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“क्या दंगा भड़काने में देश की मीडिया का भी हाथ है?”

फोटो साभार- सोशल मीडिया

फोटो साभार- सोशल मीडिया

19 जनवरी को मैं अपने एक मित्र गौरव को साथ लेकर रात के बारह बजे देश की सबसे बड़े सूबे की राजधानी लखनऊ में घूम रहा था। दरअसल, हम देखना चाहते थे इस भयानक ठंड में उन लोगों का क्या हाल है, जिनका घर सड़क के किनारे पैदलपथ पर ही बसता है, जिनकी हर रात सड़क के किनारे ही गुज़रती है।

दो दिन पहले ही बारिश हुई थी जिस कारण ठंड अब पहले से ज़्यादा बढ़ चुकी थी। हवाओं में हाड़ कंपाने वाली गलन थी। इतनी भयानक ठंड में भी अनगिनत लोग सड़क पर सो रहे थे।

जब हम कामता चौराहे से पॉलिटेक्निक चौराहे की तरफ बढ़े, तो हमें एक रैन बसेरा दिखा जो पॉलिटेक्निक चौराहे से गोमती रिवर फ्रंट की तरफ जाने वाली सड़क के बीचो-बीच चौड़े डिवाइडर पर बनाया गया था।

रॉबिनहुड NGO के सदस्य। फोटो साभार- सिराज खान

वहां के इंचार्ज ने हमें बताया कि बारिश होने के कारण गद्दे और रजाई भीग चुके हैं। लोग आ रहे हैं मगर व्यवस्था ना होने के कारण उन्हें वापस जाना पड़ रहा है। इंचार्ज से बातचीत हो ही रही थी कि तभी रॉबिनहुड NGO के लोग आ गए। वे अपने साथ कुछ खाने के पैकेट लाये थे।

पूछने पर बताया कि ये वो खाना है, जो शादी-विवाह में बच जाता है। इसे वहां से लेकर हम लोगों में बाट देते हैं। खाना वेस्ट भी नहीं होता और गरीबों का पेट भी भर जाता है।

बारह साल रिक्शा खींचने के बाद भी छत नसीब नहीं होती

राम किशन। फोटो साभार- सिराज खान

वहां से आगे बढ़ने पर तस्वीरें और भी भयावह थीं। ऐसे बहुत से लोग मिले जो सड़क पर ही सो रहे थे। कई रिक्शे वाले तो अपने रिक्शे पर ही सो रहे थे। हमने यह निश्चय किया कि हम किसी सोते हुए को नहीं जगाएंगे मगर इतनी ठण्ड और तेज़ आवाज़ वाली गाड़ियों के बीच कई ऐसे थे जिन्हे नींद नहीं आ पाई थी, इस लिए जग रहे थे।

सड़क पर ही हमारी मुलाकात बूढ़े कमज़ोर रामकिशन से हुई जो बिहार के थे और यहां लखनऊ में पिछले बारह साल से रिक्शा चला रहे थे। बातचीत में उन्होंने बताया कि अपने रिक्शे की मदद से वह दिन के डेढ़ सौ से दो सौ कमा लेते हैं, जिनमें से चालिस रुपये उन्हें रिक्शा मालिक को देने पड़ते हैं।

ये पूछने पर कि इतने में कैसे काम चलता है? रामकिशन भावुक होकर कहने लगे कि कुछ महीने पहले ही बेटी की शादी की है तीस-चालीस हज़ार कर्ज़ है मूलधन तो उतरा नहीं ब्याज़ चढ़ा जा रहा है। 

इस कहानी को यहीं रोकते हैं, मगर ऊपर की बातों को पकड़ कर रखियेगा। आपको पता होगा कि दिल्ली में हुए दंगो की आग में चालिस से ज़्यादा लोग अपनी जान गंवा चुके हैं और दो सौ से ज़्यादा अभी भी अस्पताल में जिंदगी की जंग लड़ रहे हैं।

जैसा दिल्ली में हुआ, ऐसा किस विकसित देश की राजधानी में होता है क्या?

इस दौर में जब हम भारत को विश्वगुरु बनाने का सपना देख रहे हैं ठीक उस समय देश की राजधानी दिल्ली में तीन दिन तक दंगो की आग में जलती रही है। क्या आप कल्पना कर सकते हैं कि किसी विकसित देश में ऐसा हो सकता है?

क्या आप कल्पना कर सकते हैं कि अमेरिका या ब्रिटेन या फिर फ्रांस में कोई शहर तीन दिन तक जले। चलिए छोड़िये आप उन देशो के नाम बताइये जिस देश में ऐसा होता है?

क्या दंगों की वैसी ही जांच होगी जैसी पहले‌ होती रही है?

फोटो साभार- सोशल मीडिया

दंगो में संलिप्त लोगों की जांच होगी जैसे पहले हुई है, जांच में क्या होगा ये आप भी जानते हैं। मगर आरोप की एक उंगली देश की मीडिया की तरफ भी उठती है। जी हां वही मीडिया जिसकी ज़िम्मेदारी है कि वह देश के हज़ारों रामकिशन की कहानी देश के सामने रखे। सड़क पर सोने वाले लोगों को लेकर सवाल उठाए मगर वह ऐसा नहीं करती है।

पिछले कुछ सालों में भारतीय मीडिया ने अपना स्तर इतना गिरा लिया है कि अब उसे मीडिया कहने से पहले मीडिया की परिभाषा बदलनी पड़ेगी और मैं ये इसलिए नहीं कह रहा हूँ कि भारतीय मीडिया की रैंकिंग वर्ल्ड फ्रीडम इंडेक्स में 140/180 है।

जिस देश में लाखों लोगों को पीने का पानी नहीं मिलता, जिनके  जीवन भर की कमाई प्राइवेट अस्पताल और प्राइवेट स्कूल चूस लेते हैं वहां की मीडिया के लिए आम लोगों के ये मुद्दे मुद्दे नहीं होते।

भारत की मीडिया का सच

प्रतीकात्मक तस्वीर। फोटो साभार- सोशल मीडिया

इसके इतर हर शाम न्यूज़ चैनलों में चार से दस बजे के बीच नफरत की पुड़िया बांटी जाती है। डिबेट के नाम पर लोगों को लड़ाने के लिए पैनलिस्ट और एंकर का शोर कितना ज़िम्मेदार है? आज यही भारत की मीडिया का सच है। लेकिन जब व्यूवर्शिप, और TRP से न्यूज़ की गुणवत्ता नापी जाने लगे तो इससे ज़्यादा आपको कुछ मिल भी नहीं सकता।

न्यूज़ चैनेलों ने लोगों को ये बताना शुरू कर दिया कि पहले या तो आप हिन्दू हैं या मूसलमान, हिंदुस्तानी तो आप बाद में हैं इंसान तो आप हैं ही नहीं। न्यूज़ चैनल से बंटने बाली नफरत लोगों के नस-नस में खून बनकर बहने लगी और जब ऐसा होता है तो फिर इंसान, इंसान को इंसान नहीं हिन्दू या मूसलमान समझता है।

दंगो की आग में जले हुए घर, स्कूल और दुकानें फिर बन सकती हैं। इस आग में अपनों को खोने वालों का गम क्या होगा? कितनी जल्द वह अपने इस गम से उबर पाएंगे? मगर दिल्ली में सबसे ज़्यादा नुकसान आपसी भाईचारे, प्यार और इत्तेहाद का हुआ है। जिसे कायम करने में कई दशक लगे होंगे।

दिल्ली हमेशा से दिलवालो की रही है। मुझे पूरी उम्मीद है दिल्ली वाले जल्द ही नफरत के इस धुआं से पार पाकर फिर से मोहब्बत के लहलहा सकेंगे। मगर क्या देश की मीडिया नफरत और TRP की अपनी भूख से पार पा पाएगी? ऐसे में यह कहना गलत नहीं होगा कि दंगा भड़काने में देश की मीडिया का भी हाथ है।

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