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“होली वाले दिन मेरे कज़न भाई को लोगों ने गोबर खिलाकर चेहरे पर गोबर मल दिया था”

प्रतीकात्मक तस्वीर। फोटो साभार- सोशल मीडिया

प्रतीकात्मक तस्वीर। फोटो साभार- सोशल मीडिया

होलिका एक स्त्री थी जो कई लोगों के सामने आग में जलकर मारी गई और उसे ज़िंदा किसने जलाया? खुद विष्णु भगवान ने और आप इतने सालों से एक स्त्री के आग में जल जाने का धूमधाम से जश्न मना रहे हैं?

इस तरह मूर्खतापूर्ण लिखा गया साहित्य सिर्फ आपको मूर्ख बना रहा है। अब भी आप संस्कृति के नाम पर होलिका दहन का जश्न मना रहे हैं तो आप अपने माथे पर “मैं सदा मूर्ख रहूंगा” यह लिखने के अधिकार का प्रयोग कर सकते हैं।

मेरी उम्र उस वक्त 8 या 9 साल की रही होगी। होली के दिन हम सब दोस्त, पड़ोसी, रिश्तेदार अपनी मंडली बनाकर होली खेल रहे थे। इस मित्रमंडली में जानवर भी थे। खासतौर पर बकरी, गाय, भेंस और कुत्ते भी।

होली खेलते वक्त हमें घर से ज़्यादा दूर ना जाकर होली खेलने की हिदायत दी जाती थी। एक खौफ कायम किया गया था किसी टोली नाम की चीज़ का लेकिन होली खेलते वक्त ना तो डर का पता लगता है और ना अंदाज़ा होता है घर से दूरी का।

होली के रोज़ मेरे भाई को गोबर खिलाया गया था

प्रतीकात्मक तस्वीर। फोटो साभार- Flickr

हम सब अपनी मस्ती में मस्त थे। तभी काले, नीले और हरे रंग में फटे हुए कपड़ों में एक टोली आई। वे सब “होली है भई होली है, बुरा ना मानो होली है” चिल्लाते आ रहे थे। बिल्कुल वैसे ही जैसे आज कल जय श्री राम नाम के नारे कट्टरपंथी हिन्दू दंगाई लगाते हैं। हम सब अपने एक दोस्त के घर में घुस गए और उनके चंगुल में आने से बचे।

मगर मेरे ताउजी का लड़का उनके हाथ आ गया। उस टोली ने सबसे पहले तो उसके कपड़े फाड़े फिर उसे काले रंग से भरी एक टंकी में डुबो दिया। उसे तब तक डुबोया जब तक कि वह छटपटाने ना लगा। उसके आंख, नाक और कान में रंगीन पानी भर चुका था।

उसकी सांस सी रुक रही थी फिर भी उसे टंकी से बाहर निकाला गया, गोबर खिलाया गया फिर चेहरे पर गोबर मला भी गया।

उस घटना ने मुझे नास्तिक बना दिया

प्रतीकात्मक तस्वीर। फोटो साभार- Flickr

उस टोली की बर्बरता मेरे ज़हन से आज भी नहीं जाती। वे चित्र कभी मेरे मस्तिष्क पटल से नहीं उतरेंगे। शायद इस घटना ने ही मुझे नास्तिक और तार्किक बनने का रास्ता दिखाया। मुझे परत-दर-परत धर्म, त्यौहार और संस्कृतियों की कुरीतियां दिखने लगीं।

मेरे ताऊजी के लड़के के साथ बलात्कार तो नहीं हुआ था मगर ज़रा सोचिए इस तरह की बर्बरता क्या कुछ कम है? त्यौहार के नाम पर हो या धर्म के नाम पर, इस तरह की क्रूरता को अगर आप समर्थन देते हैं, तो स्वयं के साथ भी ऐसी ही क्रूरता होने की आज़ादी का अधिकार भी किसी भी भीड़ को देते हैं।

होली को कृपया सिर्फ प्रकृति के बनाए रंगों का जश्न रहने दीजिए। एक रंग जैसी कोई चीज़ नहीं होती, बल्कि हर रंग कई रंगों से मिलकर बनता है।

यही धर्म है, यही संस्कृति है, यही आचरण में लाना विकास है। यह बात जब किसी इंसान को अच्छे से समझा दी जाए तो उससे जो खुशी होती है, वही होली का जश्न है, त्यौहार है।

मेरी राय के बिना आप मेरे साथ होली तो क्या कोई भी त्यौहार नहीं मना सकते हैं। मेरी राय ही तय करेगी कि मैं कब कहां किसके साथ कौन सा त्यौहार मनाऊं?

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