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“बहुसंख्यकों के दिमाग में अल्पसंख्यकों के खिलाफ इतना ज़हर किसने भरा?”

फोटो साभार- सोशल मीडिया

फोटो साभार- सोशल मीडिया

भारत मे जिस तरह से नफरती वायरस फैलाया जा रहा है, उससे जान-माल के साथ-साथ आम जनता में नफरत की खाई और गहरी होती जा रही है, जिसको पाटने में वर्षों लग जाएंगे। संघ परिवार अपने जन्म से ही ऐसे नफरती वायरस छोड़ रहा है।

मुस्लिम ही नहीं हिन्दू, सिख, ईसाई, आदिवासी भी होंगे प्रभावित

एनआरसी के लिए दस्तावेज़ जमा करते लोग। फोटो साभार- सोशल मीडिया

पिछले कुछ वक्त से देश के अलग-अलग हिस्सों में CAA, NRC और NPR के खिलाफ आंदोलन चल रहा है। बहुमत संख्या में मुस्लिम इन आंदोलनों में शामिल रहे हैं, क्योंकि इस कानून से मुख्यत: मुस्लिमों के प्रभावित होने के संकेत हैं।

शायद यही वजह है कि मुस्लिम ही निशाने पर हैं। वैसे गरीब हिन्दू, सिख, ईसाई, आदिवासी सब इन कानूनों के कारण समस्या से गुज़रेंगे।

आन्दोलन की जब शुरुआत हुई थी, तब कुछ जगहों को छोड़कर लगभग सभी जगह शांतिपूर्ण ही आंदोलन हुए। 2 महीने में आन्दोलन के दौरान पूरे देश में कहीं भी किसी मंदिर को या किसी की भी धार्मिक जगहों को एक कंकड़ भी नही मारा गया।

इसके विपरीत उत्तर प्रदेश की योगी सरकार ने आंदोलनकारियों पर गोलियां चलवाईं, जिसमें 20 के आस-पास आंदोलनकारी शहीद हो गए तो सैकड़ों जेल गए।

शाहीन बाग आंदोलन का उदय जिसका नेतृत्व महिलाओं ने किया

शाहीन बाग के आंदोलन की तस्वीर। फोटो साभार- सोशल मीडिया

दिल्ली के शाहीन बाग में CAA को लेकर चल रहे आंदोलन का मोर्चा महिलाओं ने संभाला। देखते ही देखते यह एक ऐसा आन्दोलन बना जिसे देश ने पहली बार देखा था। इस आंदोलन ने पूरे मुल्क को एक नई दिशा दी।

ऐसा आंदोलन, जो फासीवाद सत्ता के आंखों में सुई की तरह चुभने लगा। एक ऐसा आन्दोलन जिसका नेतृत्व महिलाएं कर रही थीं। वे महिलाएं जिनको हमारा भोंपू मीडिया और संघ परिवार बुर्के में कैद गुलाम की संज्ञा से नवाज़ता रहा है।

दिल्ली के शाहीन बाग को देखकर पूरे मुल्क के प्रत्येक कोने में ऐसे शाहीन बाग की शुरुआत हो गई। अकेले दिल्ली में दर्ज़नों जगह शाहीन बाग बन गए।

इन सभी शाहीन बागों में सभी धर्मों के लोगों ने अपनी एकजुटता दिखाई। गोदी मीडिया ने शाहीन बाग के खिलाफ झूठा प्रचार ज़रूर किया मगर मुल्क से एकजुटता की खबरें उतनी ही ज़्यादा आ रही थीं। 

दिसम्बर और जनवरी की कपकपाती सर्दी में  कितनी बार बारिश भी हुई लेकिन शाहीन बाग की महिलाओं ने साबित कर दिया कि महिलाओ से मज़बूत कोई नहीं है। वे सभी सर्दी व बारिश में भी मोर्चे पर डंटी रहीं।

इसी बीच मुल्क के गृहमंत्री बयान देते हैं, “वोट का बटन इतनी ज़ोर से दबाना कि उसका करंट शाहीन बाग में लगे।”

दिल्ली चुनाव को सांप्रदायिक बनाने की नाकाम कोशिश

मनोज तिवारी और अरविंद केजरीवाल।

इसी दौरान दिल्ली में चुनाव का शंखनाद हुआ। भाजपा ने अपने पूरे चुनाव अभियान में दिल्ली चुनाव को सांप्रदायिक रंग देने में कोई कसर नही छोड़ी। वैसे भाजपा में नैतिकता है ही नहीं, फिर भी चुनाव की अपनी एक नैतिकता होती है।

इस चुनाव में भाजपा ने चुनावी नैतिकता को भी तार-तार कर दिया। “गोली मारो सालों को” से लेकर “शाहीन बाग तक करंट जाए” “शाहीन बाग नहीं, यह मिनी पाकिस्तान है” और “दूसरा कश्मीर बनता शाहीन बाग” जैसे बयान बेहद शर्मनाक हैं।

नफरत का ज़हर इस चुनाव में नदी की तरह बहाया गया। इस नफरत के खिलाफ शाहीन बाग मज़बूती से खड़ा था। वह अपनी जड़ें अंदर ही अंदर मज़बूत कर रहा था। ऐसी जड़ें जिसको हिलाना सत्ता के लिए नामुमकिन हो रहा था।

सत्ता ने सुप्रीम कोर्ट का सहारा लिया। सुप्रीम कोर्ट ने 3 वार्ताकार नियुक्त किए। तीनों वार्ताकार भी शाहीन बाग को टस से मस नहीं कर सके। वार्ताकारों के कारण शाहीन बाग की जड़ें और मज़बूत ही हुईं।

इस मज़बूत होते शाहीन बाग से हिंदुत्वादी कट्टरपंथी ही नहीं तिलमिला रहे थे, बल्कि मुस्लिमों के अंदर का भी कट्टरवादी धड़ा तिलमिलाया हुआ था।

उसी तिलमिलाहट का नतीजा वारिस पठान का बयान 15 करोड़ बनाम 100 करोड़ दिया गया। यह ब्यान काफी था हिंदुत्वादी कट्टरपंथियों के लिए व उसके मीडिया के लिए सांप्रदायिक आग में घी डालने के लिए।

अल्पसंख्यक सांप्रदायिकता व बहुसंख्यक साम्प्रदायिकता एक-दूसरे को खाद पानी देने का काम करती है। उसने यहां भी अपना काम किया।

और शुरू हुआ दिल्ली को सांप्रदायिक आग में झोंकने का खेल

कपिल मिश्रा। फोटो साभार- सोशल मीडिया

दंगो की स्क्रिप्ट तैयार करने में दोनों तरफ के सांप्रदायिक लोग शामिल होते रहे और दिल्ली दंगे में भी यह लोग शामिल रहे। कुछ वक्त पहले दिल्ली में सत्ता के गुंडे, जिनका नेतृत्व कपिल मिश्रा कर रहे थे, उनके द्वारा कितनी मस्जिदों और मजारों को आग के हवाले कर दिया गया।

वह सोशल मीडिया पर आ रहे वीडियो से साफ दिखाई दे रहा है। पुलिस दंगाइयों के साथ मिली हुई है, यह भी साफ-साफ दिख रहा है। पुलिस पहले दिन से ही सरकारी गुंडे के तौर पर आंदोलन के खिलाफ काम करती रही है।

पुलिस और दंगाइयों का गठजोड़ तब साफ दिख जाता है, जब “जय श्री राम”, “वन्दे मातरम्” या “भारत माता की जय” का नारा लगाती भीड़ कहती है कि पुलिस भी हमारे साथ खड़ी है, मारो मुल्लों को। ऐसा केवल एक वीडियो में नहीं, बल्कि अनेक वीडियो में साफ दिखाई दे रहा रहा है।

आज सत्ता ने बहुसंख्यक हिन्दुओं के दिमाग में अल्पसंख्यकों के खिलाफ कितना अधिक ज़हर भर दिया है, वह इन दंगों में दिखाई दे रहा है। यही ज़हर दलितों, आदिवासियों के खिलाफ भी समय-समय पर दिखता रहा है। 

समाज का बर्बर चेहरा जिसमें रक्षक बन रहे हैं भक्षक

दिल्ली हिंसा। फोटो साभार- सोशल मीडिया

एक वीडियो जो बहुत ही भयानक है। ऐसा वीडियो जिसको देखते ही एक साधारण इंसान की रूह कांप जाए। वीडियो में कुछ घायल मुस्लिम नौजवान ज़मीन पर पड़े हैं, जिन्हें पुलिस काफी बर्बरता से पीट रहे हैं। पुलिस की अति बर्बरता देखिए, ऐसी बर्बरता जो मुल्क के अलग-अलग कोने में लिंचिंग करने वाली भीड़ करती है।

घायल पड़े हुए नौजवानों को अस्पताल में ले जाने के बजाए पुलिस उनसे राष्ट्रगान गवा रही थी। वह ज़मीन पर गिरे हुए राष्ट्रगान गाते दिखाई दे रहे थे। एक पुलिस वाला घायल को कह रहा था कि बोल हमें चाहिए आज़ादी।

“यह लोकतंत्र की पुलिस नहीं है, यह तो हिंदूत्ववादी सत्ता की पुलिस है। यह हमारे धर्मनिरपेक्ष लोकतांत्रिक मुल्क की पुलिस नहीं है। आप फूल देकर सोच रहे है थे कि पुलिस सुधर जाएगी। ऐसा कभी नहीं होगा, क्योंकि यह पुलिस मानवीय नहीं है।

यहां पुलिस मुस्लिम, दलित, महिला विरोध से अंदर तक भरी हुई है। यह तो मानसिक तौर पर बीमार पुलिस है। सच तो यह है कि यह पुलिस मौका देखती है कि कब दलित, महिला, मुस्लिम फंसे ताकि उनको कुचला जा सके।

पूरे मुल्क में जहां भी इनको मौका मिला इन्होंने बेरहमी से लोगों को कुचला है। दिल्ली दंगों में गरीब लोगों के घर जलाए गए, एक वीडियो में एक भीड़ एक घायल नौजवान को अर्धनग्न करके घसीटती हुई ले जा रही है। भीड़ ने एक पत्रकार को पीट दिया और बाद में उसका नाम पूछा गया तो मालूम हुआ कि वह हिन्दू है, तो छोड़ा गया।

बुरे दौर से गुज़र रहा है पूरा देश

अमित शाह।

जब ऐसे भयानक स्टेज पर समाज आ जाता है, तो उस समाज को बचा पाना नामुमकिन हो जाता है। यह संघ और उसकी कठपुतली बन चुकी सत्ता द्वारा फैलाये गए नफरती वायरस का नतीजा है जिसका इलाज भविष्य में नहीं दिखाई दे रहा है।

क्योंकि हमारे पास ऐसा कोई सामाजिक-राजनीतिक डॉक्टर ज़मीन पर नहीं है, जो इस वायरस को खत्म करने की दवाई बना सके।

बहुत बुरे दौर से दिल्ली गुज़र रही है। इस नफरती वायरस की फैक्टरी के खिलाफ दिल्ली की जनता ने जिस महामानव को चुना था, वह इनसे भी बड़ा ड्रामेबाज़ निकला। दिल्ली के मुख्यमंत्री कुछ करने के बजाए ड्रामे पर उतर आए।

प्रभावित इलाकों में जाने के बजाए राजघाट पर जाकर मौन व्रत करना ड्रामा नहीं तो क्या है? राजनीतिक पार्टियों की तरफ से कोई उम्मीद की किरण दिखाई नहीं दे रही है। 

जनता से ही है लोकतंत्र को बचाने की उम्मीद

जनता की तरफ से बहुत जगह से सुकून भरी खबरें ज़रूर आईं। कुछ कॉलोनियों में लोगों ने इकठ्ठा होकर (सभी धर्मों के लोग) दिल्ली में दंगाइयों के खिलाफ मोर्चा संभाला।

दिल्ली के ब्रिजपुरी इलाके में लोगों ने प्रोटेस्ट किया है और नारे लगाए हैं कि हम कॉलोनी को नहीं जलने देंगे, हिन्दू मुस्लिम भाई-भाई। इसके अलावा भी बहुत सी जगहों पर सिखों, दलितों ने मुस्लिमों को बचाने के लिए अपने घरों के दरवाज़े खोल दिए।

इस बुरे दौर में देश के प्रगतिशील बुद्धिजीवियों, कलाकारों, नाटककारों, लेखकों, वकीलों, शिक्षकों, पत्रकारों और सभी विपक्षी राजनीतिक पार्टियों को इकठ्ठा होकर धार्मिक कट्टरपंथियों के खिलाफ आवाज़ बुलंद करनी होगी।

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