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करोना नहीं था..

करोना नहीं था..

कुछ दिनों पहले तक ..

हम अपनी-अपनी दुनिया में..

कितने मस्त थे, व्यस्त थे..

काफी हद तक स्वस्थ्य थे..

बहुतों के पास दो जून की रोटी थी.. 

तो कुछ, बर्गर पिज़्ज़ा का..

दिखावा करते-करते नहीं अघा रहे थे..

कुछ फटे-पुराने कपड़ों में जीवन जी रहे थे.. 

तो कुछ फटे हुए महंगे कपड़ों की.. 

सोशल-मीडिया पर नुमाईश करते नहीं थक रहे थे..

किसी को थोड़े से सुख में भी सब्र था..

तो कुछ अपने सुखों का घमंड कर रहे थे..

कुछ सीनाज़ोरी में व्यस्त थे..

तो कुछ भ्रष्ठाचार में संलिप्त थे..

कुछ झूठी भक्ति के आडम्बर रच रहे थे..

तो कुछ शादियाँ-पार्टियाँ कर रहे थे..

वो दिन कुछ ऐसे थे की.. 

आगे बढ़ने की इस रेस में..

अपने परिवार के लिए भी..

समय का आभाव था..

सबको एक दूजे से बस उपरी लगाव था..

कोई बिना मतलब के किसी को पूछता नहीं था..

इतने मसरूफ थे जिंदगी की आपाधापीयों में..

की आराम करने तक का भी वक़्त नहीं था..

रिश्तों की कद्र उतनी नही थी..

ज़िंदगी जैसे मुफलिसी में चल रही थी.. 

समाज का कचरे ढ़ोने वाले बेचारे..

सफाई कर्मियों की हालत खस्ता हो रही थी..

रेस्तरां, मॉल, पब, बार, घर बन गये थे..

घर एक सराय बन कर रह गया था..

माँ की मिस्सी रोटियों को भूल हम..

सड़कों पर चिकन-बिरयानी चख रहे थे..

बाबा-दादी के दुलार और ज्ञान से दूर..

सड़कों पर बड़ी-बड़ी गाड़ियां उड़ा रहे थे..

पापा की लाइब्रेरी में बैठ कर भी..

मोबाइल पर अपनी आँखे गड़ा रहे थे..

जवानी को नशे में डूबा रहे थे और…

बचपन को जवानी के करतब सिखा रहे थे..

लोग सामने रह कर भी, ऑनलाइन बतिया रहे थे..

अपने चाहे हमसे बातें करने के लिए तरसते रहे पर..

हम पूरा दिन सारी रात सोशल मीडिया पर..

इश्क्बाज़ियों की क्लासेज लगा रहे थे..

टिमटिमाते तारों की प्राकृतिक खूबसूरती को छोड़..

सेल्यूलॉइड के अभिनेताओं को सितारा मान रहे थे..

सारे नैतिक मूल्यों को भूल कर..

दिखावे की इस दौड़ में अव्वल आ रहे थे..

लेकिन आज, आज सब बदला-बदला सा है..

महा-शक्तियों का घमंड ढ़र्रे पर जा रहा है..

पल का भरोसा नहीं, सभी की अक्ल में आ रहा है..

बड़ी-बड़ी डींगे हाकने वाले, आज खामोश हैं..

सभी को आज अपने किये पापों पर रोश है..

इंसान आज अपने घरों में बंद है..

तभी सड़कों पर जीव और हमारी प्रकृति स्वछंद है..

साफ़-सफाई आज हमारे दिनचर्या की ज़रूरत है..

अब लोग समझने लगे हैं की प्रकृति बहुत खूबसूरत है.. 

अब तो सदा ऑनलाइन रहने वाले इंसान को भी..

मोबाइल थका रहा है, फूटी आँख नहीं सुहा रहा है..

ओजोन का छिद्र अब भरने लगा है..

इंसान अब कुदरत के दंड से डरने लगा है..

आज न सिर्फ डॉक्टर्स देश के सिपाही बन..

लोगों की जान बचा रहे हैं..

बल्कि सफाई-कर्मी भी अपनी कर्मठ वीरता से..

फूलों की बारिश में नहा रहे हैं..

भंडारे-लंगर की परम्परा वाले इस देश में..

आज हर संपन्न घर एक मंदिर अथवा गुरुद्वारा है..

कोई भूखा न रहे इसलिए पूरा देश सेवा भाव निभा रहा है..

महामारी के इस विकट दौर में सिर्फ भगवान ही नहीं..

आज इंसान भी, इंसान का सहारा है…!!

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