कोशिश की गई थी”

फोटो साभार- Flickr

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बात वर्ष 2018 की है जब मैं दिल्ली में रहा करती थी। दिल्ली विश्वविद्यालय से मैं परास्नातक की पढ़ाई कर रही थी। मेरा कोई भाई नहीं था, हम परिवार में तीन लोग थे। मैं, माँ और पापा, बस इतनी सी ही थी मेरी दुनिया।

जब कभी त्यौहार आया करते थे, मैं स्वयं को बहुत अकेला महसूस करती थी। वर्ष 2018 में होली का पर्व आया था, मेरे साथ के सभी दोस्त अपने अपने गाँव और शहर चले गए थे। घर मे सिर्फ हम तीन लोग ही थे। होली हमेशा मैंने ऐसी ही मनाई थी। 

आस पास के ही लोगों से मिलना-जुलना रहता था मगर अब वे तो अपने घर जा चुके थे। इस बार की होली भी मेरी अकेले ही होने वाली थी। मुझे रंग खेलना बहुत पसंद है, गुलाल के रंगों की खुशबू को अपने ज़हन में समा लेना चाहती हूं।

मैं अक्सर माँ-पापा के साथ ही रंग खेल लिया करती थी। माँ को जी भरकर रंग लगाया करती थी। पापा हर बार कहते थे, “अरे बस कर पगली, अब और कितना रंगेगी मुझे! उफ्फ सारे रंग मुझ पर डाल दिए इस लड़की ने।” मैं कहां मानने वाली थी जब तक पापा के चेहरे को पूरा रंग नहीं देती थी। 

मैंने माँ से कहा, “माँ हम लोग गाँव क्यों नहीं जाते? यहां कोई नहीं होता मेरे साथ। हमारा भी तो परिवार है, गाँव है सब लोग है। हमको भी गाँव चलना चाहिए।”

अगले वर्ष हम गाँव चलेंगे

प्रतीकात्मक तस्वीर। फोटो साभार- Flickr

माँ ने कहा, “बिल्कुल हम गाँव चल सकते हैं मगर होली पर इतनी भीड़ होती है कि आने-जाने का मन ही नहीं होता। तुम्हारे पापा की छुट्टी भी 2 दिन की ही होती है। दो दिन आने-जाने में ही निकल जाते हैं। तुम चाहती हो गांव चलना तो अगले वर्ष गांव चलेंगे। अगली होली गांव में ही मनाई जाएगी।”

माँ की सहमति सुनते ही मैं बहुत खुश हो गई थी। मैं अक्सर अपने दोस्तों से सुना करती थी कि गाँव में परिवार के साथ कैसे होली का त्यौहार मनाया जाता था।

कितना खुश होते थे वे लोग। मुझे एहसास हो रहा था कि अगली होली मैं भी सभी को किस्से सुनाऊंगी। मैं भी उनको बताउंगी कि हमने होली में कितना धमाल किया है। मैं बताऊंगी कि मैंने कितना आनंद लिया है रंगों का।

मेरे गाँव की होली

प्रतीकात्मक तस्वीर। फोटो साभार- Flickr

वर्ष 2019 की होली आने ही वाली थी। माँ ने सामान की पैक कर ली थी। पापा ने चार दिन का अवकाश ले लिया था। मैं बहुत उत्साहित थी गाँव जाने को। देखना चाहती थी कि क्या गाँव की होली भी वैसी ही है जैसी यहां कॉलोनी के लोग खेला करते हैं।

मैं देखना चाहती थी कि जैसा मेरे दोस्त बताते हैं, क्या वास्तव में गाँव के लोग वैसे ही रंग लगाते हैं? पापा ने बस या ट्रेन से ना जाकर अपनी गाड़ी से गाँव चलना पसन्द किया था।

उनका कहना था कि बस या ट्रेन में सफर बहुत कठिन होगा इन दिनों, बेहतर है हम अपनी गाड़ी से निकल जाएं। पूरा परिवार गाँव की ओर निकल चुका था। रास्ते भर मैं बहुत खुश थी, बहुत आनंद आ रहा था।

मुझे रंग में घुल जाना बेहद पसंद है

होली के दौरान अश्लीलता। फोटो साभार- सोशल मीडिया

हम शाम तक गाँव आ गए थे। अगली सुबह होली थी। हमारा परिवार काफी बड़ा है। पूरे परिवार में लगभग 50 के करीब लोग होंगे तो आप आंकलन कर सकते हैं कि परिवार कितना बड़ा होगा। सब मिलनसार लोग हैं। सबसे मिलकर बहुत आनंद आता है।

होली के माहौल में सब सराबोर थे। सुबह हो गई थी, माँ ने चाय बनाई और मुझे दी। कुछ ही देर में परिवार की मेरी बहनें मुझसे मिलने आईं थी।

उनमे कुछ मेरी उम्र की थी तो कुछ बड़ी और छोटी भी थी। उन्होंने कहा, “दीदी अब उठो भी, आज खूब सारा रंग खेलेंगे।” मैं उनसे चहककर कह उठी, “हां क्यों नहीं, मैं रंग का आनंद लेने ही तो आयी हूं। मुझे रंग में घुल जाना बेहद पसंद है।”

जब उसने कहा बुरा न मानो होली है

प्रतीकात्मक तस्वीर। फोटो साभार- Flickr

हम पूरे परिवार के साथ रंग ग़ुलाल उड़ा रहे थे। हमने बहुत मस्ती की थी और होली का आनंद लिया। कुछ देर में परिवार के ही चचेरे भाई लोग भी होली खेलने आ गए थे।

मैं उनके साथ होली खेल रही थी। उन्हीं में से एक ने मेरे स्तनों को दबाते हुए, मेरे सीने पर रंग लगाया। मैं चीख पड़ी, उसने मुझसे कहा कि बुरा ना मानो, होली है। 

शरीर से रंग के निशान हटाते हुए मैं रो रही थी

प्रतीकात्मक तस्वीर। फोटो साभार- Flickr

मैं बहुत डर गई थी। आखिर ये कैसी होली है? आखिर यह कैसा रंग है? आखिर मैं क्यों बुरा ना मानूं? आखिर मैं किसी को कैसे इजाज़त दे दूं अपने सीने पर हाथ डालने की? रंग लगाने के बहाने उस भीड़ ने मेरे शरीर के हर हिस्से को छूने की कोशिश की थी।

मैं बहुत डरी हुई महसूस कर रही थी और लगातार रो रही थी। मेरे आंसू नहीं थम रहे थे। मैं सब कुछ छोड़कर घर आ गई थी, माँ ने पूछा क्या हुआ मैंने कहा कुछ नहीं, अब मुझे कोई रंग नहीं खेलना। मैंने रोते हुए शरीर से रंग के हर निशान को हटा दिया था। 

अरे दीदी, होली में तो यह आम बात है!

प्रतीकात्मक तस्वीर। फोटो साभार- Flickr

रात होते ही मैंने पापा से दिल्ली निकलने की ज़िद्द कर दी थी। पापा ने पूछा भी आखिर हुआ क्या है? पहले तो आने की जल्दी थी और अब जाने की? भला मैं उनसे और माँ से क्या कहती? मैंने कहा, “मुझे कॉलेज का एक प्रोजेक्ट पूरा करना है, यही छुट्टियां हैं तो उनमें ही उसे पूरा कर लेंगे तो ज़्यादा बेहतर रहेगा।”

पापा ने सुबह ही निकलने के लिए कह दिया था। मैं अब एक भी रात गाँव में गुज़ारना नहीं चाहती थी। मैं घुटन महसूस कर रही थी। जब मैंने अपनी चचेरी बहन से जब यह सब कहा था, जो कि गाँव में ही रहती है तब उसने मुझसे कहा, “अरे दीदी, होली में चलता है। होली में तो यह एक आम बात है।”

होली की आड़ में मन की गंदगी को पूरा करना अत्यंत भयावह है

प्रतीकात्मक तस्वीर। फोटो साभार- Flickr

मैं समझ गयी थी कि होली की आड़ में किस तरह लोग अपने मन की गंदगी को पूरा करते हैं। हम गाँव से दिल्ली वापस आ गए थे। अब मुझे कोई ना रंग अच्छे लगते हैं और ना ही होली।

डर सा लगता है मुझे इन रंगों से। ना जाने कौन व्यक्ति रंग लगाने की आड़ में अपनी हवस को मिटाने की चाह पूरी कर ले। इस बार की होली कैसी होगी मुझे नहीं पता मगर यह तय है कि हम इस बार की होली में गाँव नहीं जा रहे हैं।

क्या रंग स्तनों पर लगाकर ही होली मनाई जा सकती है? क्या रंग कमर या उसके नीचे लगाकर ही होली मनाई जा सकती है? क्या होली मनाने के लिए ज़रूरी है किसी महिला के सीने में हाथ डाल देना?

क्या ज़रूरी है उसके नितंबों को स्पर्श देना? यदि यह करना अन्य दिनों में कानूनन अपराध है, तो होली में यह महज़ ‘बुरा ना मानो, होली है’ जैसे शब्दों की आड़ में अपराध करना सही क्यों है? 

मुझे अपने पर्वों से बेहद लगाव है। कुछ संकीर्ण मानसिकता के दूषित लोगों ने पर्व को अपनी हवस का संसाधन बना रखा है। ज़रूरी है ऐसे लोगो को चिन्हित कर उनको कानून के दायरे में लाते हुए दंडित किया जाए।


नोट: YKA यूज़र ने अंकुर त्रिपाठी ने सभ्यता (बदला हुआ नाम) से बातचीत के आधार पर यह स्टोरी लिखी है।

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