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“होली रंगों से कहीं ज़्यादा मर्यादा तोड़ने का त्यौहार बन गया है”

फोटो साभार- Flickr

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बसंत की सबसे खूबसूरत दस्तक, जहां रंग ही रंग बिखरे होते हैं। फिर चाहे वह होली का अबीर हो या प्रकृति का यौवन, जहां प्रकृति हर्षोल्लास पर होती है। आम पर मोर झूम रहा होता है, पलाश उगते सूरज की तरह आसमान में जलता दिखाई देता है।

शायद इन्हीं रंगों का उत्सव है होली। होली रंगों से कहीं ज़्यादा प्रेम का पर्व माना जाता है। भगवान कृष्ण भी कहते हैं, “मैं ऋतुओं में बसन्त हूं।” मतलब सबसे सुंदर ऋतु बसन्त को कहा गया है।

वहीं, कवियों ने अपनी रचनाओं में होली को जितना महत्व दिया है, उतना शायद ही किसी तीज-त्यौहार को मिला होगा। होली है भी इंद्रधनुषी रंगों की तरह खिलने वाला त्यौहार, जिसमें कुछ रंग प्रेम के होते हैं तो कुछ मान-मनुहार के।

होली ऐसा उत्सव है, जो घरों से निकल गली-कूचे तक पहुंच सारे शहर को रंगों में सराबोर कर देता है। कितने ही शहर होली के उत्सव को खास बनाते हैं। फिर चाहे बरसाने की लठमार होली हो या कोलकाता का शांतिनिकेतन होली उत्सव।

होली एक ऐसा त्यौहार है जिसके रंग में से कोई अछुता नहीं रह पाया है। भारत के अलग-अलग हिस्सों में होली को लेकर अलग-अलग मान्यताएं हैं और नियम भी।

बचपन से ही होलिका दहन देखना चाहती थी

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मैं जब छोटी थी, तब मेरी इच्छा भी होलिका दहन देखने की थी। तब मैं भी चाहती थी कि खुली सड़कों पर धूम मचाऊं लेकिन जैसा कि मैं छोटी थी तो घरों में इन सबकी मनाही थी लेकिन जैसे-जैसे मैं बड़ी होती गई मैंने देखा और महसूस किया कि होली रंगों से कहीं ज़्यादा मर्यादा तोड़ने का त्यौहार बन गया है। बेशक यह चलन पुराना होगा बस मुझ में वक्त के लिहाज़ से समझ कुछ देरी से अई थी।

यूं तो होली बड़ों से छोटे तक सबका त्यौहार है और इन्हीं सब रंगों की आड़ में सबसे ज़्यादा बदसलूकी और दुर्व्यवहार घरों से लेकर सड़कों तक महिलाओं को झेलना पड़ता है।

कई बार रिश्ते इतने नज़दीकी होते हैं कि चाहकर भी होली के नाम पर घरों में इन सब पर अंकुश नहीं लग पाता है।

बरसाने से लेकर मथुरा तक होली का मतलब बगैर इजाज़त छूने का पर्व

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सच तो यह है कि सड़कों, गली-कूचों पर होने वाली होली स्क्रीन पर जितनी लुभावनी लगती है, असल ज़िन्दगी में वैसी बिल्कुल नहीं होती है। यदि आप बरसाने और मथुरा होली उत्सव पर जाएंगे, तो आपको अनुभव होगा होली सहज रंगों का नहीं, बल्कि बगैर इजाज़त आपको किसी भी तरह से छू लेने का उत्सव है। किसी समाज समुदाय विशेष को मैं कटघरे में नहीं रख रही हूं लेकिन सच यही है।

यदि आप होली का अनुभव पूछने बैठेंगे तब बेझिझक रंग, भांग और छेड़छाड़ को एक ही प्याले में घुलते हए पाएंगे। यूं तो छोटी-बड़ी घटनाएं सबके साथ ही होते होंगें लेकिन इसे लिखते वक्त एक घटना मुझे याद आ रही है जिसे मेरी मित्र ने कभी मुझसे साझा किया था।

बात उन दिनों की है जब वह स्कूल में पढ़ती थी। उसने बताया, “होली का दिन था, घर में हम सब ही एक दूसरे को रंग देना चाहते थे। होली के हुड़दंग से जब हम सब थककर एक जगह बैठे हुए थे, तभी मेरे रिश्ते के एक भाई ने मुझे होली का रंग लगाने को आवाज़ दी।”

वह आगे कहती है, “मैं हमेशा की तरह पहुंची लेकिन तब वहां कोई और था नहीं। सब या तो थककर सो गए थे या फिर यहां-वहां बैठे थे। मैं उस कमरे में एकदम अकेली थी और इसमें कुछ अजीब भी नहीं था, क्योंकि घर मेरा ही था और दूर का ही सही भाई भी मेरा जाना पहचाना।”

मेरी मित्र ने रंग लगाने की घटना को जब बयान किया तो मैं हैरान रह गई। उसने कहा, “रंग लगाने के बहाने उसने जो हरकत की, वह मुझे सकते में डाल गई। उसने मेरे गालों पर गुलाल तो लगाया लेकिन मैं कुछ समझ पाती उससे पहले ही उसने कसके मेरे सीने (स्तन) को छुआ और  रंग उढेल दिया। सब इतना अप्रत्याशित और असहज कर देने वाला था कि मैं ना कुछ कह पाई और ना ही समझ।”

उसने कहा वह पूरी तरह स्तब्द्ध थी और उसके इस वाक्ये को सुनकर मैं पूरी तरह हैरान। पूछने पर पता चला उसने यह बात घर में कभी किसी को बताई ही नहीं। उसका कहना था कि घर में वह किसी को कुछ कहती तो उल्टा उसे नसीहत दी जाती, “तुम्हें इतना मुंह लगकर बात करने की ज़रूरत ही क्या थी?”

ऐसी घटनाएं रोज़मर्रा की ज़िन्दगी में रोज़ घटती हैं

ये कोई एक घटना नहीं है, बल्कि ऐसी जाने कितनी ही घटनाएं रोज़ घटती होंगी लेकिन होली की धूम में ऐसा घटित होना और सहज बना देता है। अब सवाल यह उठता है कि क्या ऐसी मानसिकता ठीक है?

होली महज़ रंगों का त्यौहार है, किसी को अपनी हदों को पार करने का लाइसेंस कोई कैसे दे सकता है? क्या हमारा समाज मानसिक रूप से इतना विक्षिप्त है कि मौका पाकर किसी को छूने, किसी के साथ अश्लील हरकत करने को अपना अधिकार समझ बैठे?

मैं दावे के साथ कह सकती हूं ऐसे कई हज़ारों घर होंगे जहां इन तीज-त्यौहारों के नाम पर इस तरह का कुछ भी घटित होना बहुत स्वाभाविक होता है। हम घरों में अपनी बेटियों को बोलना नहीं, बल्कि चुप रहना सिखाते हैं जिसका असर यह है कि ऐसी तमाम बातें खामोशियों के बीच ही खत्म हो जाती हैं।

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