हाल ही में चीफ जस्टिस रंजन गोगोई को राज्यसभा के लिए सामाजिक क्षेत्र से मनोनीत करने पर विपक्षी धड़े ने सरकार की आलोचना करनी शुरू कर दी। ज्ञात हो कि चीफ जस्टिस गोगोई नवंबर 2019 में सर्वोच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश के पद से रिटायर हुए हैं।
गोगोई के कार्यकाल में कई बड़े लेकिन अहम फैसले हुए
गोगोई ने सुप्रीम कोर्ट में अपने कार्यकाल के दौरान अयोध्या वर्डिक्ट, असम एनआरसी, राफेल क्लीन चिट जैसे अहम मुद्दों पर फैसला दिया। हालांकि उन्होने अपने करियर में रेप जैसे आरोपों का सामना किया लेकिन उसे आपने कामकाज में हावी नहीं होने दिया।
गोगोई को राज्यसभा भेजने के फैसले को विपक्ष पारितोषक मान रहा है। सर्वोच्च न्यायालय के न्यायाधीश को रिटायर के बाद किसी भी लाभ के पद पर मनोनीत की मनाही है। इस वजह से गोगोई को राज्यसभा के लिए भेजना विवाद का विषय बना हुआ है।
रंजन गोगोई से पहले और कौन मनोनीत हो चुके हैं
रंजन गोगोई के पहले श्री हिदायतुल्लाह और श्रीरंगनाथ मिश्रा को राज्यसभा के लिए मनोनीत किया जा चुका है। काँग्रेस से राज्यसभा के लिए रंगनाथ मिश्रा ने इस्तीफा देकर कर पार्टी जॉइन की थी। जबकि गोगोई साहब ने रिटायर होने के बाद।
इस लिहाज़ से रंगनाथ मिश्र के मनोनयन में गोगोई के मनोनयन की अपेक्षा सतर्कता बरती गई। देखा जाए तो किसी भी राजनीतिक पार्टी में अब कोई मोरल वैल्यू शेष नहीं बची है।
बीजेपी के सत्ता में आने के पहले ज़रूर कयास लगाए जाते रहे थे कि शायद राजनीति की नैतिकता बरकरार रखने की कोशिश की जाए लेकिन बाकी पार्टियों की तरह यह पार्टी भी नैतिकता से कोसों से दूर है।
सीजेआई का फैसला सरकारी तंत्र से प्रभावित तो नहीं!
कुछ मात्रा में ही सही मगर वर्तमान सरकार द्वारा नैतिकता का दिखावा ज़रूर देखने को मिल रहा है। माना जाता है कि गोगोई अयोध्या विवाद, NRC पर असम विवाद, राफेल और भी बहुत से फैसलों पर एक पक्षकार के रूप में थे। इससे जनमानस के दिमाग में यह आ सकता है कि सीजेआई का फैसला सरकारी तंत्र से प्रभावित तो नहीं।
यह शायद गलत ना हो मगर गोगोई का राज्यसभा के लिए मनोनीत किया जाना या भेजा जाना संसदीय नैतिकता और न्यायालय की गरिमा के लिए धक्का ज़रूर है।
लोकतांत्रिक देश को चाहिए कि सरकार, न्यायालय और प्रशासन में कुछ परम्पराओं का पालन ज़रूर हो। ऐसा इसलिए कि पारदर्शिता, निष्पक्षता और विश्वास कायम रह सके।
न्यायालय को एक स्वतंत्र और निष्पक्ष संस्था के रूप में दर्ज़ा दिया गया है। इस प्रकार चीफ जस्टिस या किसी भी न्यायाधीश को सरकार के प्रतिनिधि के रूप में जनता के सामने पेश करने से सरकार को बचना चाहिए और न्यायाधीशों को सेवानिवृति के बाद राजनीतिक पदों से दूर रहना चाहिए या कम-से-कम कुछ निश्चित समय आवधि जैसे 3 से 5 साल तक दूर रहना चाहिए।
इतिहास हमको गलती रोक सकने और सुधारने का मौका देता है ना कि उसे दोहराने का। जिससे लोगों के मन में सरकार और न्यायालय के प्रति विश्वास और निष्पक्षता का आदर्श बचा रहे।