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ज्योतिरादित्य सिंधिया के बाद अब आगे किसकी बारी?

ज्योतिरादित्य सिंधिया

ज्योतिरादित्य सिंधिया

राजनीति शह-मात का वो खेल है, जिसमें सब एक-दूसरे को मात देना चाहता हैं। हर कोई कुछ ना कुछ बनने की चाह में होता है। कार्यकर्ता नेता बनना चाहता है, नेता मंत्री बनना चाहता है, मंत्री मुख्यमंत्री फिर प्रधानमंत्री बनना चाहता है और जो कुछ नहीं रहता है, वह भी कुछ ना कुछ बनना चाहता है।

मगर शह-मात के इस अनूठे खेल में सब एक-दूसरे को मात दे पाएं ऐसा बिल्कुल भी नहीं है मगर उस महत्वकांक्षा का क्या जो हर नेताओं के अंदर होती है और इसी महत्वाकांक्षा के चलते मध्य प्रदेश में पहले कमलनाथ और दिग्विजय सिंह ने पहले ज्योतिरादित्य सिंधिया को साइड लाइन किया और अब उसी ज्योतिरादित्य सिंधिया ने मध्य प्रदेश में पूरे काँग्रेस को ही साइड लाइन कर दिया है।

15 साल के बड़े लंबे संघर्ष के बाद काँग्रेस बड़ी मुश्किल से मध्य प्रदेश में सत्ता का स्वाद चख पाई थी मगर नेताओं के महत्वकांक्षा और आपसी गुटबाज़ी ने डेढ़ वर्ष के अंदर ही उसकी लुटिया डुबो दी।

कभी काँग्रेस के दिग्गज और गाँधी परिवार के सबसे विश्वसनीय में से एक रहे ज्योतिरादित्य सिंधिया ने मध्यप्रदेश के सियासी हवा का रुख ऐसा मोड़ा है कि काँग्रेस ताश के पत्तों की तरह बिखरी नज़र आ रही है।

अमित शाह और नरेंद्र मोदी के साथ एक लंबी बैठक के बाद जब सिंधिया ने काँग्रेस के प्राथमिक सदस्यता से इस्तीफा दिया तो मानों मध्यप्रदेश काँग्रेस में इस्तीफों की बाढ़ आ गई और देखते ही देखते सिंधिया खेमे के 6 मंत्री समेत 22 विधायकों ने बेंगलुरु से ही अपना इस्तीफा भेज दिया।

अभी कितने विधायकों के इस्तीफे और आएंगे कहना मुश्किल है। जानकार बताते हैं कि तकरीबन 35-40 विधायक इस्तीफा दे सकते हैं। इतनी बड़ी संख्या में विधयकों के इस्तीफे के साथ यह तय हो गया कि कमलनाथ सरकार को गिराने के लिए जो पटकथा महीनों से लिखी जा रही थी, वह अब अपने अंतिम चरण में है। यानी कि मध्यप्रदेश में बीजेपी की सरकार आने में अब महज़ औपचारिकता बाकी है।

सिंधिया बनाम कमलनाथ की राजनीतिक लड़ाई

मध्यप्रदेश के मुख्यमंत्री कमलनाथ। फोटो साभार- सोशल मीडिया

सिंधिया और कमलनाथ की राजनीतिक लड़ाई कोई नई बात है। एक राज्य में जब कई क्षत्रप हों तो लड़ाई स्वाभाविक है और काँग्रेस के साथ ऐसी स्थिति कमोबेश हरेक प्रदेश में है मगर सत्ता से दूरी ने कभी सिंधिया और कमलनाथ को आमने-सामने नहीं आने दिया और जब 2018 में काँग्रेस की वापसी राज्य में हुई, तो सत्ता पर काबिज़ होने की लड़ाई खुलकर सामने आ गई।

चुनावी नतीजों के बाद कमलनाथ ने अपनी सूझ-बूझ और अनुभव का फायदा उठाकर सिंधिया को दरकिनार कर मुख्यमंत्री की कुर्सी पाने में सफल रहे और बड़ी मुश्किल से तत्कालीन काँग्रेस अध्यक्ष राहुल गाँधी ने सिंधिया को मनाया था।

पार्टी जब लोकसभा चुनाव में गई तो कमलनाथ पर यह आरोप लगा कि वह सिंधिया समर्थक उम्मीदवारों को दरकिनार कर रहे हैं और ना केवल समर्थकों को अपितु सिंधिया को भी कार्यकर्ताओं का पूरा सहयोग नहीं मिलने दे रहे हैं क्योंकि पार्टी की कमान कमलनाथ के हाथों ही है।

चुनाव नतीजों के बाद शक और गहरा गया जब सिंधिया भारी अंतर से गुना से चुनाव हार गए। आखिर यह हैरानी की बात तो है कि जिस राज घराने के एक इशारे पर पूरा ग्वालियर हिलता है, उसी राज घराने का राजा एक ‘मामूली’ से कार्यकर्ता से कैसे लाख वोट के अधिक अंतर से चुनाव हार गया!

वहीं, दूसरी ओर छिंदवाड़ा से कमलनाथ के बेटे नकुलनाथ चुनाव जीतने में सफल रहे। मतलब कमलनाथ ने अपने बेटे को जीताने पर ध्यान लगाया ना कि सिंधिया पर। इस प्रकार का आरोप राजस्थान में अशोक गहलोत पर भी लगा था।

यानी मुख्यमंत्री रहते कमलनाथ ने लोकसभा चुनाव में ज्योतिरादित्य के हारने का पूरा इंतज़ाम कर दिया था। ताकि भविष्य में केंद्रीय काँग्रेस नेतृत्व इनकी बातों को कम सुने।

समय-समय पर दोनों एक-दूसरे पर वार करने से भी नहीं हिचके। भारी बारिश और बाढ़ जैसे हालात पर दोनों के बीच ट्विटर पर ज़बरदस्त तू तू मैं मैं भी हुई। सिंधिया ने जब मेनिफेस्टो का वादा अधूरा रहने पर सड़कों पर उतरने की बात कही तो कमलनाथ ने बेहद तल्ख लहज़े में कहा था कि “उतर जाएं।” मध्यप्रदेश के शासन-प्रशासन के फैसले में भी कमलनाथ की ही चलती रही और ऐसा प्रतीत होता रहा कि सिंधिया बैकफुट पर हैं।

बीते डेढ़ साल में सिंधिया-काँग्रेस की राहें जुदा

ज्योतिरादित्य सिंधिया

काँग्रेस में तकरीबन 18 साल से रह रहे ज्योतिरादित्य सिंधिया पिछले डेढ़ सालों से काँग्रेस से खफा चल रहे थे। एक तो मध्यप्रदेश में उन्हें मुख्यमंत्री नहीं बनने दिया गया और ऊपर से काँग्रेस ने उन्हें लोकसभा चुनाव में पश्चिमी उत्तरप्रदेश का प्रभारी बनाकर प्रियंका गाँधी के साथ यूपी भेज दिया।

तो ज्योतिरादित्य ने इसे उन्हें मध्यप्रदेश से अलग-थलग करने के तौर पर लिया। फिर ऐसे कई मौके आए जब सिंधिया पार्टी लाइन से अलग हटकर स्टैंड लेते दिखे। यहां तक जम्मू-कश्मीर से अनुच्छेद 370 के हटने का समर्थन तक कर दिया। जबकि काँग्रेस हमेशा से ही 370 के हटाने के खिलाफ रही है।

फिर सितम्बर महीने में उन्होंने ट्विटर से अपना काँग्रेसी परिचय हटाकर खुद को जनसेवक और क्रिकेट प्रेमी के रूप में परिभाषित किया। बीच में लोकसभा चुनाव हारने के कारण भी उनकी अहमियत केंद्रीय नेतृत्व के पास कम हो गई। ऐसा नहीं है कि काँग्रेस आलाकमान इन सभी बातों से अनभिज्ञ थी, बल्कि सब कुछ जानते हुए भी उसने इसका समाधान नहीं निकाला।

सिंधिया से बात करके उन्हें मनाने तक कि ज़ुर्रत किसी ने नहीं की। इस मुद्दे पर काँग्रेस आलाकमान की सुस्ती और कमलनाथ की ज़रूरत से ज़्यादा महत्वकांक्षा ने सिंधिया को काँग्रेस से दूर कर दिया और नतीजा काँग्रेस मध्यप्रदेश में सत्ता गंवाने जा रही है।

काँग्रेस के पास मध्यप्रदेश में नेता भी तीन हैं और पद भी तीन ही है! मुख्यमंत्री का पद कमलनाथ ने पास पहले से ही है। बचा राज्यसभा और प्रदेश अध्यक्ष का पद तो उसे दिग्विजय और सिंधिया में बांटा जा सकता था मगर कमलनाथ, दिग्विजय का ज़रूरत से अधिक लालची होना समझ से परे है।

प्रदेश अध्यक्ष या राज्यसभा में से कोई एक पद सिंधिया को दे दिया जाता जो उनकी मांग भी थी, तो आज सिंधिया उनके साथ होते और मध्यप्रदेश में सरकार भी बच जाती मगर नेतृत्व संकट से जूझ रही काँग्रेस इस प्रकार का समन्वय स्थापित करने में असफल रही और अंततः काँग्रेस एक बड़े सूबे को गंवाने के कगार पर खड़ी है।

सिंधिया परिवार और बीजेपी का रिश्ता

ज्योतिरादित्य सिंधिया की दादी विजयराजे सिंधिया।

विचारधारा और नैतिकता विहीन राजनीति के दौर में भी अगर सिंधिया पर विचारधारा के साथ समझौता करने का आरोप अगर लगता भी है तो उन पर यह आरोप टिकेगा नहीं! क्योंकि सिंधिया परिवार से ज्योतिरादित्य सिंधिया ऐसे पहले शख्स नहीं हैं, जो किसी की सरकार गिरा रहे हैं।

इससे पहले उनकी दादी विजयराजे सिंधिया ऐसा 1967 में कर चुकी है। 1957 में राजमाता विजयराजे सिंधिया शिवपुरी (गुना) से काँग्रेस के टिकट पर सांसद बनीं थी मगर जल्द ही काँग्रेस से उनकी राहें जुदा हो गईं और 1967 में तत्कालीन मुख्यमंत्री डीपी मिश्रा की सरकार को गिराकर जनसंघ के गोविंद नारायण सिंह को मुख्यमंत्री बनवा दिया।

ज्योतिरादित्य के पिता माधवराव सिंधिया भी शुरू में जनसंघ से जुड़े थे। 1971 में वो गुना से जनसंघ के टिकट पर सांसद भी बने मगर 1980 में वो काँग्रेस में चले गए। उसी समय माधवराव सिंधिया की दो बहनें और ज्योतिरादित्य की बुआ वसुंधराराजे सिंधिया और यशोधराराजे सिंधिया ने अपनी माँ को फॉलो किया और बीजेपी जॉइन कर ली।

ज्योतिरादित्य इतिहास दोहराने जा रहे हैं। वो अब बीजेपी के साथ आ गए हैं इस पर उनकी बुआ यशोधराराजे ने खुशी ज़ाहिर की है और कहा है कि उनकी घर वापसी हो रही है।

काँग्रेस और उसका भविष्य

राहुल गाँधी। फोटो साभार- सोशल मीडिया

काँग्रेस के लिए अब आगे की राह कांटो भरी है। ज्योतिरादित्य जैसे युवा नेता पार्टी छोड़कर जा रहे हैं। ऐसे में राजनतिक विश्लेषक यह मानते हैं कि अगला नंबर राजस्थान का हो सकता है, जहां सचिन पायलट पाला बदल सकते हैं।

काँग्रेस के लिए आवश्यक है कि पहले वो केंद्रीय नेतृत्व संकट दूर करे और युवा नेता को पार्टी लीड करने की ज़िम्मेदारी दें। नेतृत्व परिवर्तन कर युवा और वरिष्ठ नेताओं के बीच संवाद स्थापित कर एक नया विश्वास बहाल करें।

अन्यथा आने वाले दिनों में राजस्थान में सचिन पायलट, महाराष्ट्र में मिलिंद देवरा, संजय निरुपम, पंजाब में सिद्धू, हरियाणा में हुड्डा पार्टी से विदाई लेने में देर नहीं करेंगे!

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