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क्या है दल-बदल कानून और मध्यप्रदेश में क्या होगा इसका असर

सुप्रीम कोर्ट

फोटो साभार- सोशल मीडिया

हाल ही में गोवा, कर्नाटक, उत्तराखंड और महाराष्ट्र के बाद अब मध्य प्रदेश में चल रही एक दल से दूसरे दल में पाला बदलने की प्रक्रिया भारतीय राजनीति में प्रचलित ‘आया राम गया राम’ वाली कहावत को फिर चरितार्थ करती प्रतीत हो रही है।

ज्योतिरादित्य सिंधिया इस समय मीडिया की सुर्खियों में हैं। उनका काँग्रेस से बाहर जाने का कारण उनकी पार्टी में उपेक्षा रही है। वास्तव में कोई भी योग्य व्यक्ति किसी भी व्यक्ति के अनावश्यक छाया में नहीं रह सकता है। यही सिंधिया के साथ हुआ और उन्होंने अपने समर्थकों और विधायकों के साथ काँग्रेस छोड़ दी।

दल-बदल ने जनभावना के साथ खिलवाड़ किया है

ज्योतिरादित्य सिंधिया। फोटो साभार- सोशल मीडिया

मैं उनकी पार्टी छोड़ने के कारण या फिर उन्होंने सही किया या गलत, इसमें ज़्यादा गहराई से नहीं जाना चाहता हूं मगर हां, मैं इस विषय पर ज़रूर लिखना चाहूंगा कि इस दल-बदल नें आज भी और पहले भी जनभावना के साथ काफी खिलवाड़ किया है।

दल-बदल से सम्बंधित ‘आया राम गया राम’ की कहावत भारतीय राजनीति में काफी चर्चित विषय है। यह हरियाणा के एक विधायक की कहानी है जिसने दल बदल कानून की आवश्यकता को सबसे ज़्यादा प्रभावित किया।

हरियाणा के विधायक गयालाल की कहानी इन दिनों प्रासंगिक है

हरियाणा के विधायक थे गयालाल, जिन्होंने एक दिन में दो और पन्द्रह दिन में तीन बार दल बदले थे। बाद में काँग्रेस के नेता राव वीरेंद्र सिंह जब उन्हें चंडीगढ़ लेकर गए तो उन्होंने गयालाल का परिचय ‘आया राम गया राम’ कहकर कराया।

तब से भारतीय राजनीति में दल बदल के संदर्भ में अक्सर ‘आया राम गया राम’ शब्द का प्रयोग होने लगा और आज भी यह बदस्तूर जारी है।

दल-बदल पर प्रतिबंध लगाने की कोशिश से कैसे बना दल-बदल कानून

सुप्रीम कोर्ट। फोटो साभार- सोशल मीडिया

सही मायने में राजनीतिक दल का उल्लेख भारतीय संविधान में था ही नहीं। राजनीतिक दल का उल्लेख 52वें संविधान संशोधन 1985 द्वारा संविधान में प्रथम बार शामिल हुआ। इसी संविधान संशोधन द्वारा प्रथम बार दल-बदल पर प्रतिबंध लगाने की कोशिश की गई।

शुरुआत में दलबदल विरोधी कानून के बुनियादी प्रावधानों का विरोध किया गया। संसद के सदस्य संसद और विधानसभाओं में बोलने की स्वतंत्रता को लेकर चिंतित थे। उन्हें डर था कि दलबदल कानून से विधायकों की अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता जो कि एक संवैधानिक अधिकार है पर अंकुश लगेगा। लेकिन फिर भी यह विधेयक पारित हुआ।

दल-बदल कानून के लिए राजनीतिक पार्टियां ही ज़िम्मेदार हैं

राजीव गाँधी। फोटो साभार- सोशल मीडिया

दिलचस्प यह भी है कि इस विधेयक के पारित होने में भी तत्कालीन राजनीतिक परिस्थितियां ज़िम्मेदार थीं। उस समय की राजीव सरकार बोफोर्स मामले में घिरी हुई थी और उन्हें इस बात के डर था कि कहीं कोई सदस्य दल-बदल करके सरकार गिरा ना दे। यद्दपि इस विधेयक में राजनीतिक स्वार्थ निहित था लेकिन इस विधेयक ने कुछ हद तक दल बदल को सीमित किया।

लेकिन साल 1985 के इस विधेयक में एक व्यवस्था यह थी कि अगर मूल दल से कुल दल के एक तिहाई सदस्य अलग होकर नए दल का गठन करते हैं, तो उनकी सदस्यता रद्द नहीं होगी। इस प्रावधान का निहित उद्देश्यों की पूर्ति हेतु गलत इस्तेमाल किया गया।

लिहाज़ा, साल 2003 में संसद को 91वां संविधान संशोधन करना पड़ा, जिसमें व्यक्तिगत के साथ-साथ  सामूहिक दल-बदल को भी असंवैधानिक करार दिया गया।

फिर भी इस कानून में एक यह नियम भी है, जिससे अयोग्यता से बचा जा सकता है और वह है दल के विलय से संबंधित प्रावधान। साथ ही इस संशोधन द्वारा एक तिहाई वाले अनुपात की व्यवस्था को दो तिहाई किया गया।

यद्यपि इससे दल-बदल पर कुछ अंकुश ज़रूर लगा लेकिन दिलचस्प यह है कि अगर दल-बदल के आधार पर कुछ सदस्यों को अयोग्य घोषित किया जाता है, तो बहुमत का आकड़ा भी उसी अनुपात में घट जाता है।

दल-बदल कानून को और कठोर बनाना होगा

फोटो साभार- सोशल मीडिया

अभी हाल ही में सुप्रीम कोर्ट नें यह भी कहा कि स्पीकर को यह अधिकार नहीं है कि दल-बदल करने वाले सदस्यों को सदन की बाकी अवधि के लिए भी अयोग्य घोषित कर दें। दूसरी दृष्टि से समझें तो इसका अर्थ यह हुआ कि बाकी अवधि के लिए सदस्य दोबारा चुनाव लड़ सकते हैं।

इससे यह होता है कि अधिकांश दल-बदल करने वाले सदस्य दोबारा चुनाव लड़ते भी हैं और अधिकतर जीत भी जाते हैं, जिससे उनकी स्थिति पर विशेष फर्क नहीं पड़ता है।

वास्तव में जनमत के साथ खिलवाड़ ना हो, इसके लिए इस दल- बदल कानून में संशोधन करके इसे और कठोर किया जाना चाहिए। इससे जनमत की उपेक्षा की सम्भावना नगण्य रहेगी। यद्यपि कोई भी कानून तब तक कारगर सिद्ध नहीं हो सकता है, जब तक हम नैतिक रूप से उसका पालन करने के लिए स्वप्रेरित ना हों।

हमें अपने जन प्रतिनिधयों में यह भावना भरनी होगी कि वे हमारी निष्ठा से ना खेलें। यद्यपि हमारी संवैधानिक संस्थाएं उन स्थितयों को संभाल ज़रूर लेती हैं लेकिन बेहतर तो यह होता कि ऐसी स्थितियां पैदा ही ना होने पाएं।

इसके लिए हमें एक सशक्त और जागरूक जनता बनकर अपने जनप्रतिनिधियों को यह एहसास कराना होगा कि उनका यह सोचना इस प्रक्रिया से सिर्फ वे ही प्रभावित होते हैं, गलत है।

उनको यह एहसास कराना होगा कि मतदान के पहले की उनकी स्थिति और विजयी होने के बाद जब वे अपनी स्थिति में परिवर्तन करते हैं, तो उससे लाखों लोगों की भावनाएं प्रभावित होती हैं।


संदर्भ- बीबीसी हिन्दी

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