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उदयपुर की महिलाएं परदे की बीमारी के लिए क्यों कराती हैं झाड़फूक

फोटो साभार- आर्या मन्नु

फोटो साभार- आर्या मन्नु

बिस्तर पर पड़े-पड़े राजल की पीठ की चमड़ी गल चुकी है। पीठ पर बड़े-बड़े छाले होने लगे हैं। घर के बाहर एक छोटे खाट पर एक पतली सी गुदड़ी ही उसका बिछौना है। पोती ने धूप से बचने के लिए एक शाल को टेंट सा तान रखा है।

पास ही में  पानी का लोटा है और लघुशंका के लिए एक राख से भरी एक तगारी है। यही राजल बाई का संसार है। जब वह दर्द से कराहती है तो घर का कोई सदस्य पास आकर उसकी करवट बदल देता है।

घर वाले मंदिर-मंदिर जाकर उपचार कराने के बाद अब थक-हार चुके हैं। सबसे नज़दीक का अस्पताल गोगुन्दा में है, जो तकरीबन 24-25 किलोमीटर दूर है। वहां भी औरतों की इस “परदे की बीमारी” के इलाज के लिए कोई महिला डॉक्टर नहीं है।

परदे की बीमारी को उपरी प्रकोप बताया जाता है

राजल के घर की इतनी आमदनी नही कि वे उसे इलाज के लिए उदयपुर ले जा सकें। अलबत्ता राजल का पति तेजराम कहता है,

अब पप्पू की बाई (राजल)  किसी काम की भी तो नहीं, फिर खर्चा क्यों और कैसे करें! ना तो वह मनरेगा मज़दूरी के लिए जा सकती है और ना ही अब बच्चे जन सकती है! परदे की बीमारी उपरी प्रकोप है। ये उन औरतों को होता है जो अपने पति के होते हुए किसी और मर्द की चाह रखती है। ये असल में बीमारी नहीं, अम्बा (माता) का ताप (गुस्सा) है।

राजल कहती हैं, “ये दिन (देवी) माता किसी औरत को ना दिखाए। या तो बुलावा भेज दे या शरीर को ठीक रखे। परदे की बीमारी किसी औरत के शरीर को ही नहीं, उसके मन को भी खत्म कर देती है।”

राजलबाई रजोनिवृति (मेनोपॉज) के करीब है। उम्र 50 के आस पास है। उसके जननांगों के आस-पास घाव और लाल चकत्ते हो गए हैं। योनि से बेहिसाब सफेद पानी निकलता है। कभी-कभी मवाद भी आता है। कमर के नीचे बहुत ज़्यादा दर्द रहता है। पैरों में सूजन रहती है।

राजल की पोती ने क्या कहा?

शरीर टूटता जाता है। उसका मूड बार बार बदलता है। पिछली माहवारी कोई तीन-चार महीने पहले हुई थी, तब वो पूरे पांच-सात दिन ठीक से सो भी नहीं पाई थी। राजल की पोती भूरकी बोली,

“बाई (दादी) एक हफ्ते तक रात-दिन दर्द से चिल्लाती रही मगर कोई उसे अस्पताल लेकर नहीं गया। बस देसी इलाज किया और मंदिर लेकर गए। मंदिर में एक मुर्गे का जीव (बलि) मांगा। वो देने के दो-तीन दिन बाद बाई को दर्द से एक बार आराम मिल गया। अब उसको लाल कपड़े (माहवारी) नहीं आते।” भूरकी 13 साल की है और छठी कक्षा में पढ़ती है।

पिछले डेढ़ वर्षों से बिस्तर पर हैं राजल बाई

राजल जब 10-12 साल की थी, तब बड़ी बहन के मंडप में उसका भी ब्याह कर दिया गया। पिता एक ही खर्चे में चार बेटियों का ब्याह करने की ठान चुका था। शादी के तीन साल बाद आदिवासी रिवाज़ों के अनुसार उसका आणा (गौना) हुआ। उसके कोई अढ़ाई-तीन साल में सबसे बड़े बेटे पप्पू को जना। तब से अब तक वह ही घर को संभालती आई है।

तीन बेटे और दो बेटियों के साथ-साथ सास ससुर को भी संभाला मगर जब पिछले डेढ़-एक साल से राजल ने बिस्तर पकड़ा है तो उसको संभालने वाला कोई नहीं है। पोते पोतियां देख जाते हैं। बाकि सब तो ताने ही देते हैं। दिन भर राजल घर की दहलीज़ पर बाहर रहती है और रात को उसे उठाकरघर की पटियाल (बरामदे नुमा छज्जा) के भीतर ले लिया जाता है।  बाहर रात को जंगली जानवरों का भय है।

स्वर्णिम इतिहास के पीछे औरतों का दर्द कौन पूछे

उदयपुर का गोगुन्दा कस्बा महाराणा प्रताप की राजतिलक स्थली के रूप में विख्यात है। हल्दीघाटी यहां से कोई 18 किलोमीटर दूर है। उस रण में राजपूतों का कदम-दर-कदम साथ देने वाले आदिवासी समुदाय का यहां की कुल आबादी में 47% हिस्सा है।

इनमे तकरीबन 13 हज़ार से ज़्यादा आदिवासी महिलाएं हैं, जिनकी आयु उम्र के चौथे दशक में है या उसे पार कर चुकी हैं। हमने अपने सर्वे के दौरान 12 गाँवों में इस उम्र की हर तीसरी महिला को “परदे की बीमारी” से परेशान पाया।

सामाजिक और पारिवारिक बहिष्कार के चलते ये महिलाएं स्थानीय घरेलू उपचार अपनाती हैं और किसी को कुछ नहीं बताती। कुछ महिलाएं स्थानीय ANM के सहयोग से  इलाज के लिए गोगुन्दा तक पहुंचती भी हैं मगर वहां महिला चिकित्सक के नहीं होने से सही इलाज नहीं ले पाती हैं।

स्थानीय स्वास्थ्य कार्यकर्त्ता अम्बावी भील कहती हैं,

अगर सरकार वास्तव में आदिवासी औरतों के लिए कुछ करना चाहती है तो गोगुन्दा में एक महिला चिकित्सक लगा दे। घर घर गैस (सिलेंडर) की ज़रूरत नहीं है। मोकली (खूब) लकड़ियां और गोबर पड़ा है। ज़रूरत इस बात की है कि एक बार सरकार ये सर्वे करे कि कितनी महिलाएं परदे की बीमारी से परेशान हैं।

प्रजनन स्वास्थ्य प्रबंधन के स्वच्छ उपायों से दूर हैं महिलाएं

महिलाओं से चर्चा के दौरान पता चला कि अधिकांश महिलाएं माहवारी के दौरान कपड़े का प्रयोग करती हैं। ये अक्सर सूती कपडा नहीं होता है। सूती कपडा अब रोज़मर्रा की ज़िन्दगी में बचा भी नहीं है।  पुरानी महिलाएं कपड़े को घाघरे के नाड़े में फसा लेती हैं। ये महिलाएं अंडरवियर प्रयोग नहीं करती हैं।

स्कूल जाने वाली लड़कियां वहां नि:शुल्क मिलने वाले सैनिटरी पैड प्रयोग करने लगी हैं। कुछ महिलाएं ऐसी भी मिलीं, जो किसी प्रकार के प्रबंधन उत्पाद काम में नहीं लेती हैं। वे इस तरह के घाघरे प्रयोग करती हैं, जिनके रंग और साइज़ के चलते माहवारी के खून के धब्बे आसानी से दिखाई नहीं देते हैं।

माहवारी के कपड़े के रखरखाव का तरीका भी सही नहीं है। वे इसे उपयोग के बाद घर के बाहर पुरानी मटकियों, पत्थर की कच्ची दीवारों  या उपलों के ढेर के बीच छिपा देती हैं। चूंकि घर में स्नानघर नहीं है, सो सूरज उगने से पहले अंधेरे में कपडा तय जगह से निकालकर उपयोग में लेती हैं।

ऐसे में संक्रमण का खतरा सबसे अधिक होने की सम्भावना रहती है। अम्बावी बताती हैं कि निछले भिलवाड़े (निचली भील बस्ती) की एक महिला को कपडा खोजते समय सांप खा गया।

भामाशाह सुविधा बंद होने से नहीं मिल रहा लाभ

31 दिसंबर तक भामाशाह कार्ड धारक होने के चलते कुछ महिलाएं उदयपुर स्थित अस्पताल में इलाज करने आ भी जाती थी मगर यह कार्ड बंद होने के बाद इन महिलाओं तक नि:शुल्क उपचार का लाभ नहीं पहुंच पा रहा है।

ऐसे में हर गाँव में ये महिलाएं दर्द के साथ जीने को मजबूर हैं।  उदयपुर आने पर अपने पिछड़ेपन और भाषा के चलते भी आदिवासी इलाकों की इन महिलाओं के साथ दुर्व्यवहार आम बात है।

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