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दिल्ली हिंसा: “दंगाइयों ने मेरे घर में ही मेरे बेटे का पैर कुल्हाड़ी से काट दिया”

फोटो साभार- प्रशांत तिवारी

फोटो साभार- प्रशांत तिवारी

“आग लगने के बाद फायर ब्रिगेड को फोन किया तो उन्होंने कहा हमें दिल्ली पुलिस का सपोर्ट नहीं है”

“फोर्स तो पहले दिन ही आ गई थी लेकिन उन्होंने कुछ किया नहीं”

“दंगा खत्म होने के बाद दो-तीन दिनों तक लूटपाट होती रही”

“हम चौथे माले पर थे इसलिए बच गए”

“मेरा बेटा कुछ सामान लेने वापस घर आया तो अंदर छिपकर बैठे लोगों ने कुल्हाड़ी से उसके पैर काट दिए”

“हम अपने रिश्तेदारों के यहां चले गए थे इसलिए बच गए”

सामने नर्क से बदतर सड़ांध मारता हुआ नाला, कॉलोनी से सटा हुआ श्मशान घाट और कॉलोनी को एक और श्मशान घाट में बदलने का जो मंज़र हुआ, ये बयान उन लोगों के ही हैं।

अपने ही घर के बाहर बैठकर लोग देख रहे हैं राख और मलबा

फोटो साभार- प्रशांत तिवारी

दिल्ली हिंसा में जितना कुछ हुआ है, ज़मीनी स्तर पर चीज़ें उनसे कहीं कहीं ज़्यादा जटिल हैं। ये मैं सिर्फ हिंसाग्रस्त एक क्षेत्र शिव विहार की बात कर रहा हूं, जहां की कई कॉलोनियां पूरी तरह उजाड़ हो गई हैं। लोग अपने घर के बाहर बैठे अपने ही घर की राख और मलबा देख रहे हैं।

ये बात सोचनी जितनी मुश्किल है, उससे भी अधिक दुखदाई इसे देखना है। वहां कोई भी पहुंचता है तो लोग उसे कहानी बताना शुरू कर देते हैं।

उन्हें लगता है कि शायद उनकी बात आगे तक पहुंच और शायद ये कुछ मदद कर दें लेकिन जो हो चुका उसका कोई कुछ नहीं बदल सकता है। मुआवज़े से दर्द कम नहीं हुआ करते।

क्या सब कुछ अचानक हो गया?

दंगाइयों द्वारा जलाई गई बाइक की तस्वीर। फोटो साभार- प्रशांत तिवारी

शिव विहार क्षेत्र की एक गली में दो समुदायों के मकान हैं लेकिन वहां साफ-साफ दिखता है कि सिर्फ एक समुदाय के मकान जलाए गए हैं। इस बात से बहुत कुछ समझ आ जाता है। कई जगह तस्वीर इसके उलट भी है। हर क्षेत्र का अपना दर्द अपनी अलग कहानी है लेकिन हर जगह नुकसान मानवता का ही हुआ है।

कॉलोनी की एक महिला ने बताया, “पहले दिन जब लोग नारे लागते जुलूस निकलते हुए आए तो लगा वापस चले जाएंगे लेकिन फिर वे जलता हुआ सिलिंडर, पेट्रोल बम, तेज़ाब की थैलियां फेंकने लगे। मैं किसी तरह से बचकर अपने रिश्तेदार के यहां चली गई थी लेकिन मेरा भाई और पापा यहां फंस गए थे, वे दूसरे दिन निकल पाएं।”

कॉलोनी की महिला ने आगे बताया, “पापा जब वापस कपड़े लेने आए तो कॉलोनी में फोर्स तो आ गई थी लेकिन लूटपाट तब भी हो रही थी।” यह पूछने पर कि क्या आपके आस-पड़ोस और जान-पहचान के लोग भी इसमें शामिल थे? तो उन्होंने कहा, “दंगे में मैंने नहीं देखा लेकिन उसके बाद हुई लूटपाट में आस पड़ोस के लोग ही थे। बहुत सारे लोग बाहर से भी आए हुए थे।”

दंगों के दौरान मस्जिद को आग के हवाले कर दिया गया

शिव विहार की वह मस्जिद जिसे दंगाइयों ने आग के हवाला कर दिया था। फोटो साभार- प्रशांत तिवारी

उसी कॉलोनी के एक चार मंज़िला घर में जाकर देखा, जिसके तीन मंज़िले पूरी तरह से राख हो चुके थे और दूसरे मंज़िले पर दो बड़े सिलिंडर जले पड़े हुए थे। उस घर की महिला ने बताया,

हम दो परिवार रहते हैं और हम चौथे मंज़िले पर जाकर बैठे थे और बाहर लोग गलियां देते हुए नारे लगा रहे थे और पेट्रोल बेम फेंक रहे थे फिर शाम को हमें फोर्स ने बाहर निकाला, शुक्र है हम बच गए।

उसी कॉलोनी के बाहर एक मस्जिद भी है, जिसे दंगों के दौरान जला दिया गया था। उसी मस्जिद के बगल में एक स्वयंसेवी संस्था ने लोगों के खाने-पीने की व्यवस्था के लिए अपना स्टॉल लगाया था।

संस्था की एक सदस्य से बात करने के दौरान मस्जिद के आसपास रह रहे लोगों ने बताया कि जब लोग सड़कों पर आग लगाने लगे तो फायर को फोन किया लेकिन सैकड़ों बार फोन करने के बाद भी ना ही पुलिस से और ना ही फायर ब्रिगेड से संपर्क हो पाया।

लोगों का कहना है कि काफी देर बाद जब फायर ब्रिगेड आई तो लोग उस पर भी पथराव करने लगे, फिर हमने फायर ब्रिगेड वालों को बुलाकर एक घर में बैठा दिया कि दंगाई मान नहीं रहे तो इनको भी कोई नुकसान ना हो।

लाशों के मलबे में तब्दील हो जाता शिव विहार

फोटो साभार- प्रशांत तिवारी

एक स्थानीय ने कहा कि हमलोग उसी दिन यहां से अपने रिश्तेदारों के यहां चले गए थे। नहीं तो आपको यहां लाशें ही लाशें दिखतीं और कुछ नहीं। पूरा का पूरा घर फूंक दिया गया कोई अंदर होता तो कैसे बचता। जब हमने पूछा कि आस-पड़ोस के लोग भी शामिल थे क्या? तो उन्होंने कहा कि नाले के उस पार के लोग थे और बाकी बाहर से आए थे, क्योंकि बिना यहां के लोगों की मदद के कोई घर कैसे जला देता।

समय में थोड़ा पीछे जाकर याद करें तो एक बात याद आती है कि गाँव में अगर किसी के घर में छप्पर में आग लग जाती थी तो रात हो या दिन लोग अपने अपने घर से बाल्टी लेकर दौड़ पड़ते थे आग बुझाने के लिए लेकिन अभी दिल्ली के कई इलाके जलकर राख हो गए हैं लेकिन बाकि गाँववाले ना तो आग बुझाने गए और ना ही देखने।

जिनकी जानें चली गईं उनका क्या?

फोटो साभार- प्रशांत तिवारी

जिन जिन इलाकों में हिंसा हुई, वहां किसी की दुकान जली है तो किसी का मकान, किसी की गाड़ी तो किसी का सब कुछ लेकिन ये चीज़ें दो चार दिन में ठीक नहीं होने वाली हैं। मुआवज़ा मिल जाएगा सरकार से थोड़ा बहुत बस और क्या। लोग अभी मदद कर रहे हैं लेकिन कितने दिन तक!

जिनके साथ यह सब हुआ उसे अकेले ही यह दर्द झेलना होगा और इसमें दोष किसका, गलती किसकी, क्यों हुआ ये? ये सवाल ही रह जाएगा इसका जवाब किसी के पास नहीं है।

मकान-दुकान बन भी जाए शायद लेकिन इस शर्मनाक घटना में जिनकी जान चली गई उसका क्या? और ये जीवन भर का दर्द है, जीवन भर का डर है।

देखकर लगता ही नहीं है कि ये काम इंसानों ने ही खुद इंसानों के खिलाफ किया है। आखिर ऐसी क्या वजह हो सकती है? ऐसा कैसा ज़हर और नफरत है, जो किसी के मकान किसी के घर जलाने और ज़िंदा आदमी को मार देने के लिए कहता है।

और ये सब करने के बाद भी वह व्यक्ति ज़िंदा कैसे रह जाता है? वह इस बात की खुशी कैसे मनाता है? उस क्षेत्र में लोग नाम देखकर बात कर रहे हैं कि किससे बात करनी है किससे नहीं, कौन मेरी बात समझेगा कौन नहीं।

इस घटना को जस्टिफाई करने और इस पर हंसने वाले भी कम नहीं हैं। ऐसे लोग क्या देंगे, सिर्फ लेंगे ही लेंगे। जाइए देखिए कि आपके पड़ोस में क्या हुआ है, बहुत कुछ ऐसा हुआ है जो नहीं होना चाहिए था। रूह कांप जाएगी मंज़र देखकर।

इससे पहले कि यह आग हम तक पहुंचे, हम किसी की आग नहीं बुझाएंगे तो हमारे घर भी कोई बाल्टी लेकर नहीं आएगा। पूरी तरह मर जाने से पहले जाइए देखिए और थोड़ा सा जीवन बचा लीजिए खुद में।

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