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“सैनिटरी पैड्स पर बनी फिल्में अपना मुनाफा समेटकर निकल गईं”

प्रतीकात्मक तस्वीर। फोटो साभार- pexels

प्रतीकात्मक तस्वीर। फोटो साभार- pexels

जैसे-जैसे भारतीय समाज में महिलाओं की शैक्षणिक क्षमता में बढ़ोत्तरी हो रही हैं, वैसे-वैसे उनकी भागीदारी निजी और सार्वजनिक क्षेत्रों में धीरे-धीरे बढ़ रही है। दूसरे शब्दों में कहा जाए तो आज आधी आबादी का भागीदारी प्रतिशत हर क्षेत्र में संतोषजनक तरीके से बढ़ रहा है।

यह एक सुकून देने वाली बात है, क्योंकि महिलाओं की भागीदारी के प्रतिशत में सुधार होने के साथ-साथ महिलाओं के उन सवालों को पब्लिक स्पेस में जगह भी मिल रही हैं, जिन पर आज से पहले कभी बात ही नहीं होती थी।

यह एक सकारात्मक संकेत है कि महिलाओं के विविधतापूर्ण विषय पब्लिक स्पेस का सिर्फ हिस्सा ही नहीं हो रहे हैं, बल्कि उस पर वस्तुनिष्ठता भी सामने आ रही है।

पीरियड्स से जुड़ी समस्याओं को बहस के मुद्दों से बाहर आना होगा

प्रतीकात्मक तस्वीर। फोटो साभार- Flickr

आज भारत में स्कूलों-कॉलेजों और दफ्तरों तक के परिसरों में ही नहीं, बल्कि समाचार चैनलों और सोशल मीडिया तक के तमाम मंचों पर पीरियड्स के बारे में चर्चा ही नहीं हो रही है।

सैनिटरी पैड्स के भारत में सबसे कम इस्तेमाल को लेकर चिताएं भी सामने आ रही हैं। पीरियड्स पर नई तरह की अभिव्यक्तियों का तूफान भारतीय नारीवाद के संघर्षों में नए चैप्टर को जोड़ने की कोशिश कर रहा है।

महत्वपूर्ण सवाल तब यह ज़रूर है कि क्या नव-नारीवाद का यह अध्याय इस विषय से जुड़े तमाम बहसों को अपने कैनवास में समेट पा रहा है? क्या एक वर्जित विषय, अपनी वर्जनाओं को तोड़ने में वस्तुनिष्ठ हो पा रहा है? या फिर यह सिर्फ सभ्य कहे जाने वाले समाज के दायरों में कैद होकर चटकारे लेकर बहस करने का विषय भर है?

पीरियड्स पर नारीवाद की बुलंद आवाज़

प्रतीकात्मक तस्वीर। फोटो साभार- Flickr

पीरियड्स पर भारतीय नारीवाद का हस्तक्षेप उस बहस से मानी जा सकती है, जब धार्मिक स्थलों पर महिलाओं के प्रवेश का बहस अचानक से सतह पर उठकर आया और न्यायालय के दरवाज़े तक पहुंच गया। उसके बाद “हैप्पी टू ब्लीड” नाम से सोशल मीडिया पर एक नए बहस में लड़कियों ने पैड्स पर तरह-तरह के मैसेज लिखकर अपनी तस्वीरें डालीं।

कॉलेज परिसरों में विरोध प्रदर्शन हुए और लैगिंक भेदभाव के खिलाफ सैनिटरी पेड्स पर संदेश लिखकर प्रतीकात्मक रूप से अपना विरोध दर्ज़ किया। उसके बाद सैनटरी पैड्स को जीएसटी के दायरे में रखने पर सरकार की आलोचना के साथ-साथ मामले को न्यायालय तक भी घसीटा जा रहा है और “लहू का लगान” जैसे सोशल मीडिया कैम्पेन में लोग भाग ले रहे हैं।

फिल्मों ने बस मुनाफा देखा

अक्षय कुमार। फोटो साभार- सोशल मीडिया

पैड्स के इस्तेमाल पर एक-दो फिल्में सामने आईं और अपना मुनाफा समेटकर निकल गई। गर्लियापा नाम के एक समूह ने “पीरयड गीत” लिखा, जिसे लाखों लोगों ने देखा।

भारत में पीरियड्स पर इन सारी बहसों की बुनियाद यहीं के सामाजिक करवटों से पैदा हुई है मगर जिन बड़े शहरों और जिस समाज में ये विरोध-प्रतिरोध हो रहे हैं, वहां पीरियड्स को लेकर अब ज़्यादा पिछड़ापन नहीं है।

ना ही वहां पर छूआछूत है और ना ही खाने-पीने पर रोक है। यह समाज पीरियड्स को लेकर सामाजिक जागरूकता की तो बात कर ही रहा है, साथ-साथ मेंस्ट्रुअल लीव की बहस की ज़मीन भी तैयार कर रहा है।

10 से 12 प्रतिशत महिलाएं ही सौनिटरी पैड्स का प्रयोग करती हैं

प्रतीकात्मक तस्वीर। फोटो साभार- Flickr

यहां पीरियड़्स को लेकर वर्जनाओं को तोड़ने की बात हो रही है। इसलिए कपड़ों पर लगे धब्बों के लिए शर्मिदा महसूस नहीं किए जाने चाहिए। पीरियड्स के मसले पर फुसफुसाकर बात करने से लेकर, पैड्स को मांगने में शर्म आना और दुकानदार द्वारा पैड्स को काले पालिथीन में लपेटकर दिए जाने पर भी सवाल खड़े किए जा रहे है।

जबकि पीरियड्स की बहस में इन वर्जनाओं से अधिक ज़रूरी सवाल यह है कि आज भी भारत में मात्र 10-12 प्रतिशत महिलाओं तक ही पैड्स तक पहुंच हैं। आज देश में लाखों लड़कियों को पीरियड्स के कारण स्कूल से ड्राॉप आउट होना पड़ता है।

पीरियड्स को लेकर कमोबेश हर समाज में एक सांस्कृतिक उत्सव बनाने की मनोस्थिति है मगर उसके बाद मानसिक शोषण और दमन की कहनी शुरू होती है।

ज़्यादा ज़रूरी तो यह बहस होनी चाहिए कि महिलाओं के स्वास्थ्य की बेहतरी के लिए इसको मुफ्त उपलब्ध कराया जाए या टैक्स फ्री कर दिया जाए। ताकि आर्थिक रूप से कमज़ोर महिला भी इसके प्रयोग के लिए बेफ्रिक हो सके। गाँवों-कस्बों-मोहल्लों में पीरियड्स के वर्जनाओं को तोड़ने पर बहस होना ज़रूरी है।

पुरुषों को भी संवेदनशील होना पड़ेगा

प्रतीकात्मक तस्वीर। फोटो साभार- Flickr

इस समाज में पुरुषों का इस विषय पर जागरुक और संवेदनशील होना ज़्यादा ज़रूरी है। इस तथ्य से कोई इंकार नहीं है कि सभ्य कहे जाने वाले समाज में आज पीरियड्स पर खुलकर बात करना सहज होता जा रहा है मगर इसका सहज होना उस समाज में ज़्यादा जरूरी है, जहां इसको लेकर वर्जनाओं और टैबूज़ की परत ज़्यादा मोटी है।

लेकिन यह सफर पूरा कैसे हो, यह एक यक्ष सवाल बना हुआ है। असल में पीरियड्स पर हो रही तमाम अभिव्यक्तियों को उन मज़िलों तक पहुंचना ज़्यादा जरूरी है, जहां तक यह अभी नहीं पहुंची है।

बीच-बीच में अखबारों, पत्रिकाओं और संचार के अन्य माध्यमों में कई कहानियां सामने आती रहती हैं कि कुछ महिलाएं ज़मीनी स्तर पर सस्ते पैड्स या उसके विक्ल्प के साथ-साथ वर्जनाओं को तोड़ने के लिए भी काम कर रही हैं।

अधिक ज़रूरी यह है कि इन अनुभवों का विस्तार अधिक-से-अधिक आधी-आबादी के दायरे तक किया जाए। ज़मीनी स्तर पर पैड-वुमन जैसे संगठनों को खड़ा किया जाए जो पीरियड्स के दौरान स्वछता और जागरूकता पर महिलाओं के बीच जाकर बातें करे।

योजना स्तर पर कार्य करने की ज़रूरत

पंचायत स्तर पर ग्राम प्रधान इस विषय पर जागरूकता अभियानों के माध्यम से वर्कशाॉप संचालित करें। तमाम सोशल मीडिया के कैम्पेन हैशटैग के चार लकीर के खांचे को तोड़कर गली-मुहल्ले, कस्बों-गाँवों में जाकर आज़ाद हो जाएं।

इस विषय को बहस के सांचे से निकलकर सार्थक राह पर पहुंचाने के लिए अंतरराष्ट्रीय महिला दिवस से बेहतर मंच और कोई नहीं हो सकता है।

इस महिला दिवस पर भारत में आधी आबादी के संघर्ष को उसके सही मंज़िल पर पहुंचने के लिए ज़रूरी है कि हम उन कार्य-योजनाओं पर चर्चा करें, काम करें कि कैसे पीरियड्स के दौरान होने वाली परेशानियों को आधी आबादी की ज़िन्दगी से उखाड़कर फेंक दिया जाए।

नहीं तो यह बहस सभ्य समाज की गलियों में तमाम शाबासी और हौसला अफज़ाई बटोर लेगा और वहां तक नहीं पहुंच पाएगा, जहां इसको पहुंचना है।

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