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“रेप कल्चर को बढ़ावा देने वाली मानसकिता को फांसी पर चढ़ाने की ज़रूरत है”

फोटो साभार- सोशल मीडिया

फोटो साभार- सोशल मीडिया

20 मार्च 2020 की सुबह अन्य प्रात: से बिलकुल अलग थी। इस दिन सुबह का सवेरा निर्भया की माँ आशा देवी के लिए उम्मीद की किरण लेकर निकला था।

इस किरण की रौशनी ने ना जाने कितनी निर्भया का न्यायपालिका के प्रति विश्वास बढ़ाया होगा कि देर सवेर हमारे साथ भी न्याय होगा। इन दिनों कोरोना वायरस का कहर पूरे देश में बढ़ता जा रहा है।

सरकार की तरफ कोरोना से बचने के लिए भीड़ एकत्रित ना करने की सलाह जारी कर दी गई है। प्रधानमंत्री ने भी एक दिन पहले ही जनता कर्फ्यू की अपील कर दी है।

तिहाड़ जेल के बाहर भारी संख्या में लोग दूर-दराज़ के इलाकों से एकत्रित हो रहे थे। मीडिया के लोग अपना काम कर रहे थे। यहां एकत्रित सभी लोगों का एक सुर में कहना था कि हम निर्भया की माँ को नैतिक समर्थन देने आए हैं। इन महिलाओं के चेहरों पर ना रात का खौफ दिख रहा था ना कोरोना का डर।

निर्भया की माँ ने बेटी को न्याय दिलाने की लंबी लड़ाई 20 मार्च की सुबह 5:30 बजे जीत ली

निर्भया की माँ। फोटो साभार- सोशल मीडिया

सुबह 5:30 बजे तिहाड़ जेल प्रशासन ने नम्बर 3 की फांसी कोठी में निर्भया के चारों दोषियों को फांसी पर लटकाया। 20 मार्च 2020 को ऐतिहासिक दिन के रूप में याद किया जाएगा, क्योंकि पहली बार चार दोषियों को एक साथ फांसी दी गई।

7 साल 3 महीने 4 दिन से अपनी बेटी निर्भया को न्याय दिलाने की उम्मीद से न्यायपालिका की चौखट का चक्कर लगा-लगाकर आशा देवी की चप्पल भले ही गिस गई हो लेकिन हौसला नहीं टूटा।

निर्भया की माँ आशा देवी ने बेटी को न्याय दिलाने की लंबी लड़ाई 20 मार्च 2020 को सुबह 5:30 बजे जीत ली। फांसी के बाद आशा देवी ने कहा कि आज फांसी होने के बाद मैंने अपनी बेटी की तस्वीर देखी और उससे कहा कि आखिर तुम्हें इंसाफ मिल गया। मैं उसे बचा नहीं पाई इसका दुःख रहेगा लेकिन मुझ उस पर गर्व है। आज माँ का धर्म पूरा हुआ।

16 दिसंबर 2012 की रात जिस तरीके से इन हैवानों ने निर्भया के साथ दरिदंगी की, उसकी सज़ा फांसी से कम मंज़ूर नहीं थी। देश की युवा पीढ़ी ने निर्भया के दोषियों के खिलाफ कानूनी कार्रवाई की मांग को लेकर सड़कों पर उतरकर पीठ पर लाठी भी खाई। उस वक्त देश का आम आदमी अपनी बेटी की सुरक्षा के लिए सड़कों पर लड़ रहा था। आज़ादी के बाद देश में बड़े पैमाने पर पहली बार ऐसा आंदोलन देखा गया था।

फास्ट-ट्रैक कोर्ट से मिली न्याय

फोटो साभार- सोशल मीडिया

निर्भया को न्याय दिलाने के लिए चले आंदोलन का असर पड़ा और दिल्ली पुलिस ने फास्ट्र-ट्रैक कोर्ट का गठन किया। 17 दिनों में आरोपियों के खिलाफ चार्जशीट दाखिल करना पड़ा।

फास्ट्र-ट्रैक कोर्ट ने 9 महीनों में इन दोषियों को मौत की सज़ा सुना दी। दिल्ली हाईकोर्ट ने 6 महीने बाद फास्ट्र-ट्रैक के फैसले को बरकरार रखा। 7 साल बाद निर्भया के दोषियों को फांसी के फंदे पर लटकाया गया।

ऐसे में सवाल उठता है कि जब दिल्ली पुलिस, फास्ट्र-ट्रैक कोर्ट, दिल्ली हाईकोर्ट, सुप्रीम कोर्ट और सरकार सब ने निर्भया को न्याय दिलाने में प्रतिबद्धता दिखाई तो इतने जघन्य अपराध की सज़ा में इतनी देरी क्यों हुई? इसका जवाब कानून में खामियां और न्याय दिलाने में कटिबद्धता नहीं थी।

सुप्रीम कोर्ट ने भी फांसी की सज़ा को बरकरार रखा

सुप्रीम कोर्ट। फोटो साभार- सोशल मीडिया

पूरा मामला दिल्ली हाईकोर्ट के चौखट से गुज़रते हुए सुप्रीम कोर्ट और राष्ट्रपति कार्यालय तक पहुंचा। तारीख पर तारीख के बीच निर्भया को न्याय दिलाने वाली फाइल कोर्ट से राष्ट्रपति कार्यालय तक घूमती रही। अंततः 20 मार्च की सुबह 3:30 बजे सुप्रीम कोर्ट फाइलों का घूमना बन्द कर देता है और दोषियों की याचिकाओं को खारिज करते हए फांसी की सज़ा को बरकरार रखता है।

इस पूरे मामले में जिस तरह निर्भया की माँ अंत तक खड़ी रहीं। उनके साथ मीडिया जिस तरह खड़ा रहा, क्या वह हर मामले में खड़ा रह पाएगा? क्या हर परिवार इसी मज़बूती के साथ न्याय के लिए लड़ पाएगा? क्या युवा पीढ़ी इसी तरह हर मामले में आक्रोशित होकर सड़क पर उतर पाएगा? सारे सवालों के जवाब संभवतः ना ही होंगे।

निर्भया के दोषियों के वकील एके सिंह ने आखिरी दम तक दोषियों की फांसी टलवाने के लिए हर कानूनी हथकंडे अपनाए। सुबह 3:30 बजे सुप्रीम कोर्ट ने उनकी आखिरी कोशिश को खारिज़ कर दिया।

क्या निर्भया के दोषियों को पछतावा था?

निर्भया के साथ हुए रेप के खिलाफ प्रोटेस्ट। फोटो साभार- सोशल मीडिया

देखा जाए तो निर्भया के दोषियों को अपने अपराध पर पछतावा नहीं था। उनके अंदर खुद को बदलने की भावना नहीं थी। इसके विपरीत दोषियों के वकील ने इन्हें फांसी से बचाने के लिए हर सम्भव प्रयास किया।

दोषियों के किए की सज़ा परिवार को भी मिलती है। ऐसे मामले में दोषी के परिवार की ज़िंदगी शर्मिंदगी के साये में कटती है। निर्भया के दोषियों को सज़ा मिलने के बाद क्या हम अपने समाज से अपेछा कर सकते हैं कि दुष्कर्म जैसा अपराध खत्म हो जाएगा?

क्या लोगों में कानून का डर इतना शामिल कर दिया जाए कि वे अपराध करना छोड़ दें?

POCSO कानून से भी रेप जैसे अपराध में लगाम नहीं लगी

प्रतीकात्मक तस्वीर। फोटो साभार- सोशल मीडिया

निर्भया कांड के बाद भारत की संसद ने आनन-फानन में एक कठोर कानून बनाया लेकिन उससे भी अपराध पर लगाम नहीं लग सका। भारत की संसद द्वारा बनाया गया POCSO कानून में बारह साल से कम बच्ची के साथ दुष्कर्म करने वाले को फांसी की सज़ा का प्रावधान है।

NBRC 2018 के आंकड़ों से पता चलता है कि 33356 दुष्कर्म के मामले दर्ज़ हुए हैं। मतलब देश में हर रोज़ 91 दुष्कर्म के मामले दर्ज़ होते हैं। ये आंकड़े उन घटनाओं के हैं जिनमें पुलिस के पास मामले पहुंचते हैं और केस दर्ज़ होते हैं।

आंकड़ों की तस्वीर और भी भयावह होती है। साल में ऐसे हज़ारों दुष्कर्म के मामले होते हैं, जो पुलिस स्टेशनों तक नहीं पहुंच पाते। कुछ मामले पुलिस थाने तक पहुंच भी जाते हैं लेकिन पुलिस मुकदमा दर्ज़ करने में आनाकानी करते हैं। ऐसे में कई मामले दर्ज़ नहीं हो पाते हैं।

NBRC 2018 के आंकड़ों से स्पष्ट हो जाता है कि कठोर से कठोर कानून बनाने से भी अपराध पर लगाम नहीं लगता है और अपराधियों में कानून का डर नहीं नज़र आता है।

अपराध नियंत्रित हो भी तो कैसे?

प्रोटेस्ट के दौरान की तस्वीर। फोटो साभार- सोशल मीडिया

अब सवाल उठता है कि अपराध को कैसे कम करें। केवल कानून बना देने से समस्या का समाधान नहीं हो सकता है। अपराध को कम करने की ज़िम्मेदारी कार्यपालिका, न्यायपालिका से ज़्यादा हमारे समाज और घर-परिवार पर निर्भर है।

लड़कियों को घर की चारदीवारी में रखने की बजाय उन्हें लड़कों जैसी स्वतंत्रता देने की ज़रूरत है। सिर्फ लड़कियों पर ही घर की इज़्जत बनाए रखने की ज़िम्मेदारी नहीं देने की जगह लड़कों को भी समान रूप से घर की इज़्जत को बनाए रखने की ज़िम्मेदारी देने की आवश्यकता है।

लड़कियों को हमारे परिवार में सिखाया जाता है कि यह करो यह ना करो। ऐसी ही सीख अब लड़कों को भी देने की ज़रूरत है।

लैंगिक भेदभाव को दूर करने के लिए समाज को इस दिशा में पहल करनी होगी

प्रतीकात्मक तस्वीर। फोटो साभार- Flickr

एक धारणा के मुताबिक महिला को हम देवी का दर्ज़ा देते आ रहे हैं। तब भी महिलाएं पुरुषों के बराबर नहीं आ सकीं। एक बार महिलाओं को देवी का दर्जा ना देकर उन्हें इंसान का दर्ज़ा दीजिए।

अपने साथ कदमताल करने का मौका दीजिए। फिर देखिए महिलाओं की स्थिति बेहतर होगी और वे पुरुषों के समकक्ष खड़ी हो सकेंगी। लैंगिक भेदभाव को दूर करने के लिए समाज को इस दिशा में पहल करना होगा।

पुरुषों को महिलाओं के प्रति विकृत मानसिकता बदलनी होगी, उन्हें यह समझना होगा कि महिलाओं के खिलाफ अपराध करके वे कोई मर्दानगी नहीं साबित कर रहे हैं।

परिवार को चाहिए कि वे बच्चों को अच्छे संस्कार दें। उन्हें स्त्रियों के प्रति सम्मान करना सिखाया जाए और संवदेनशील होने की सीख दें। लड़कों को स्वतंत्रता का सही अर्थ बताएं ताकि वे कानून का सम्मान कर सकें और कानून अपना काम कर सके।

हमें घर में स्त्रियों के प्रति बच्चों को नैतिक रूप से शिक्षित करना होगा। महिलाओं के प्रति पुरुषों को सकारात्मक दृष्टिकोण अपनाना होगा तभी महिलाओं के खिलाफ होने वाले अपराध के आंकड़े कम हो सकेंगे।

अपराधी को फांसी के फंदे पर लटका देने से अपराध नहीं खत्म हो जाते हैं। ऐसे में अपराधियों की मानसिकता का अध्ययन करना होगा ताकि पता चल सके कि वे कौन से कारण हैं जिनसे अपराधी के मन में महिला देह के उपभोग करने जैसी विकृत मानसिकता आती है। फिर इस समस्या से समाधान करने की दिशा में पहल करना होगा।

गौरतलब है कि ऐसे कई मामले सामने आए हैं जिनमें पुलिस अक्सर पीड़िता को दोषी ठहराती है और दोषियों का मनबोल मज़बूत करती है। ऐसे में पुलिस को महिलाओं के प्रति मानसिकता बदलने के लिए ट्रेनिंग देना होगा ताकि सर्वाइवर महिला से उलटे-सीधे सवाल पूछकर शर्मिंदा ना किया जाए। तभी लोगों का कानून के प्रति विश्वास मज़बूत होगा।

निर्भया मामले की सुनावई के दौरान आईपीसी और सीआरपीसी की कई खामियां खुलकर सामने आईं जिसका फायदा दोषियों ने उठाया। यहां तक कि फांसी की सज़ा से बचने के लिए हर सम्भव प्रयास किया।

सरकार को ऐसे कानून में त्वरित संशोधन करके खामियों को दुरुस्त करने की ज़रूरत है ताकि फिर किसी निर्भया को 7 साल तक न्याय के लिए इंतज़ार ना करना पड़े, क्योंकि इस देश की हर बेटी और माँ इतनी साहसी और धैर्यवान हो, ज़रूरी नहीं।

उल्लेखनीय है कि निर्भया मामले की वकालत कर रहीं सीमा कुशवाहा अपने करियर का पहला केस जीती हैं। उन्होंने बिना फीस लिए 7 साल 3 महीने 4 दिन तक कोर्ट में शानदार तरीके से अपने पक्ष को रखा और निर्भया को न्याय दिलवाया।

इसके लिए उनकी जितनी सराहना की जाए वह कम है। महिला सशक्तिकरण की दिशा में मिसाल हैं निर्भया की माँ आशा देवी और निर्भया की वकील सीमा कुशवाहा।

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