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“कोरोना से ज़्यादा पूंजीवादी व्यवस्था के कारण दिल्ली से पलायन कर रहे हैं मजदूर”

फोटो साभार- Twitter

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19वीं शताब्दी में लंदन के मध्यम वर्ग और अमीरों ने गाँव से आए मज़दूरों के लिए सस्ते घर बनाए जाने की मांग अपनी सरकार से की और सरकार ने यह बात मानी भी। जिसके तहत औद्योगिक कारखानों के नज़दीक ही मज़दूरों के लिए घर बनाए गए। इससे पहले मज़दूर भीड़भाड़ वाले इलाकों में बहुत ही बेतरतीब ढंग से रहा करते थे।

पूंजीवादी राज्य लोक कल्याणकारी राज्य की तरफ अग्रसर हुआ

मज़दूर वर्ग। फोटो साभार- सच्चिदानंद सोरने

धीरे-धीरे शहर के मध्यम वर्ग को यह लगा कि मज़दूरों के इस तरह से रहने से जहां शहर में बीमारियों के फैलने की आशंका बहुत तेज़ी से बढ़ी है। वहीं, शहर का ढांचा भी चरमरा रहा था। बढ़ती आबादी के कारण लंदन में अपराध बहुत तेज़ी से बढ़ रहे थे।

भीड़भाड़ वाले इलाकों में आग लगने का खतरा हमेशा बना रहता था। इसके अलावा तत्कालीन रूस की क्रांति ने सरकार को मज़दूरों के लिए अच्छे  प्रावधान करने के लिए मजबूर किया।

यदि ऐसा नहीं किया जाता तो यहां भी मज़दूर “समाजवादी क्रांति” के लिए रास्ता बना सकते हैं। इस तरह से पूंजीवादी राज्य “लोक कल्याणकारी राज्य” की तरफ अग्रसर हुआ।

इतिहास में ऐसे बहुत सारे उदाहरण हैं जहां वर्तमान “लोक कल्याणकारी राज्य” यानी ऐसा राज्य या सरकारें जो अपने नागरिकों के लिए आधारभूत सुविधाएं देती हैं। उनका उदय समाजवादी राज्य या समाजवादी क्रांति के हस्तक्षेप के कारण हुआ।

देयर इज़ नो अल्टरनेटिव

लेकिन 1990 में सोवियत संघ के विघटन के परिणाम स्वरूप और चीन द्वारा खुली अर्थव्यवस्था अपनाए जाने के बाद पूंजीवाद बेलगाम हो चुका है। 1990 के बाद यह कह दिया गया कि “विचारधारा का अंत हो गया है” और पूंजीवादी उदारवादी व्यवस्था का कोई विकल्प नहीं है।

यानी देयर इज़ नो अल्टरनेटिव। इन हालातों में उदारवादी लोकतंत्र कुछ नहीं हैं बल्कि खुले बाज़ार और पूंजीवादी व्यवस्था को सपोर्ट करने का एक औज़ार है।

मज़दूरों का अचानक दिल्ली छोड़ना

दिल्ली से अपने गाँव की तरफ जाते मज़दूर। फोटो साभा- साहिल शर्मा

“आर्थिक सुधार” के नाम पर या “श्रम सुधार” के नाम पर मज़दूर “श्रम बाज़ार” में अपने आप को अकेला पा रहे हैं। जो हालात हमें आज सड़कों पर दिख रहे हैं, जिसमें हज़ारों मज़दूर बहुत ही बुरी दशाओं में बदहवास से अपने गाँव की तरफ जा रहे हैं, ऐसे हालात पिछले 6-7 दिन में कोरोना संकट के कारण नहीं बने हैं।

इसका कारण उदारवादी व्यवस्था में राज्य द्वारा अपने आप को सामाजिक सुरक्षा से पीछे खींच लेना है। इसलिए प्रवासी मज़दूरों के इस दर्द को व्यापक पृष्ठभूमि में समझने की ज़रूरत है। आज यह संकट कोरोना के कारण हुआ है। कल यह आर्थिक मंदी के कारण हो रहा था। भविष्य में यह जलवायु परिवर्तन जैसे बाढ़, सुखाड़ भुखमरी या किसी युद्ध के कारण भी हो सकता है।

जिन लोगों को शहरों में अस्थाई रूप से रहने का मौका मिला है और जब वे कभी त्यौहारों में शहर से अपने गाँव आते हैं तो इसी तरह की भीड़ रेलवे स्टेशनों और बस स्टेशनों में दिखाई देती है।

इन लोगों की लाचारी का फायदा प्राइवेट ट्रांसपोर्टर, रोडवेज़ के ड्राइवर-कंडक्टर, होटल और ढाबे वाले खूब उठाते हैं। मुझे तो ये लोग हमेशा ही लाचार से दिखते थे। आपको आज इसलिए दिख रहे हैं क्योंकि इसकी संभावना है कि ये लोग अपने साथ संक्रमित कोरोना वायरस आपके गाँव या शहर में ला सकते हैं।

क्या हम फिर से आर्थिक, राजनीतिक और सामाजिक तौर पर पुनर्निर्माण कर पाएंगे?

अपने शहर की ओर पलायन करते मज़दूर। फोटो साभार- सोशल मीडिया

एक बार कोरोना संक्रमण से उबरने के बाद हमारी आर्थिक, राजनीतिक और सामाजिक दुनिया का नए तरह से पुनर्निर्माण होगा और यह सुनिश्चित करना होगा जहां भी औद्योगिक कारखाने, औद्योगिक इकाई या जहां कहीं भी मज़दूर काम करते हैं उनके लिए वहां रहने, स्वास्थ्य सुविधाओं और अपने परिवार को साथ में रखने जैसी सुविधाएं भी उन्हें निश्चित रूप से दी जाएं।

अन्यथा ऐसे किसी संक्रमण से हम कभी नहीं लड़ पाएंगे। जलवायु परिवर्तन के इस दौर पर इस तरह के संक्रमण की संभावनाएं वैज्ञानिक और जानकार बहुत लंबे समय से जता रहे थे।

एक दौर में जो काम “समाजवादी राज्यों” ने किया यानी निरंकुश पूंजीवादी व्यवस्था को “लोक कल्याणकारी राज्य” की तरफ ले जाने का, वहीं काम अब एक छोटा सा लेकिन आंखों से ना दिखाई देने वाला वायरस कर रहा है। जिस तरह से यूरोप के कुछ देशों ने प्राइवेट व निजी स्वास्थ्य सेवाओं का राष्ट्रीयकरण किया है, उससे तो लगता है परिवर्तन की संभावना है।

बहुत सारी नकारात्मकता के बीच यह तो तय है कि कोरोना का यह छोटा सा वायरस दुनिया को बड़े स्तर पर बदलने का माद्दा रखता है। उसके लक्षण दिखने भी लगे हैं। आगे-आगे देखिए होता है क्या? यह देखना दिलचस्प है कि इंसान अपने समय के इस सबसे भयानक संकट से किस तरह निपटता है?

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