उदयपुर में एक खास किस्म की नफासत है जो दिल्ली, जयपुर या किसी और शहर में नहीं मिलती है। केवल इमारतें या बाग-बगीचें ही नहीं, बल्कि उदयपुरी जुबां भी ऐसी है कि कोई बोले तो लगता है कानों में शहद घोल दिया हो।
केवल राह चलते लोग ही नहीं, बल्कि इस शहर में तो सब्ज़ी बेचने वाले हों या सोना-चांदी बेचने वाले सब इसी खास ज़ुबान में ही बात करते हैं।
रिपिया कई रुखड़ा पे लागे जो थारे ठेला री अणि हुगली साग ने पांच रिपिया पाव लूं। तीन में देनी वे तो देई जा भाया।
मतलब यह है कि पैसे क्या पेड़ पर लगते हैं जो तेरी रेहड़ी की इस घटिया सब्ज़ी को पांच रुपये में लूं, तीन में देनी है तो बोल। जब बनी-ठनी छोटी चाची जी सब्ज़ी वाले से कुछ इस तरह भाव-ताव करती हैं तो फख़्र महसूस होता है अपनी मेवाड़ी पर।
कई बार तो परकोटे के भीतर माहौल कुछ ऐसा हो जाता है कि अजनबी यही सोचकर कुछ बोलने से डरते हैं कि वह सबसे अलग दिखने लगेंगे।
‘मेवाड़ी’ हर किसी को भाए
केवल उदयपुर के मूल निवासियों या राजपूतों ने ही नहीं बल्कि शहर की इस तहज़ीब भरी ज़ुबां को अन्य समुदायों ने भी अपने जीवन में समाहित किया है।
“म्हारा गाबा लाव्जो, मुं हाप्डी रियो हूं” यानी “मेरे कपड़े लाना, मैं नहा रहा हूं।” यह शब्द सुने मैंने “बड़ी होली” मोहल्ले में रहने वाले एक ईसाई बच्चे के मुंह से। यकीन मानिए इतना सुनने के बाद कोई नहीं कह सकता कि यह ईसाई है। उस बच्चे के मुंह से मेवाड़ी लफ्ज़ इस खूबसूरती और नरमाई लिए निकल रहे थे कि मानो वह मेवाड़ी तहज़ीब का चलता फिरता आइना हो।
उदयपुर के कूंचों में आप मेवाड़ी ज़ुबान सुन सकते हैं
मशहूर मांड गायिका मांगी बाई के मुंह से “पधारो म्हारे देस” सुनने के लिए दस-दस कोस के लोग लालायित रहते हैं। यहां के हर लोक कलाकार, कवि सभी में कहीं न कहीं मेवाड़ी अंदाज़ ज़रूर झलकता है।
तब “पूरी छोड़ ने आधी खानी, पण मेवाड़ छोड़ने कठेई नि जानी” कहावत सार्थक हो उठती है। कवि “डाडम चंद डाडम” जब अपनी पूरी रंगत में आकर किसी मंच से गाते हैं “म्हारी बाई रे कर्यावर में रिपिया घना लागी गिया। इ पंच तो घी यूं डकारी गिया जू राबड़ी पि रिया वे” यानी “मेरी दादी के तेरहवें में बहुत खर्चा हो गया, जाति-पंच घी ऐसे डकार गए जैसे रबड़ी पी रहे हों” तो माहौल में ठहाका गूंज उठता है।
बात राबड़ी की निकली है तो ज़ुबान लपलपा जाएगी
बचपन में सुना करते थे कि अगर सुबह-सुबह एक बड़ा कटोरा भरके देसी मक्की की राबड़ी पी ली जाए तो दोपहर तक भूख नहीं लगती। जो लोग गाँव से ताल्लुक रखते हैं उन्हें वह दृश्य ज़रूर याद आता होगा।
जब आंगन के एक कोने में या छत पर जल रहे चूल्हे पर राबड़ी के तोलिये यानी “काली बड़ी मटकी जिसे चूल्हे पर चढ़ाया जाता था” से भीनी भीनी खुशबु उठा करती थी। इस पर घर के बुज़ुर्ग चिल्लाते थे, “अरे बराबर हिलाते रहना, नहीं तो स्वाद नि आएगा।” और देसी लफ्ज़ों में कहें तो “राब औजी जाई रे भूरिया।”
वS भी गजब के ठाठ थे राबड़ी के जिसके बिना किसी भी समय का भोजन अधूरा माना जाता था। मक्की की उस देसी राब का स्वाद अब बमुश्किल मिल पाता है। होटलों में राब के नाम पर उबले मक्की के दलिये को गरम छाछ में डालकर परोस देते है।
दाल बाटी चूरमा-म्हारा काका सुरमा
चूल्हे पर चढ़ी राब और नीचे गरम-गरम अंगारों पर सिकती बाटी नाम सुनने भर से मुंह में पानी आ जाता है। पहले देसी उपलों के गरम अंगारों पर सेको फिर गरम राख में दबा दो। बीस-पच्चीस मिनट बाद बाहर निकालकर हाथ से थोड़ा दबाकर छोड़ दो घी में।
जी हां, कुछ ऐसे ही नज़ारे होते थे चंद वर्षों पहले। अब तो बाफला बाटी का ज़माना है। उबालो-सेको-परोसो का ज़माना जो आ गया है। अब घर-घर में ओवन है, बाटी-कुकर है। चलिए कोई नहीं स्वाद वह मिले न मिले, बाटी मिल रही है, यह ही क्या कम है।
अब शहर में कहीं भी उस मेवाड़ी अंदाज़ का दाल-बाटी-चूरमा नसीब नहीं है। एक-आध रेस्टोरेंट हैं मगर उन्होंने क्वालिटी के साथ समझौता कर लिया है। कहीं समाज के खानों में बाटी मिल जाए तो खुद को खुशकिस्मत समझता हूं। हां, बाटी चुपड़ने के बाद बचे हुए घी में हाथ से बने चूरमे का स्वाद कुछ याद आया आपको!
आधी रात को उठकर जब पानी की तलब लगती है तो दादी का चिर परिचित अंदाज़ सुनने को मिलता है “बाटी पेट में पानी मांग री है” चेहरे पर मुस्कान आ जाती है।
मैं मेवाड़ हूं
मोतीमगरी पर ठाठ से विराजे महाराणा प्रताप सिंह जी, चेटक सर्किल पर रौब से तीन टांग पर खड़ा उनका घोड़ा चेतक। बागोर की हवेली में “भवाई” नाच की 21 मटकियां सर पर उठाये घूमर लेती 70 साला भंवरी बाई।
जगदीश मंदिर की सीढियां चढ़ता फिरंगी और अंदर जगन्नाथ भगवान के सामने फाग गाती शहर की महिलाएं। गणगौर घाट के त्रिपोलिया दरवाज़े से झांकती पिछोला, नेहरु गार्डन में मटके से पानी पिलाती औरत की मूर्ति।
दूर पहाड़ पर सज्जनगढ़ से डूबता दिन का सूरज, सहेलियों की बाड़ी मे छतरी के ऊपर लगी चिड़िया के मुंह से गिरता फिरता पानी। गुलाब बाग में चलती छुक छुक रेल, सुखाड़िया सर्किल पर इतनी बड़ी गेहूं की बाली।
लेक पैलेस की पानी पर तैरती छाया, दूर किसी पहाड़ से शहर को आशीर्वाद देती नीमच माता, जी हां यह हमारा उदयपुर है।
शहर की इमारतों का क्या कहना
मेवाड़ के इतिहास की ही तरह यह भी भव्य है। अपने में एक बड़ा सा इतिहास समेटे हुए। पिछोला किनारे से देखने पर शहर का मध्य कालीन स्वरुप दिखता है। यूं तो उदयपुर को कहीं से भी देखो, यह अलग ही लगता है पर पिछोला के नज़ारे का कोई तोड़ नहीं।
एक तरफ गर्व से सीना ताने खड़ा सिटी पेलेस। तो दूसरी तरफ होटलों में तब्दील हो चुकी ढेर सारी हवेलियां, जाने कितने राजपूतों के आन-बान और शान पर खड़ा है यह शहर।
शाम के समय मोती मगरी पर होने वाला साउंड और लाईट शो
यहीं पर स्थित मोती महल में प्रताप अपने कठिनाई भरे दिनों में कुछ दिन ठहरे थे। खंडहरों पर जब रौशनी होती है और स्वर गूंजता है, “मैं मेवाड़ हूं” तो यकीन मानिए आपका रोम-रोम खड़ा हो जाता है। कुम्भा, सांगा, प्रताप, मीरा, पन्ना, पद्मिनी, जाने कितने नाम गिनाए।
तभी माहौल में महाराणा सांगा का इतिहास गूंजता है। कहते ही उनका जन्म ही मुगलों को खदेड़ने के लिए हुआ था। उनकी लहराती बड़ी-बड़ी मूंछें, गहरे अर्थ लिए शरीर के अस्सी घाव, लंबा और बलिष्ठ बदन उनके व्यक्तित्व को और अधिक प्रभावशील बना देता था।
तभी मुझे मेरठ के मशहूर वीर रस कवि हरि ओम पवार के वह शब्द याद आते हैं, “अगर भारत के इतिहास से राजस्थान निकाल दिया जाए, तो इतिहास आधा हो जाता है मगर राजस्थान से अगर मेवाड़ को निकाल दिया जाए, तो कुछ नहीं बचता।”
इसी बीच घूमते-घूमते आप फतेहसागर पहुंच जाएं और “कुल्हड़ कॉफी” का स्वाद लेते-लेते अगर आपको यह शब्द सुनने को मिल जाएं, “का रे भाया, घनो हपड़ हापड़ कॉफी चेपी रियो हे, कम पीजे नि तो खर्-विया खावा लाग जायगा।”
यानी वाह रे भाई, बड़े इत्मिनान से कॉफी पी रहा है। ध्यान रखना नहीं तो रात को $%&^% परेशानी होगी। तो यकीन मानिये आप ने शहर को जी लिया। वैसे उदयपुर निहायत ही खूबसूरत शहर है। जब हम इसकी ज़ुबान, खान-पान की बात छेड़ देते हैं तो बहुत कुछ आकर्षक चीजे़ हमसे छूट जाती हैं।