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“हमारी जाति के कारण हमें धार्मिक किताबें नहीं छूने दी जाती थीं”

जातिगत भेदभाव

जातिगत भेदभाव

मैं बस्ती की तंग गलियों में खेल-कूदकर बड़ा हुआ हूं, जहां सभी लोग एक ही जाति और समान आर्थिक हालात के थे। सभी का एक-दूसरे के घर आना-जाना लगा रहता था और सब एक-दूसरे की खुशी तथा गम में शामिल होते थे।

शायद इसलिए सब एक जैसे लगते थे। मैंने जब स्कूल जाना शुरू किया, उस वक्त पहली बार मुझे एहसास हुआ कि मैं कुछ अलग हूं इसलिए कुछ बच्चे मुझसे अलग रहना चाहते थे।

मैंने जातिगत भेदभाव झेला है

मुझे आज भी याद है कि जब मैंने साथ पढ़ने वाले एक लड़के से पूछा था, “तुम मेरे साथ क्यों नहीं खेलना चाहते हो?” तब उसने कहा था कि मेरे मम्मी-पापा मना करते हैं।

इसके बाद मैंने पूछा, “तुम्हारे मम्मी-पापा क्यों मना करते हैं?” इस पर उसने जाति सूचक शब्दों का इस्तेमाल करते हुए बताया, क्योंकि तुम इस जाति से हो। 

मुझे पहली बार समझ आया कि कहीं ना कहीं मेरी जाति की वजह से कुछ लोग मुझसे दूर भागते हैं। उनके चेहरे पर मेरी जाति को लेकर हीन भावना है, जो साफ-साफ नज़र आती है।

ऐसे अनुभवों से मेरी हर दिन जान-पहचान होने लगी मगर मेरे मन में एक आशा रहती थी कि बड़ी कक्षा में ऐसा नहीं होगा, क्योंकि बड़ी कक्षा में तो हम सभी समझदार हो जाएंगे।

जाति व्यवस्था की खाई बढ़ गई

प्रतीकात्मक तस्वीर। फोटो साभार- Flickr

आखिर वह दिन भी आ गया, जब मैं स्कूल की बड़ी क्लास में गया लेकिन जल्द ही मेरी सारी गलतफहमी दूर हो गई तथा जाति व्यवस्था की खाई और गहरी दिखाई देने लगी। अब स्टूडेंट्स के साथ मेरे टीचर्स भी उन अनुभवों में जुड़ते चले गए।

ऐसे अनोखे अनुभवों ने मुझे फिर से सोचने पर मजबूर किया कि कैसे मेरे पढ़े-लिखे टीचर्स भी जातीय संकीर्णता के शिकार हो सकते हैं।

हमें धार्मिक किताबें नहीं छूने दी जाती थी

मेरे अध्यापक अप्रत्यक्ष व बहुत साफ-सुथरे तरीके से भेदभाव करते थे। वह कभी भी मेरे जैसे यानि मेरी जाति से संबंध रखने वाले किसी भी स्टूडेंट से खाने-पीने की चीज़ें नहीं मंगवाते थे, क्योंकि उनकी खाने-पीने की चीज़ों को छूने से उन्हें अपने धर्म भ्रष्ट होने का डर रहता था।

वह सिर्फ हमें ऐसे काम बताते थे, जो साफ-सफाई से जुड़े थे। मुझे किसी भी धार्मिक किताब को हाथ लगाने की अनुमति नहीं थी। बड़ी कक्षा में जाति सूचक शब्दों का इस्तेमाल गालियों में सुनना बहुत आम हो गया था और मेरे कानों को भी इसकी आदत पड़ने लगी थी। 

अनुभवों ने बहुत कुछ सिखाया

स्कूल के अनुभवों को साथ लिए मैं यूनिवर्सिटी आ गया था। अनुभवों के गुच्छों ने मुझे जातीय नफरतों से छिपना सिखा दिया था। अब मैं सिर्फ उन्हें ही अपना दोस्त बनाता था, जो मेरे जैसे थे ताकि हीनता की भावना से बाहर आ सकूं लेकिन बहुत-सी बातें हमारे हाथ में नहीं होती हैं।

यूनिवर्सिटी के दौरान मेरा एक ऐसा दोस्त बना, जो मेरे जैसा नहीं था। वह उच्च कहे जाने वाली जातियों से संबंध रखता था।बहुत बार ऐसा होता था कि उसके दोस्त मेरे सामने जाति सूचक गालियों का प्रयोग करते थे, जो मुझे असहज कर जाते थे लेकिन मैं चुप रहता था क्योंकि मैंने भी मान लिया था कि ऐसा तो होगा ही।

जाति सूचक शब्दों ने मुझे तोड़ दिया

एक बार मेरे दोस्त के साथ मेरा झगड़ा हो गया और झगड़ते हुए मेरे दोस्त ने मुझसे कहा, “तेरी जाति के लोग चप्पल उतारकर हमारी गली से निकलते हैं।” उसके इन शब्दों ने मुझे बहुत बुरी तरह से तोड़ दिया कि मेरा आत्मविश्वास ही खत्म हो गया।

यूनिवर्सिटी के दौरान जब कोई मुझसे पूछता था कि क्या तुम जाति व्यवस्था में विश्वास रखते हो? तो मेरे पास उसका जवाब नहीं होता था, क्योंकि अगर मैं ना बोलता तो यह सुनने को मिलता था, “अपनी जाति छुपाने के लिए ऐसा बोल रहा है।” अगर मैं हां बोलता तो कहा जाता था, जात-पात में विश्वास करता है। दोनों ही सूरत में मेरी हार होती थी। 

बॉस ने पूछा, “तुम किस जाति से हो?”

स्कूल से यूनिवर्सिटी और यूनिवर्सिटी से जॉब तक ऐसे कटु अनुभवों का सिलसिला चलता रहा। अब फर्क बस इतना था कि लोगों द्वारा जातीय घृणा के रूप बदलते चले गए। एक बार मेरी बॉस ने मुझसे उच्च कहे जाने वाली जाति का नाम लेकर पूछा, “क्या तुम उसे जाति से हो?”

प्रतीकात्मक तस्वीर।

जब मैंने अपनी जाति के बारे में बताया, तब मेरी बॉस के चेहरे पर सन्नाटा छा गया। शायद उन्हें इतना सदमा लगा कि वह अपने चेहरे के भावों को भी नहीं छुपा पाईं और उस दिन के बाद उनका व्यवहार ऐसे बदल गया, जैसे मैं कोई जन्मजात अपराधी हूं। 

इस कारण आर्थिक हालात खराब होते हुए भी मुझे जॉब छोड़ने का फैसला लेना पड़ा। मुझे बहुत से ऐसे लोग भी मिले जो मुझसे कहते थे कि वे जातीय भेदभाव के खिलाफ हैं मगर वही लोग मुझसे मेरा गोत्र पूछते थे। 

आखिर मेरे अनुभवों को विराम मिला

मैंने जातीय भेदभाव के तरीकों को कुछ इस तरह से बदलते देखा है, जिसे देखकर कोई नहीं कह सकता कि कोई जातीय संकीर्णता से ग्रसित है। जब किराये के मकान की तलाश में किसी के घर जाता, तो उनका पहला सवाल यही होता था, “पंडित हो या कोई उच्च जाति के?” मेरी जाति जानने के बाद वे मकान देने से इंकार कर देते थे।

मेरी ज़िंदगी में एक दिन वह भी आया, जब मेरे अनुभवों को थोड़ा विराम मिला। मुझे ‘ब्रेकथ्रू’ नामक एक मानव अधिकार संस्था में काम मिला। यह संस्था महिलाओं और लड़कियों के प्रति हो रही हिंसा के खिलाफ काम करती है। शुरू-शरू में मेरे मन यही ख्याल चलता रहता था कि जब ब्रेकथ्रू से कोई मेरी जाति के बारे में पूछेगा तो क्या होगा? 

जब भी मेरे साथ काम करने वाले सहकर्मी बात करते थे, तब लगता था कि अब वह जाति के बारे में पूछेंगे। दिन महीनों में बदले और महीने सालों में बदल गए लेकिन जाति के सवालों से मेरा कभी वास्ता नहीं पड़ा।

मुझे काम से पहचान मिली

मुझे मेरी जाति से नहीं, बल्कि मेरे काम से पहचान मिली। आज मुझे ब्रेकथ्रू में पांच साल से ज़्यादा हो गए हैं लेकिन किसी को मेरी जाति से कोई मतलब नहीं है। अच्छे और बुरे लोग तो हर धर्म और जाति में होते हैं फिर क्यों किसी एक जाति या धर्म के प्रति हम इतनी नफरत रखते हैं? यह नफरत कब हिंसा में बदल जाती है पता ही नहीं चलता है। 

आज भी जात-पात के नाम पर बहुत हिंसा होती है तथा इस हिंसा में लोगों की जान भी चली जाती है। आज भी मेरे मन में ऐसी दुनिया का सपना है, जहां हर किसी को न्याय, सम्मान और समानता मिले।

जातिगत नफरतों को छोड़कर हम सम्मान की बात करें। जहां किसी की जाति उसकी परछाई ना हो। वहां जाति से किसी की पहचान ना हो।

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