कभी सोचा था, कोई ऐसा रंगमंच दिवस भी आएगा जब दुनिया के किसी भी कोने में कोई नाटक नहीं कर रहा होगा? सब नेपथ्य में छुपे दुबके बैठे होंगे. हमारे शरीर में पाया जाने वाला एक अदना सा वायरस चकरी की तरह पूरी दुनिया को उंगलियों पर नचाएगा और डराएगा हमें कि चकरी से निकली चिंगारी कहीं हमारे पास ना आ जाए।
सुना है, परिवार से भाग कर रंगमंच करने चले थे, जिन्होंने तुम्हे पैदा किया बल्कि कहूं कि इतना स्वस्थ पैदा किया कि तुम रंगमंच कर सको, तुम उनसे ही लड़ बैठे थे. लो कैद कर दिया तुम्हे उसी तुम्हारे परिवार के साथ.अब सुनो उनकी आत्मा का संगीत जिसे तुम सबके सामने ज़लील कर के चें-चें पें-पें कहा करते थे.
तुम्हारे इतने सारे साथी, इतने सह-कलाकार लेकिन तुम…
तुम अपने सह-कलाकारों से कभी इज्ज़त से पेश नहीं आये. सिर्फ़ स्वयं के अभिनय की प्रशंसा के लालच में तालियों की गडगढ़ाहट में तुमने सारे सह-कलाकारों को भुला दिया. तुम ऐसा नाटक करना चाहते थे कि ये धरती हिल उठे, आकाश से गर्जना हो…लोगों की रूह काँप जाए.
लेकिन देखो तुम्हारी ही रूह कैसी काँप रही है.
तुम अपनी कौम और काम को इतना ख़ास समझ रहे थे कि पूरी प्रक्रति को ग्रांटेड ले लिया. तुम्हे लगता है, सब तुम्हारे लिए बना है. पेड़ तुम्हे ऑक्सीजन देने के लिए बने हैं, गाय तुम्हे दूध देने के लिए बनी है, धरती तुम्हे तेल देने बनी है, दुनिया के सारे जानवरों का सामूहिक उद्देश्य सिर्फ़ तुम्हारे तरह तरह के व्यंजन का हिस्सा बनना है. तुम्हे लगने लगा तुम्हारे अलावा हर जीव-निर्जीव दोयम दर्जे का हैं. भूल गये तुम विकास की प्रक्रिया. सोच रहे थे, हम बोलते नहीं है तो सब सहते जायेंगे और तुम कला के नाम पर अपना नंगा नाच दिखाते जाओगे. वैसे तुम्हे अब याद आया होगा कि तुम्हारी प्रजाति का अस्तित्व तो अभी अभी कायम हुआ है. विकास में चैन में तुम्हारी कौम का नंबर बहुत पीछे है.
तुम अपने शो के डायरेक्टर, एक्टर, लाइट, संगीत सब खुद करने चले थे, बाग़डोर लेना चाह रहे थे न अपने हाथों में न हमेशा से. लो थमा थी डोर तुम्हारे हाथ में, अब खींचते रहो लगाम. ज़िन्दगी की बग्घी अब पहले जैसी आगे नहीं बढ़ेगी…पड़े रहो तुम नेपथ्य में अब.
कितना समझाया था तुम्हे धैर्य के बारे में, नहीं समझे. अब तुम पर निर्भर करता है कि कब दुनियावी स्टेज पर तुम्हें दुबारा कदम रखने मिलेगा. कैसा लग रहा है बेबस हो कर, पिंजरे में रह कर. अब समझ आया कि तुम कब किस मौसम में कितना नाचते हो ये तुम्हारे अलावा बहुत चीज़ों पर निर्भर है
सुना है पूरी दुनिया पर कब्ज़ा करने के लिए बड़े महंगे महंगे हथियार बनाए हैं तुमने. एक क्षण में दुनिया खत्म कर सकते हो लेकिन ये COVID-19 ऐसा नहीं करेगा. तुम हर उस चीज़ को जो तुमसे अलग है मुर्दाबाद कहते हो. एकरूपता थोपते हो. ख़ुद को महानतम समझते हो. हम सब जीव हैं…जीव…..हम सब में बिलकुल बराबर मात्रा में जीवन है.
ग़लतफहमी में मत रहना, किसी पर इलज़ाम भी मत लगाना, फ़िक्र भी मत करना, ये COVID-19 तुम्हे क्या खत्म करेगा…. तुम्हे खत्म करेगा तुम्हारे दिमाग में फैलता ऊँच-नीच का वायरस जो ये चुनता है कि किसका जीवन ज़्यादा महत्वपूर्ण और किसका नहीं. हाँ, इससे कुछ धैर्यवान चिकित्सक भी मारे जायेंगे लेकिन क्या करें गेंहू के साथ घुन तो पिसता ही है. आख़िर कब तक अपनी छाती पे मूंग दलवा के तुम्हारी नाटक-नौटंकी सहते रहते?
ये वायरस तुम्हें अनभिग्य अज्ञेय सी मौत भी नहीं मरने देगा. क्रूर नहीं है ये तुम्हारे जैसा. ये पूरा महीना देगा सोच विचार करने के लिये और तब जा के तुम्हारे प्राण पखेरू होंगे. तुमने तो मौका कभी दिया नहीं पर ये ज़रूर देगा एक आख़िरी मौका. अगर धैर्य से काम ले लिया और अपने नाटक के लिए दूसरों की बलि लेनी बंद कर दी तो अगले रंगमंच पर साथ नाटक खेलेंगे.
विश्व रंगमंच दिवस की शुभकामनाएं