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“क्या सरकार ने रंजन गोगोई को राफेल और राम मंदिर का तोहफा दिया है?”

रंजन गोगोई और नरेन्द मोदी

रंजन गोगोई और नरेन्द मोदी

पूरे विश्व में कोरोना का कहर चल रहा था। भारत में 16 मार्च 2020 तक 110 मरीज़ों में कोरोना की पुष्टि हो चुकी थी। सैकड़ों लोगों को आइसोलेशन वॉर्ड में रखा गया था। हज़ारों लोगों को निगरानी में रखा जा रहा था।

केंद्र सरकार से लेकर राज्य सरकारें कोरोना से बचने के लिए जनता को सलाह दे रही थीं। कोरोना वायरस के प्रकोप को देखते हुए इसी दिन सुप्रीम कोर्ट ने निर्णय लिया कि अब केवल अर्जेंट मामलों की सुनवाई होगी।

हर दिन की तरह सूरज ने सामान्य गति में डूबते हुए अंधेरे को आमंत्रित किया। घड़ी में करीब 9 बज रहे होंगे। किसे पता था कि सुप्रीम कोर्ट से जुड़े एक व्यक्ति के बारे में सरकार बड़ा फैसला लेने जा रही है।

जब रंजन गोगोई ने राष्ट्रपति के प्रस्ताव को स्वीकार किया

राष्ट्रपति कार्यालय से एक नोटिफिकेशन जारी होता है, जिसमें सुप्रीम कोर्ट के पूर्व चीफ जस्टिस रंजन गोगोई को राज्यसभा का सदस्य राष्ट्रपति के तरफ से मनोनीत किया गया। दो दिन बाद राष्ट्रपति के प्रस्ताव को रंजन गोगोई ने स्वीकार कर लिया। 19 मार्च 2020 को राज्यसभा में जाकर शपथ ग्रहण करते हुए औपचारिक रूप से राज्यसभा के सदस्य बन गए।

जब 16 मार्च 2020 को राष्ट्रपति के तरफ से सुप्रीम कोर्ट के पूर्व चीफ जस्टिस रंजन गोगोई को राज्यसभा का सदस्य मनोनीत किया गया, तो विपक्ष की राजनीतिक दल ही नहीं, बल्कि सुप्रीम कोर्ट से जुड़े पूर्व जस्टिस भी सरकार के इस फैसले की आलोचना करने लगे।

काँग्रेस ने क्या कहा?

प्रमुख विपक्षी राजनीति दल काँग्रेस ने संविधान के मौलिक ढांचे पर गंभीर हमला करने का आरोप लगाते हुए कहा कि यह कार्रवाई न्यायपालिका की स्वतंत्रता को हड़प लेती है।

राजस्थान के मुख्यमंत्री और काँग्रेस के वरिष्ठ नेता अशोक गहलोत ने कहा कि इससे न्यायिक प्रणाली में जनता का विश्वास कमज़ोर होगा और उनके द्वारा दिए गए फैसलों की निष्पक्षता पर संदेह पैदा करेगा।

काँग्रेस प्रवक्ता अभिषेक मनु सिंघवी ने कहा कि इस फैसले ने न्यायापालिका पर लोगों के विश्वास को चोट पहुंचाई है। काँग्रेस नेता ने कहा कि मोदी सरकार ने पूर्व वित्त मंत्री अरुण जेटली के उस कथन का भी ख्याल नहीं रखा जिसमें उन्होंने न्यायाधीशों की सेवानिवृत्ति के बाद पदों पर नियुक्ति का विरोध किया था।

सिंघवी ने जेटली की टिप्पणी का उल्लेख करते हुए कहा, ‘‘मोदीजी अमित शाह जी हमारी नहीं तो अरुण जेटली की तो सुन लीजिए। क्या उन्होंने न्यायाधीशों की सेवानिवृत्ति के बाद न्यायाधीशों पर दरियादिली के खिलाफ नहीं कहा और लिखा था? क्या आपको याद है?’’

ओवैसी ने दागे शब्दों के बाण तो यशवंत सिन्हा ने भी दी नसीहत

एआईएमआईएम नेता असदुद्दीन ओवैसी ने पूछा कि क्या गोगोई के मनोनयन में ‘परस्पर लेन-देन’ है? उन्होंने ट्वीट किया, ‘‘कई लोग सवाल उठा रहे हैं, न्यायाधीशों की स्वतंत्रता पर लोगों को विश्वास कैसे रहेगा?’’

आडवाणी और अटल बिहारी वाजपेयी के करीबी और पूर्व केंद्रीय मंत्री यशवंत सिन्हा जो कि भाजपा के बागी नेता भी हैं, उनका कहना है कि मैं आशा करता हूं कि गोगोई राज्यसभा का नामांकन ठुकरा दें नहीं तो ये भारतीय न्यायपालिका की साख पर बड़ा सवाल होगा।

ये तो रहा राजनीति से जुड़े लोगों के बयान। अब आइए देखते हैं न्यायपालिका से जुड़े हुए पूर्व जस्टिस के बयान। आखिर वो क्यों सरकार के इस फैसले की आलोचना कर रहे हैं।

सुप्रीम कोर्ट के पूर्व जस्टिस कुरियन जोसेफ का बयान

सुप्रीम कोर्ट के पूर्व जस्टिस कुरियन जोसेफ ने कहा कि राज्यसभा का मनोनयन पूर्व चीफ जस्टिस की ओर से स्वीकार करने में न्यायपालिका की स्वंत्रता से आम जनता का भरोसा हिल गया है।

उन्होंने आगे कहा, “न्यायपालिका संविधान की बुनियादी संरचनाओं में से एक है। ज्यों ही लोगों का भरोसा हिलता है, यह धारणा बनती है कि जजों का एक वर्ग निष्पक्ष नहीं है, इसके आगे यह भी दिखता है कि राष्ट्र की बुनियाद जिस ज़मीन पर टिकी है, वह हिल गई है।”

रंजन गोगोई के राज्यसभा नियुक्त हो जाने के बाद न्यायपालिका की स्वंतत्रता और निष्पक्षता पर सवाल खड़ा किया जा रहा है। सिर्फ राजनीतिक दल ही नहीं बल्कि पूर्व जस्टिस भी मुखर होकर फैसले की आलोचना कर रहे हैं।

पूर्व जस्टिस लोकुर ने क्या कहा?

सुप्रीम कोर्ट के पूर्व जस्टिस लोकुर ने The Indian Express को इंटरव्यू दिया। इसमें उन्होंने कहा कि कुछ समय से अटकलें थीं कि चीफ जस्टिस रंजन गोगोई को क्या सम्मान मिलेगा। तो उस अर्थ में नामांकन आश्चर्यजनक नहीं है लेकिन आश्चर्य की बात यह है कि यह इतना जल्दी हो गया। यह न्यायपालिका की स्वतंत्रता, निष्पक्षता और अखण्डता को पुनर्परिभाषित करता है। क्या आखिरी किला भी ढह गया है? इसका माकूल जवाब किसी के पास नहीं है।

गौरतलब है कि रंजन गोगोई नवम्बर 2019 में सुप्रीम कोर्ट से रिटायर हुए थे। चार महीने के भीतर उन्हें राज्यसभा का सदस्य नियुक्त कर दिया गया। स्वभाविक है कि उनके नियुक्ति के समय पर सवाल खड़ा होगा।

सरकार के इस फैसले के पीछे अगले साल असम में होने वाले विधानसभा चुनाव ही नहीं, बल्कि रंजन गोगोई द्वारा तत्कालीन बतौर चीफ जस्टिस की अध्यक्षता में दिए गई कई ऐतिहासिक फैसले भी हैं,जिसमें कई फैसलों से स्पष्ट होता है कि सरकार के तरफ से सेवा का मेवा है पूर्व चीफ जस्टिस रंजन गोगोई का राज्यसभा सदस्य नियुक्त होना।

राज जन्मभूमि बाबरी मस्जिद विवाद

रंजन गोगोई ने राम जन्मभूमि विवाद में ऐतिहासिक फैसला देने वाली पांच जजों वाली पीठ की अध्यक्षता की थी। पिछले कई दशकों से इस फैसले का बेसब्री से इंतज़ार किया जा रहा था। भारत में दो समुदाय हिन्दू-मुस्लिम के बीच में ज़मीन के मालिकाना हक की लड़ाई के मसले पर अंतिम फैसला 9 नवंबर 2019 को आया।

यह फैसला हिंदुओं के पक्ष में आया और सांत्वना के लिए मुस्लिम पक्षकार को मस्जिद के लिए पांच एकड़ ज़मीन देने का आदेश दिया। इस फैसले से सबसे ज़्यादा फायदा बीजेपी के नेतृत्व वाली केंद्र सरकार को हुआ, क्योंकि कई सालों से भाजपा का अयोध्या में राम मन्दिर बनवाने का चुनावी मुद्दा रहा है।

असम में एनआरसी लागू करवाने के फैसले पर गोगोई का अडिग रहना

पूर्वोत्तर राज्य असम के डिब्रूगढ़ में रहने वाले रंजन गोगोई असम में राष्ट्रीय नागरिक रजिस्टर (NRC) लागू करवाने के फैसले पर अडिग रहे। हाल के दिनों में भी NRC को लेकर पूरे देश भर में विवाद चल रहा है। सरकार इसे लागू करने के पक्ष में है और विपक्ष इसके विरोध में है।

असम में NRC को लागू करना भाजपा के भी घोषणा पत्र में लंबे समय से रहा है। बतौर चीफ जस्टिस उन्होंने NRC की प्रक्रिया को देखरेख करने वाली बेंच का नेतृत्व भी किया। वैसे सुप्रीम कोर्ट का काम फैसला देना होता और सरकार का काम फैसले को अमल में लाना होता है। लेकिन चीफ जस्टिस ने ये काम खुद किया।

राफेल मामले पर मोदी सरकार को क्लीन चिट

रंजन गोगोई के नेतृत्व वाली पीठ ने राफेल मामले में मोदी सरकार को दो बार क्लीन चिट दी थी। इससे कई सवालों के जवाब फाइलों में दब कर रह गए। राफेल मामले में सरकार राष्ट्रीय सुरक्षा का हवाला देकर राफेल डील की कीमतों को पारदर्शी करने के पक्ष में नहीं थी। सुप्रीम कोर्ट का फैसला सरकार को राहत देने वाला रहा।

शायद अपना वो बयान भूल गए रंजन गोगोई

पूर्व चीफ जस्टिस रंजन गोगोई राज्यसभा में बतौर सांसद उस टिप्पणी का कैसे बचाव कर पाएंगे, जब उन्होंने कहा था कि सेवानिवृत्ति के बाद की नियुक्ति न्यायपालिका की न्यायिक स्वंतत्रता पर एक धब्बा है।

पिछले साल मार्च में उनके चीफ जस्टिस रहने के दौरान एक सख्त फैसला आया था। इसमें जजों की सेवानिवृत्त की बाद जजों पर सवाल खड़े किए गए थे। सुप्रीम कोर्ट में अर्थ- न्यायिक ट्रिब्यूनल से जुड़े हुए कानूनों से संबंधित 18 याचिकाओं की सुनवाई कर रही थी।

तत्कालीन चीफ जस्टिस रंजन गोगोई की अध्यक्षता वाली पीठ ने फैसले के दौरान टिप्पणी किया था कि एक दृष्टिकोण है कि सेवानिवृत्ति के बाद की नियुक्ति न्यायपालिका की न्यायिक स्वतंत्रता पर एक धब्बा है। आप इसे कैसे संभालेंगे।

ऊपर के उदाहरणों से स्पष्ट हो जाता हैं कि चीफ जस्टिस अपने कार्यकाल में कुछ ऐसे फैसले लेते है जिससे सरकार को वो खुश कर सकें। उनके जेहन में सेवानिवृत्त हो जाने के बाद सरकारी पद का लोभ रहता है। तभी वह फैसला एकतरफा देते हैं। मामले के साथ न्याय नहीं कर पाते है। हालांकि,कुछ ही मामले ऐसे होते हैं।

निजी तौर पर मेरा मानना है कि सेवानिवृत्त हुए जजों को सरकारी पद नहीं लेना चाहिए और इस व्यवस्था के खिलाफ भारत की संसद को कानून बनाने की जरूरत है। ताकि लोगों का न्यायपालिका में विश्वास बना रहे और न्यायपालिका स्वतंत्र होकर मामलो की सुनवाई और फैसला कर सकें।

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