आज सुबह से ही सबको प्रधानमंत्री जी के स्पेशल वीडियो मैसेज का इंतजार था। इस संकट के दौर में हर एक नागरिक अपनी सरकार और सरकार के प्रमुख से कुछ सूचनाओं की उम्मीद करता है।
जैसे देश में कोरोना संकट की क्या स्थिति है?
सरकार इस संकट से लड़ने के लिए नागरिकों से किस तरह के योगदान की उम्मीद कर रही है?
सरकार अपने संसाधनों को कैसे इस आपदा से लड़ने के लिए जुटा रही है?
सरकार के सामने क्या-क्या समस्याएं आ रही हैं?
लॉक-डाउन जैसी स्थिति में नागरिकों की अति आवश्यक जरूरतों के लिए सरकार युद्ध स्तर पर क्या काम कर रही है?
असामान्य स्थितियां हो, या फिर आपदा, सही सूचनाओं तक पहुंच स्थिति को सामान्य बनाए रखने में मदद करती हैं। इस सूचना के युग में ऐसा लगता है कि हमारे पास हर एक सूचना है। लेकिन सच कुछ अलग है।
जिस स्तर पर सूचना हर मिनट में पैदा हो रही है और इंटरनेट के माध्यम से लोगों तक तेजी से फैलाई जा रही हैं उसमें यह पहचान लगाना बहुत ही मुश्किल है कि क्या सूचना सही है या क्या गलत?
आपातकाल में वैसे भी नागरिक एक तरह के मानसिक दबाव में रहते हैं। सही सूचनाओं से इस मानसिक दबाव को कम किया जा सकता है। अगर सूचनाएं सही स्तर पर सरकारों तक पहुंचती है तो शायद सरकारें अपनी रणनीतियों को प्रभावी ढंग से लागू कर सकती हैं। इसी तरह से अगर सरकार द्वारा पहुंचाई गई सूचना लोगों तक सही तरीके से पहुंच जाती है तो जमीनी स्तर पर किसी भी अराजकता से बचा जा सकता है।
उदाहरण के रूप में अगर प्रधानमंत्री के 21 दिन के लाँक-डाउन की घोषणा सामान्य लोगों तक सही तरीके से पहुंचती, और उन्हें यह बताया जाता कि आपको आपाधापी करने की जरूरत नहीं है। सरकार आप तक सारे संसाधन पहुंचाएगी। तो शायद जिस तरह की भगदड़ हमने देखी उससे बचा जा सकता था।
दूसरी तरफ अगर जमीनी स्तर पर सूचना- तंत्र सही से काम करता तो सूचना माध्यमों से सरकार तक भी सटीक जानकारी पहुंच पाती कि जमीन में क्या हालात हैं। संभव था इस तरह सरकार के निर्णय में ज्यादा सटीकता और दूरदृष्टि दिखाई देती।
लेकिन सामान्य व्यक्ति के लिए उसके टीवी चैनल, अखबार, व्हाट्सएप और फेसबुक में आ रही सूचना के बीच में यह अंतर कर पाना बहुत मुश्किल है कि कौन सी सूचना है और कौन प्रायोजित प्रोपेगेंडा। इस तरह से अफवाहों का बाजार गर्म है। सूचना के इस युग में इंफॉर्मेशन प्रोसेस या सही सूचना को निकाल पाना सच में बहुत कठिन काम है। सामान्य व्यक्ति के लिए तो बहुत ज्यादा मुश्किल।
पिछले 2 दिन से लगातार देख रहा हूं ठीक-ठाक पढ़े लिखे लोग भी सूचनाओं की जगह झूठी और पुरानी खबरों को एक समुदाय को टारगेट करने के लिए लोगों के बीच में फैला रहे हैं। जैसे कि एक पुराना वीडियो है जिसमें कुछ लोग जूठी़ प्लेट चाट रहे हैं। इस वीडियो को यह कहते हुए सर्कुलेट किया जा रहा है कि यह कोरोना संक्रमण फैलाने कि मुस्लिम जिहादी साजिश है ।
इसी तरह से 2018 का मुंबई का एक वीडियो है जिसमें पुलिस की वैन में कुछ लोगों और पुलिस के बीच में झड़प हो रही है। इस वीडियो को वर्तमान संदर्भ में यह कहते हुए दिखाया जा रहा है कि ज़मात के लोगों ने पुलिस के ऊपर कोरोना संक्रमण फैलाने के लिए थूका है। फे़क न्यूज़ को पकड़ने वाली अल्ट न्यूज़ (Alt News) वेबसाइट पर देखने से यह पता चला कि दोनों फे़क न्यूज़ हैं और एक विशेष उद्देश्य से लोगों के बीच में सर्कुलर की जा रही हैं। हद तो तब हो गई जब एक न्यूज़ वेबसाइट ने यह सूचना अपने फेसबुक हैंडल से लोगों के बीच में फैलाई और मुझे हस्तक्षेप करते हुए अल्ट न्यूज का लिंक भेजना पड़ा, तो उस न्यूज़ पोर्टल ने धन्यवाद दिया।
लगभग एक दशक तक जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय (JNU) और एक साल भारतीय जनसंचार संस्थान (IIMC) में छात्र के रूप में सूचनाओं के इस कारोबार और इस तंत्र को कुछ समझा है। अन्यथा मैं भी सामान्य जनों की तरह अपने फेसबुक और व्हाट्सएप में आ रही इन सूचनाओं को ही अंतिम सच मान लेता। इसीलिए पिछले 2 दिन से एक समुदाय विशेष को चिन्हित कर हमला करने की रणनीति से फैलायें जा रहे इस प्रोपेगंडा में शामिल लोगों के प्रति मेरे हृदय में कुछ कटुता थी। लेकिन रात भर सोचने के बाद मुझे़ लगा कि मुझे उन लोगों की स्थिति को समझना चाहिए। इतने व्यापक सूचना तंत्र के सामने उन लोगों से सही सूचना पहचानने की उम्मीद करना शायद नाइंसाफी है।
तो आखिर ऐसे हालातों में सही सूचनाएं कैसे प्राप्त की जा सकती हैं। जब लगभग यह तय हो चुका है कि यह संकट हमारी पीढ़ी के सामने आया सबसे भयानक संकट है। जो सिर्फ वायरस संक्रमण से लोगों को नहीं मारेगा, बल्कि बहुत सारे लोग भूख- कुपोषण से मर जाएंगे। संक्रमण की छुआछूत प्रवृत्ति के कारण भी समाज में एक अलग तरह के अलगाव के लक्षण भी दिख रहे हैं।
अगर लंबे समय तक लॉक-डाउन रहता है तो यह उम्मीद है कि देश के कुछ इलाकों में भुखमरी जैसे हालात भी हो सकते हैं । जिसके कारण कानून व्यवस्था के लिए बहुत बड़ा चैलेंज हो सकता है। हमने देखा है अफ्रीका के बहुत सारे देशों में खाद्य दंगे होते रहते हैं। जिनमें लोग खाद्य पदार्थों की उपलब्धता ना होने पर समुदाय में अराजकता पर उतर जाते हैं। इन भयानक हालातों में यह जरूरी है कि सूचना तंत्र सही से काम करें। यह सिर्फ नागरिकों के लिए जरूरी नहीं है बल्कि देश में कानून का शासन लागू करने और समाज और राष्ट्र को सही तरीके से चलाने के लिए भी आवश्यक हो चुका है।
तो सवाल ये उठता है ऐसे हालातों में हमारे पत्रकार कैसे काम कर रहे हैं। सरकारें लोगों तक सही सूचनाएं कैसे पहुंचा रही है।
अंग्रेजी अखबार हंटिंग्टन पोस्ट की एक रिपोर्ट के अनुसार कल स्वास्थ्य सचिव लव अग्रवाल की प्रेस कॉन्फ्रेंस में सिर्फ दो संस्थानों के पत्रकार को ही सवाल पूछने दिया गया। दूरदर्शन (DD News) और ANI के संवाददाता। आखिर ऐसा क्यों?
होना तो यह चाहिए था कि ज्यादा से ज्यादा सवाल पूछने का विकल्प हमारे संवाददाताओं और पत्रकारों को दिया जाता। क्या पता उससे ही इन अधिकारियों को जमीनी हालात के बारे में ज्यादा अच्छी तरह से पता चलता। क्योंकि पत्रकारों का एक बहुत बड़ा सूचना नेटवर्क होता है। दुनिया भर में यह एक स्थापित प्रैक्टिस है।
खोजी और वैकल्पिक पत्रकारिता करने वाली न्यूज़ पोर्टल “कारवां” ने अपने पोर्टल पर इस बाबत एक हैरान करने वाली खबर छापी है। इस खबर में यह बताया गया है कि 21 दिन के लाँक-डाउन से पहले प्रधानमंत्री ने प्रमुख न्यूज़ संस्थानों के प्रमुखों की एक मीटिंग करी। जिसने उन्हें निर्देश दिया गया कि वह सकारात्मक खबरों को छापे और सरकार के वर्जन को ही प्रमुखता दे। अपने विश्लेषण में कारवां पत्रिका ने बताने की कोशिश की है कि भारत सरकार ने प्रमुख न्यूज़ आउटलेट्स को बता दिया गया है कि कोरोना के मामले में सरकार की आलोचना सहन नहीं की जाएगी।
आपको यह अजीब नहीं लगता। अगर आलोचनात्मक खबरों को जगह नहीं मिलेगी तो सरकार के अधिकारी व नीति-निर्माता जनता की समस्याओं को कैसे जानेंगे?
इसी बीच 2 अप्रैल को दुनिया के सबसे प्रतिष्ठित अखबारों में से एक “द न्यूयॉर्क टाइम्स” ने इस मामले में मोदी सरकार की मीडिया नीति को लेकर एक आलोचनात्मक लेख लिखा है जिसका शीर्षक है “मोदी के भारत का प्रेस स्वतंत्र नहीं है” (“Under Modi, India’s Press is not so free Anymore”, The New York Times, 2 April 2020 )
इसकी शुरुआत केरल से की गई है। जिसमें लिखा है कि एक मलयालम न्यूज़ चैनल को भारत सरकार के सूचना प्रसारण मंत्रालय ने इसलिए 48 घंटे के लिए ब्लॉक कर दिया गया क्योंकि उसने अपनी खबर में फरवरी के दिल्ली दंगों पर दिल्ली पुलिस और R.S.S पर सवाल उठाए थे। इस चैनल के संपादक आर. सुभाष ने कहा कि 2014 में मोदी के सत्ता में आने के बाद सरकार ने प्रसारण को नियंत्रित करने की कोशिश की है। ऐसा आज तक भारत के किसी प्रधानमंत्री ने नहीं किया।
अखबार का मानना है कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने मीडिया को एक ऐसे व्यक्तित्व का निर्माण करने के लिए तैयार किया है जो मोदी को राष्ट्र के निस्वार्थ उद्धारक के रूप में चित्रित करता हो।
न्यूयॉर्क टाइम के अनुसार सरकार की आलोचना करने वाले मीडिया आउटलेट्स पर सरकार ने अलग-अलग तरह से नियंत्रण किया है। जिसमें मालिकों द्वारा संपादकों को बर्खास्त करना, मीडिया आउटलेट्स के सरकारी विज्ञापन की कटौती, उन पर कर अधिकारियों की जांच बैठा देना, आदि शामिल है।
इस रिपोर्ट के अनुसार कोरोना महामारी के दौरान मोदी सरकार मीडिया की कवरेज को और अधिक नियंत्रित करने के प्रयास और कठोर ढंग से कर रही है। इसके लिए बहुत सारे मीडिया संस्थानों ने सरकार के साथ चलने का मन बना लिया है। जब लाँक-डाउन के बाद लगभग 5 लाख प्रवासी मजदूर रास्तों में फंसे हुए थे उस दौरान मोदी सरकार ने भारत की न्यायपालिका और मीडिया संस्थानों को सरकार के आधिकारिक वर्जन चलाने को मनवां लिया।
न्यूयॉर्क टाइम्स ने अपनी रिपोर्ट में लिखा है कि उसके एक सहयोगी पत्रकार ने जब भारत के सूचना प्रसारण मंत्रालय से दो हफ्तों पहले सरकार की मीडिया नीतियों पर बात करने के लिए समय मांगा तो प्रकाश जावड़ेकर शुरुआत में सहमत हुए। लेकिन अब 2 हफ्ते बाद जावड़ेकर जी ने किसी भी प्रश्न का उत्तर देने से इंकार कर दिया। सूचना मंत्री, प्रकाश जावड़ेकर जी ने लिखित सवालों का जवाब देने से भी मना कर दिया।
सूचनाओं की विश्वसनीयता का यह संकट तब है, जब भारत के “मीडिया की दुनिया” शायद पूरे विश्व में सबसे व्यापक है। भारत में 17000 से ज्यादा अख़बार, एक लाख से ज्यादा पत्रिकाएं, 178 टेलीविज़न न्यूज़ चैनल और अनगिनत वेबसाइट अलग-अलग भाषाओं में चल रही है। इसके अलावा हजारों फेसबुक पेज और यूट्यूब न्यूज़ bulletin से भरा हुआ है।
न्यूयॉर्क टाइम्स के तीन पत्रकारों की इस रिपोर्ट में लिखा है कि श्री नरेंद्र मोदी के मंत्रियों ने स्वतंत्र मीडिया के पर काटने के लिए बिजनेस लीडर्स पर दबाव डाला है। मोदी सरकार ने मीडिया मालिकों पर यह दबाव डाला है कि वह प्रधानमंत्री और उनके काम की आलोचना करने वाले पत्रकारों की अपने संस्थानों से छुट्टी कर दे।
अखबार के अनुसार श्री मोदी के पास ऑनलाइन trolls की एक बहुत बड़ी आर्मी है, जो स्वतंत्र पत्रकारों को इंटरनेट पर गालियां देते हैं और महिला पत्रकारों को रेप की धमकियां। श्री मोदी और उनके मंत्रिमंडल के सहयोगी किसी तरह की पब्लिक आलोचना को सहन नहीं करते। चाहे वह कोई बिजनेस एग्जीक्यूटिव करें, विदेशी नेतृत्व या स्कूल के बच्चे। इसीलिए ज्यादातर भारतीय समाचार आउटलेट्स यह ध्यान देते हैं कि उनकी खबरें प्रधानमंत्री के विरोध में न जाएं और सरकार की हर नीति का समर्थन उन्हें करना है। इसके लिए वह पत्रकार अपने आप को खुद ही सेंसर करते हैं अन्यथा उन्हें राष्ट्र विरोधी होने का डर हमेशा सताता है।
अखबार मीडिया स्वतंत्रता के मामले में भारत की आलोचना करते हुए कहता है कि जहां मोदी भारत को दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र के रूप में देखते हैं वही “रिपोर्टर्स विदाउट बॉर्डर्स” के “प्रेस स्वतंत्रता सूचकांक” में भारत 180 देशों में से प्रेस की आजादी के मामले में 140 रैंक पर है।
इसी बात को रेखांकित करते हुए लंदन स्कूल ऑफ़ इकोनॉमिक्स में मीडिया प्रोफेसर शकुंतला कहती हैं पिछले 6 सालों में भारतीय मीडिया बहुत बुरे हालात में है और इसकी रिपोर्टों में भारत की विशाल आबादी की सच्चाई नहीं दिखती।
न्यूयॉर्क टाइम्स की रिपोर्ट में यह भी दिखाया गया है कि कैसे मोदी सरकार एनडीटीवी (NDTV ) के पिछे़ कैसे हाथ धोकर पड़ी है। जिसका मुख्य कारण NDTV द्वारा 2002 गुजरात दंगों के दौरान नरेंद्र मोदी की भूमिका पर सवाल उठाना है। प्रधानमंत्री बनने के बाद नरेंद्र मोदी और उनके शासन ने NDTV के खिलाफ पूरी तरह से हमला बोल दिया। जिसमें टैक्स रेड, NDTV के प्रमोटर्स के खिलाफ कार्रवाई जैसे कदम शामिल हैं। इसका असर यह हुआ कि NDTV के संसाधनों पर बुरा असर पड़ा है, उसे राज्य और केंद्र की तरफ से मिलने वाले एडवर्टाइजमेंट पर रोक लगा दी गई ।
इस रिपोर्ट में द न्यूयॉर्क टाइम्स ने यह बताया है कि छोटे-छोटे शहरों के पत्रकारों को भी सरकार के हमले का शिकार होना पड़ा है। जिसके कारण लोगों तक जमीनी सच्चाई नहीं पहुंच रही है।
यह देखना दिलचस्प होगा की कोरोना से लड़ रहा देश इस समय सही सूचनाएं कैसे प्राप्त करेगा। या नोटबंदी की तरह लोगों की परेशानियां ढ़क दी जाएंगी और उसकी जगह कोई नया नेरेटिव चला दिया जाएगा।
डाँ कमलेश अटवाल
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