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दिल्ली में तमंचा दिखाकर दंगाइयों ने उतरवाए पत्रकार के कपड़े

फोटो साभार- सोशल मीडिया

फोटो साभार- सोशल मीडिया

मैं लिखना नहीं चाहती या कहिए मैंने समझा ही नहीं था कि इस तरह कुछ भी कभी लिखा जाना ज़रूरी होगा। पता नहीं हम कौन सा इतिहास आने वाली पीढ़ीयों के हाथ में छोड़ जाएंगे।

जी हां, मैं बात कर रही हूं दिल्ली की, उस दिल्ली की जिसके चर्चे यूं तो कभी कम हुए ही नहीं लेकिन आज कल बढ़-चढ़कर सुर्खियां बटोर रहे हैं। दिल्ली में पिछले चार दिनों तक भड़के साम्प्रदायिक दंगों में जहां 40 से ज़्यादा मौतें हो चुकी हैं। वहीं, अफवाहों का बाज़ार अब तक गर्म है।

दंगों से किसी को फर्क नहीं पड़ता है, यदि फर्क पड़ता है तो बस हिन्दू-मुस्लिम से! आप अभी निष्पक्ष होने की कोशिश तो कीजिए अभी ज़िरह शुरू हो जाएगी कि हिंदुओं ने क्या किया और मुस्लिमों ने क्या?

इन सबके बीच कितनी ही खबरें आईं जो कि आपको स्तब्ध करती होंगी। कितने ही पत्रकारों पर हमले किए गए और इसमें कुछ नया भी नहीं है। उन्हीं सुर्खियों के बीच से निकल एक खबर आ रही है।

कौन हैं सुशील मानव, जिनके साथ बदसलूकी की गई?

सुशील मानव, फोटो साभार- सोशल मीडिया

सुशील मानव, जो कि ‘जनचौक’ के पत्रकार हैं। उन्होंने एक वीडियो जारी करते हुए बताया है कि पूर्वोत्तर दिल्ली के मौजपुर के लेन 7 में जब वह रिपोर्टिंग के लिए वीडियो बना रहे थे, तब उन्हें दंगाइयों ने घेर लिया।

वो अपने वीडियो में कहते हैं, “मैंने उनलोगों को कहा कि मैं एक पत्रकार हूं, उसके बाबजूद भी उन्होंने मेरे साथ मारपीट की। उनके पास रॉड और तमंचा जैसे हथियार थे। साथ ही कहा तुम हमारी गली (हिन्दू बहुल) में क्यों आए हो? वो (मुस्लिम) जब दंगे करते हैं, तब वहां क्यों नहीं जाते?

उनका कहना था कि यह वीडियो मत बनाओ और वहां मौजूद पुलिस कार्रवाई के नाम पर उन्हें कह रही थी कि जितनी जल्दी हो सके यहां से निकल जाओ।

वो आगे कहते हैं,

बाद में  ‘हनुमान चालीसा’ सुनाने को कहा। मुझे हनुमान चालीसा याद था तो मैंने सुना दिया। उसके बाद उनमें से एक शख्स ने तमंचा मेरे पेट पर लगा दिया और मुझसे पेंट उतारने को कहा। वो देखना चाहते थे कि मैं कौन हूं, मेरा खतना हुआ है या नहीं! मेरी ज़िंदगी इसलिए बची क्योंकि मेरा खतना नहीं हुआ था। इस देश में अब पेनिस ही मेरा पहचान कार्ड है।

आखिर हमारा देश किस तरफ बढ़ रहा है?

दिल्ली में हिंसा की तस्वीर। फोटो साभार- सोशल मीडिया

इससे ज़्यादा शर्मनाक इस देश में और कुछ नहीं हो सकता है। सोचने वाली बात यह है कि हम, हमारा देश किस तरफ बढ़ रहे हैं? क्या यही वो भारत है, जिस पर हमें गर्व करना चाहिए?

जहां बेरोज़गारी और इकॉनमी अब तक की सबसे बुरी स्थिति में हों, वहां सबसे बेहतर हिन्दू-मुसलमान एजेंडा ही है। लड़ो मरो फिर पैनलों में बैठकर बातें करो।

और यह स्थिति कैसे पैदा हो गई कि आपके घर में पलने-बढ़ने वाले बच्चे अचानक उन्मादी हो जाएं और सड़कों पर रॉड तमंचे लेकर निकल पड़ें। इन परिस्थियों को खड़ा करने में बहुत बढ़ा हाथ उन ज़िम्मेदार लोगों का है, जो वोट के नाम पर हिन्दू-मुसलमान और आतंकवादी जैसे शब्दों का उपयोग करते हैं।

इससे पहले शायद ही हिन्दू होने का पैमाना हनुमान चालीसा को बनाया गया होगा। अब हम धर्मनिरपेक्ष नहीं रहे, हम हिन्दू और मुसलमान हो गए हैं। अब हमारी पहचान हमारा राष्ट्र, हमारी सम्प्रभुता नहीं, बल्कि हमारा जनेऊ और खतना तय करेगा कि हम क्या हैं।

यह बताना किसकी ज़िम्मेदारी होनी चाहिए कि आग मस्ज़िद में लगी हो तो धुंआ मंदिर तक भी जाएगा। अगर इस तरह की घटनाओं से पहचान निकाली जाने लगी, तब गाँधी और गौतम  की ज़रूरत मिट जाएगी।

गीता, कुरान और बाइबिल हमारी निष्ठा तय करने लग जाएंगे और धर्म का कोई नया-नया ठेकेदार जिसको अपने वजूद तक की भनक नहीं है, वो हमें बताएगा कि धर्म क्या है।

जो घटना कल सुशील मानव के साथ हुई, वह आपके साथ भी हो सकती है। तब बेहतर यही होगा हम अपने राष्ट्रवाद के चश्मे को हिन्दू मुसलमान से देखना बंद कर दें और राजनीति के फैलाए इस कीचड़ से बाहर आने की कोशिश करें।

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