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“काश कि मैं मुझ पर फब्तियां कसने वाले लड़के को कसकर थप्पड़ मार पाती”

सृष्टि तिवारी

सृष्टि तिवारी

हम जिस समाज में रहते हैं, वहां सदियों से या कहिये पीढ़ी दर पीढ़ी हमारे दिमाग में प्रथाओं, वास्तव में कुप्रथाओं के नाम पर बार-बार वही घिसी-पिटी बातें समाझा दी जाती हैं और उन ढर्रों पर हम चलते चले जाते हैं।

एक लड़की के तौर पर मैंने हज़ारों बार इन प्रथाओं का कोढ़ घरों में बढ़ते देखा है, जहां इन्हें नियम और कायदे के तौर पर ही देखा जाता है लेकिन आश्चर्य यह कि ये चीज़ें ज़्यादातर लड़कियों पर ही लागू होती हैं।

लेकिन ये नियम नहीं बंदिशें हैं, जो लड़कियों को बांध देती हैं और कितने ही बार हम लड़कियों को चुप करा दिया जाता है। कभी धर्म के नाम पर तो कभी सुरक्षा को लेकर! लड़कियां स्वीकार कर लेती हैं हर नसीहत, हर नियम को नियति मानकर।

यूं तो मैंने अपने घर में बंदिश की कोई जंज़ीर नहीं पाई है लेकिन कुछ बंदिशें हर घर, हर कूचे में होती है। कई दफे तो सड़क चलते किसी सफर में जब-तब हमें समझाया जाता है कि हम लड़कियां हैं और हमें यूं अकेले घर से नहीं निकलना चाहिए। हमें यूं बढ़कर जबाब नहीं देना चाहिए।

मैंने ऐसे कितने ही झिलमिलाते चेहरे देखें हैं, जिनमें चिंगारी की तरह ही सही सपनों की चमक ज़िंदा है लेकिन चुप्पी ने इन सपनों को बुझा दिया है। अपने सपने, आकांक्षाएं, उम्मीदें सब तज़ चुके हैं। हां, इन्ही बंदिशों के फेर में पड़कर और इन बंदिशों की टीस फांस बनकर कहीं भीतर ही रह जाती है, जो जब-तब याद बनकर चुभती रहती है।

कई मौकों पर ये टीस मेरे अंदर भी उठती है। हम समझ के फेर में कितना भी आगे निकल आए हों और सही-गलत का पैमाना कितना भी सही हो, पाबंदी का कोढ़ हमें कहीं ना कहीं जकड़ ही लेता है।

यूं तो मैं सब पाबंदियां तोड़ दूं लेकिन मैं तोड़ सकती तो सबसे बड़ी पाबंदी यानी कि चुप्पी को तोड़ती।

हमारे समाज में सबसे पहले लड़कियों को चुप रहना ही सिखाया जाता है। उन्हें बताया जाता है कि उनको हर बात में नहीं बोलना है, फिर चाहे मुंह के सामने, सड़क पर या अंधेरी गलियों में कोई कुछ भी कह रहा हो।

सृष्टि तिवारी।

उन्हें इस तर्क से दूर ही रखा जाता है कि सही और गलत क्या है? बस उन्हें समझा दिया जाता है कि चुप रहना और यही चुप्पी साल दर साल चलकर खामोशी बन जाती है।

मैंने ऐसे हज़ारों मौकें खोये हैं, जहां मैं बोलना चाहती थी, किसी को रोककर कुछ कह देना चाहती थी लेकिन मुझे इस पाबंदी ने रोक दिया, “तुम चुप रहो, ये तुम्हारा मसला नहीं है।”

मुझे याद आता है बहुत पहले से हमारे घरों में एक बात चटखारे लेकर कही जाती रही है। किसी लड़की का बोलना, हंसना, जबाब देना सब गैरज़रूरी होता है और यही चुप्पी कितने आत्मसम्मान, कितनी आत्मवंचना से भर देती है, इसका अंदाज़ा किसी को नहीं है।

यदि लड़कियां बोलना सीख लेतीं, तब उन्हें किसी और से चरित्र प्रमाण नहीं लेना होता!

मुझे याद है हमारे कॉलेज के रास्ते में एक मंदिर हुआ करता था, जहां मैं जब-तब ही जाया करती थी। पता नहीं मुझे भगवान अच्छे लगते थे या कहिए मंदिर से जुड़ा तालाब और ऊंची-ऊंची पहाड़ियां लेकिन कुछ तो था, जो मुझे वहां खींचता था।

इसी तरह एक रोज़ हम मंदिर परिसर में राधा कृष्ण का दर्शन कर रहे थे। एक बाबा आया और उसने मेरे बाल  पकड़कर मुझे वहां से हटा दिया।

मैं समझ ही नहीं पाई ऐसा क्यों और इस बात का मुझे इतना बुरा लगा कि मैं वहां से चली आई मगर उसे कुछ कह नहीं पाई, क्योंकि चुप रहने की प्रवर्ति इतनी ज़्यादा थी कि उससे कोई सवाल ही नहीं किया।

लेकिन अब सोचती हूं तो लगता है काश मैं उसको कुछ कह पाती। और भी ऐसी तमाम घटनाएं हैं, जहां चाहकर भी मैं कुछ कह नहीं कर पाई और यकीन मानिए ऐसी बातों पर घर तक आकर भी चुप ही रहना होता है, क्योंकि कोई आपको यह नहीं कहता कि जबाब क्यों नहीं दिया सब?

सृष्टि तिवारी।

मैंने बोलना बहुत वक्त बाद सीखा और वो भी तब जब मुझे अपने घर में पाबंदियों से कुछ खास दो-चार नहीं होना पड़ा। मैं यदि उसे जबाब देती, उस ढोंगी से प्रश्न करती, तब शायद उसकी हिम्मत ही नहीं पड़ती किसी को कुछ कह पाने की, किसी को छू पाने की।

घरों में लड़कियों के लिए सबसे बड़ी पाबंदी चुप्पी ही है। हर किसी में जज़्बा होता है अपने सपनों को पूरा कर पाने का लेकिन जहां बोलने की आज़ादी ही ना हो, वहां सपने खामोशी में दबकर कुचल दिए जाते है।

पाबंदियों की फेहरिस्त शुरू ही चुप रहने से होती है। यदि पहली ही फब्ती (कमेन्ट) का जवाब थप्पड़ मारकर दे देती, तो आज अपने आस-पास इव टीज़िंग की घटनाओं का सामना मज़बूती से कर पाती।

यदि पहले ही थप्पड़ पर अपने पति, भाईयों का हाथ पकड़ चौराहे पर निकल आतीं महिलाएं, तो किसी की हिम्मत छू पाने की नहीं होती लेकिन पाबंदियों का बहुत लंबा सफर है, जिन्हें  तोड़ते-तोड़ते लड़कियां खुद टूटने लगती हैं और वे लड़कियां जिनकी आवाज़ आज ऊंची है, उन्हें कितनी पाबंदियों बंदिशों से आगे निकलना पड़ा है तब जाकर वे बोलना सीख पाई हैं।

जिन लड़कियों को आप और हम आज़ाद और खुश पसन्द कहते हैं, कभी पूछिए उनसे तब जान पाएंगे कि कितनी पाबंदियों को तोड़कर उन तितलियों ने उड़ना सीखा है।

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