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अब फिर कभी आना होगा- कोरोनावायरस के दौरान पलायन

अब फिर कभी आना होगा,
जब हालात सुधर जाएँगे,
ये शहर बिखर जाएँगे,
जब जर्जर होंगी ये दीवारें घर की,
उड़ जाएंगी ये छतें सर की,
जब बड़ी बड़ी इमारतों का रंग फीका पड़ जाएगा,
ये घरों के पास पड़ा कचरा सड़ जाएगा,
जब उठने को ईंटें देखेगी राह हमारी,
पैसे लिए हाथ में जोहोगे बाट हमारी।
जब बन्द नालियों की गंदगी बहेगी सड़को पर,
बिन रिक्शे ही चलोगे उन्हीं सड़को पर।
जब सड़के भी गढ्डों से भर जाएंगी,
गढ्डों से गाड़ी की सस्पेंशन मर जाएगी,
फिर गाड़ी सही करवाने मिस्त्री के पास जाओगे,
और मिस्त्री न मिलने पर हताश वापस आओगे,
जब घर की सफाई करने से थक जाओगे,
सारे काम खुद से कर के पक जाओगे,
जब कपड़ों का मैल, तुम्हारे मैले मन बराबर होगा,
आपस में लड़कर जब टूटने को ये घर होगा,
जब नुस्खे पूछने-बताने और चप्पल से नजर उतारने ढूंढोगे किसी को,
जब बाँटने नहीं होगा कोई इस तरक्की की खुशी को,
जब सारे मसाले डालने पर भी खाना बेस्वाद होगा,
बच्चों को सम्भालने पर घर में उत्पात होगा,
जब इन घरों के आधार और दीवारों में दरार आ जाएगी,
तब परेशान होकर फिर तुम्हें हमारी ही याद आएगी

हम फिर भी लौट आएं अगर सेवा में,
तो ये भी बताना ओ साहब,
जब भूख से मर रहे थे हम, तब कहाँ थे आप?
क्या आपने हमारे छोटे बच्चों के बारे में सोचा था?
जब जब बच्चा भूख से बिलख कर रोता था,
हमने पानी उसको ‛खिलाया’ है
और पसीने से उसको नहलाया है।
जब अपाहिज बीवी को सर पर उठाया था,
इस पितृसत्ता को सूली पर चढ़ाया था,
जब आप कसरत कर के खाना पचा रहे थे,
तब हम भूखों को पुलिसवाले डंडे मारकर भगा रहे थे।
बस पूछने थे आपसे यही सवाल,
काश आपने भी पूछे होते हमारे हाल।

लेकिन हम फिर भी लौटेंगे इन्हें बनाने,
आपके मकानों को फिरसे घर बनाने,
और इस आशियाँ को फिरसे सजाने,
फिर ये बिखरे शहर भी सँवर जाएंगे,
हम भूखे मरे थे जो इस महामारी में,
इसे भूल कर हम फिर मुस्कुराएंगे,
हम फिर जहाँ से मजबूर गए थे
जहाँ से निकाले गए थे,
वही पर लौटकर आएंगे।
तुम फिर से बनाना रिश्ते वही,
काका – काकी, आंटी, भैया, कहना सभी,
हम फिर तुम पर भरोसा कर लेंगे,
तुम्हारे इशारे पर, अपनी जान भी फना कर देंगे,
तुम्हारे गैरों जैसे सितम को हम जी लेंगे,
इस बेवफा शहर का,
हम फिर बफा से जहर पी लेंगे।

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