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“त्यौहारों में महिलाओं के कंधों पर ज़िम्मेदारियों का बोझ क्यों डालता है यह पितृसत्तात्मक समाज?”

फोटो साभार- Flickr

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इस बार महिला दिवस के दो दिन बाद ही होली का भी त्यौहार मनाया गया। महिला दिवस के दिन देखा गया कि महिला सशक्तिकरण को लेकर बड़ी-बड़ी बातें की गईं।

भारत जैसे देश में महिलाएं कितनी भी पढ़-लिख क्यों ना लें मगर उन्हें रसोई से आज़ादी ना के बराबर मिलती है। पढ़ाई उनके लिए पुरुषो की तरह प्राथमिक साधन नहीं है। वह तो अपने ज्ञान के सृजन के लिए बल्कि द्वितीयक होता है। 

हालांकि कुछ महिलाएं हैं जो इन सब से ऊपर उठ चुकी हैं परन्तु अभी भी उनका प्रतिशत ना के बराबर ही है। मुद्दे की बात यह है कि  त्यौहार होली का हो या कोई और उसकी पूरी ज़िम्मेदारी हमारे पितृसत्तात्मक समाज में महिलाओं के कंधे पर ही होती है।

ऐसा कहा भी जाता है कि महिलाएं त्यौहारों को संजोकर रखती हैं। उनसे ही हमारे त्यौहार बचे हुए हैं। ये अलग बात है कि अशुद्धता की जब बात आती है तो इन महिलाओं को ही इनसे सबसे पहले अलग किया जाता है। कितना विरोधाभास है हमारे समाज में यह उपर्युक्त तथ्य से भली प्रकार से समझा जा सकता है।

महिलाओं के लिए त्यौहार के मायने

प्रतीकात्मक तस्वीर। फोटो साभार- Flickr

अमूमन देखा जाता है कि महिलाएं काम काजी हों या घरेलू लेकिन जब त्यौहार आने लगता है तो उनके कंधे ज़िम्मेदारियों का बोझ ज़्यादा दिखाई देता है।

इन जिम्मेदारियों में घर की सफाई, सामानों की खरीद, पकवानों की लिस्ट से लेकर पकवान बनाने तक सब कुछ शामिल है। ये ज़िम्मेदारी उन पर कोई डाले ना भी तो भी उन्हें मालूम होता है कि अगर वे घर में मौजूद हैं, तो उन्हें ही ये सब करना है वरना समाज ताने देगा। 

त्यौहारों पर पुरुषों का रव्यैया

फोटो साभार- सोशल मीडिया

महिलाएं हमेशा एक अनचाहे दबाव से गुज़रती हैं जो उन्हें यह सब करने को मजबूर करता है और वे यह जान भी नहीं पातीं कि ये सब वे अपनी मर्ज़ी से कर रही हैं या किसी दबाव में।

पुरुषो के लिए त्यौहारों के मायने सिर्फ मेहमानों के स्वागत से लेकर उनके साथ बैठकर खाने-पीने तक ही सीमित होता है। जिसे वे अच्छे से एन्जॉय भी करते हैं मगर महिलाएं उनके मनोरंजन को पूरा करने के लिए दिनभर रसोई से बाहर ही नहीं आ पाती हैं।

महिलाओं के घर में ना होने पर पुरुष यह बात बहुत ही आसानी से बोलकर पीछा छुड़ा लेते हैं कि घर पर कोई महिला मौजूद नहीं है, तो कौन करेगा और किसके लिए।

ऐसा लगता है मानो उनकी गैर-मौजूदगी में ये सारी ज़िम्मेदारी उठाए हों और आते-जाते हम सभी कभी ना कभी यह सुन ही लेते हैं, “बताओ इतनी औरतें हैं इनके घर में लेकिन कुछ बनाया तक नहीं, एक नंबर की कामचोर हैं सब।”  

चाहे कोई महिला तकलीफ में ही क्यों ना हों, त्यौहार किसी भी धर्म का क्यों ना हो मगर महिलाएं ही इसे ढोती हैं। हमारे समाज ने उनके मनोरंजन का साधन रसोई घर को जो बना दिया है, जिसे वे अपनी नियति मान चुकी हैं।

रसोई में सिमटा त्यौहार

फोटो साभार- Flickr

10 मार्च को होली का त्यौहार मनाया गया। अगर देखा जाए तो इसकी तैयारी के लिए एक हफ्ते पहले से ही महिलाएं जुट गई थीं। पूरा दिन रोज़मर्रा के काम करते हुए होली के लिए कुछ ना कुछ पकवान भी बनाती हैं।

होली ऐसा त्यौहार है जिसमें सब एक दूसरे से मिलने जाते हैं। इसलिए पकवान भी अधिक मात्रा में बनाती हैं। जिस दिन त्यौहार आता है, उसी दिन चला जाता है मगर महिलाएं उसी रसोई में अपने त्यौहार के साथ फिर से एक रोज़मर्रा की ज़िंदगी में आ जाती हैं।

उन्हें पता भी नहीं लगता कि त्यौहार कब आया और कब चला गया। सच तो यह है कि त्यौहार की पूरी परिभाषा सिर्फ रसोई के इर्द गिर्द ही घुमती है। ऐसा किसी एक होली या दीपावली की कहानी नहीं है, बल्कि सभी त्यौहारों की है, चाहे वे किसी भी धर्म का क्यों ना हो।

अगर देखा जाए तो महिलाएं नहीं होने पर घरों में उत्सव नहीं होंगे, त्यौहार नहीं मनाए जाएंगे। प्रश्न यह उठता है कि क्या समाज में सबके मनोरंजन का एक मात्र साधन महिलाएं ही हैं?

हमारा समाज कब इन सब से उपर उठेगा जब वह महिलाओं को साधन के रूप में ना देखकर बराबरी का दर्ज़ा देगा। जिन त्यौहारों को संजोकर रखने में महिलाओं का इतना बड़ा हाथ है, तो वह त्यौहार एक महिला विरोधी प्रतीक के रूप में कैसे काम कर सकता है?

पितृसत्ता की इस दी हुई विरासत से कभी महिलाएं आज़ाद हो भी हो पाएंगी या नहीं? उम्मीद है कि आने वाली होली महिलाओं को सिर्फ रसोई तक ही ना समेटे मगर इसके लिए और कितना इंतज़ार करना होगा यह मालूम नहीं!

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