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क्या भारत की अर्थव्यवस्था कोरोना संकट से ऊबर पाएगी?

कोरोना की दोहरी मार

कोरोना की दोहरी मार

कोरोना संक्रमण का जन्म कैसे हुआ इस पर अभी मतभेद है लेकिन कहा हुआ ये सबको पता है। कोरोना संक्रमण की शुरुआत में चीन अगर इसे छिपाने की कोशिश नहीं करता तो शायद इतने बड़े पैमाने पर पूरे विश्व को इसकी दोहरी मार नहीं झेलनी पड़ती।

अभी भी चीन की सरकार कोरोना से होने वाली मौतों का आंकड़ा छिपा कर इस पर जल्दी काबू पा लेने का ढोंग कर रही है। कोरोना को जिस देश की सरकारों ने शुरूआती दिनों में गंभीरता से नहीं लिया उन देशों को  भारी नुकसान झेलना पड़ा है।

चाहे इटली हो या ईरान, जापान और अमेरिका इन सब देशों को भारी तबाही झेलनी पड़ी है। कोरोना वायरस के संक्रमण से अब तक लाखों लोगों की मौत हो चुकी है।

पूरा विश्व बढ़ रहा है आर्थिक मंदी की ओर

इस संक्रमण ने मानवीय क्षति के साथ-साथ पूरे विश्व को आर्थिक मंदी में झोक दिया है। भारत की अर्थव्यवस्था में पिछले 8 तिमाही से लगातार गिरावट हो रही थी। लगभग सभी सेक्टर में मंदी के काले बादल छाये हुए थे।

आर्थिक व्यवस्था चरमरा गई थी। जीडीपी 4.5 प्रतिशत पर आ गयी थी नौकरियों के लिये हाहाकार मचा हुआ था। बेरोजगारी अपने चरम पर थी जिनके पास नौकरियां थीं, उनकी नौकरियां भी जा रही थीं।

कोरोना ने भारत ही नहीं पूरे विश्व मे मंदी की स्थिति पैदा कर दी है। कोरोना के कारण एक ऐसी तस्वीर उभर कर सामने आ रही है जिससे वैश्विक मंदी आना तय माना जा रहा है।

हालांकि इसका असर भारत की अर्थव्यवस्था पर ज़्यादा पड़ेगा क्योंकि भारतीय अर्थव्यवस्था पहले से ही मंदी के संकट से घिरी हुई थी।

कोरोना संकट के पहले भी भारतीय अर्थव्यवस्था की हालत थी खराब

कोरोना की शुरुआत से पहले अनुमान लगाया जा रहा था कि भारत की आर्थिक दर 5 प्रतिशत की दर से बढे़गी लेकिन कोरोना संकट से ग्लोबल इकोनॉमी में दो से तीन फीसदी गिरावट आने से इसका सीधा असर भारत की अर्थव्यवस्था पर पड़ेगा।

इस स्थिति में भारत के वर्तमान आर्थिक वृद्धि में 2 से 3 प्रतिशत तक की कमी आ सकती है। भारत की अर्थव्यवस्था पहले से ही मंदी की मार झेल रही थी और अब कोरोना संकट ने इसे धराशाही कर दिया है।

इसलिए अब अर्थव्यवस्था को तिनकेे के सहारे जैसे आर्थिक पैकेज से कुछ नहीं होगा। इसे भरपूर सहारा और नियत यानि आर्थिक बदलाव (इकोनामी रिफार्म)  की ज़रूरत है।

कोरोना संकट विश्व के लिए साबित हो सकता है मंदी का सबसे बुरा दौर: अर्थशात्री

कोरोना के कहर से दुनिया भर की अर्थव्यवस्था के बारे में तमामा अर्थशास्त्री और रेटिंग एजेंसियां कह रही हैं कि ये मंदी 1929-1930 के मंदी (द ग्रेट डिप्रेशन) से भी भयंकर और भयावह मंदी होगी।

इसमें लगभग 170 देश की विकास दर नकारात्मक रह सकती है। अगर भारत की बात करें तो यहां  की सबसे बड़ी मंदी 1990 की मंदी से भी ज्यादा गहरा असर भारतीय अर्थव्यवस्था पर पड़ेगा।

असंगठित क्षेत्र के मजदूरों के साथ मध्यम वर्ग पर भी गिरेगी गाज

कोरोना की वजह से सबसे ज्यादा असर असंगठित क्षेत्र पर पड़ा है। इस क्षेत्र में लगभग 40 करोड़ लोग जो दिहाड़ी मजदूर थे, शहरों से गाँवों की ओर पलायन कर रहे हैं वो बेरोजगार हो गये हैं।

फिलहाल वे लॉकडाउन की वजह से अपनी छोटी-मोटी जमा की हुई धनराशि या उधार लेकर जीवन-यापन कर रहे हैं। इससे उनके ऊपर कर्ज बढ़ रहा है जिससे वो  तेजी से गरीबी की ओर बढ़ रहे हैं।

इसके बाद अब मध्य वर्ग यानी मझली व बडी कंपनियों के कर्मचारी बेकारी की कतार में शामिल होंगे क्योंकि मझोली और बड़ी कंपनियां व्यापार में घाटा कम करने के लिए छटनी और कटौती करेंगी।

इससे ये संकट आर्थिक रूप से और गहराता चला जायेगा। इस संकट से लगभग भारतीय अर्थव्यवस्था को 40 लाख करोड़ का नुकसान  होगा।

मीडिल क्लास जो सदैव उत्सव मुद्रा में रहते थे पगार कटने या नौकरी जाने से घर में बेचैन हैं। उधर बैंकों की बेचैनी भी बढ़ी हैं कि अब मकान-कार की कि‍श्तें टूटेंगी जिससे उनका घाटा यानी एनपीए बढे़गा। इससे बैंकों की वित्तीय स्तिथि भी बिगड़ेगी।

अर्थव्यवस्था में आ सकती है मोनोपोली

जब भी किसी अर्थव्यवस्था में मंदी आती है तो उसके बाद अर्थव्यवस्था में मोनोपोली हो जाती है क्योंकि छोटे और मझोले उद्योग टूट जाते हैं या कहे कि बंद हो जाते हैं। इसके बाद बड़ी कंपनियो की मोनोपोली हो जाती है।

ठीक उसी प्रकार जब 1990 में भारत में आर्थिक मंदी आई तो विस्तृत रूप से बड़े पैमाने पर आर्थिक सुधार किए गए और देश में तेजी से आर्थिक रूप से वृद्धि हुई। बाज़ार में प्रतिस्पर्धा में भी तेजी आई और देश में 30 वर्षो में लगभग 40 से 50 करोड़ भारतीय गरीबी रेखा से ऊपर आये थे।

ऐसे ही 2008 की वैश्विक आर्थिक मंदी में अमेरिका की बैंकिंग प्रणाली के कमियों के कारण बैंक दिवालिया हो गये थे। इसके बाद बहुत से देशों ने अपने वित्तीय और बैंकिंग ढांचे में सुधार कर लिया, वो आज सुचारु रूप से चल रहे हैं। वहीं जिन बैंकों ने अपनी प्रणाली में कोई सुधार नहीं किया वो आज भी लड़खड़ा रहे हैं और डूब रहे हैं।

नए सिरे से करनी होगी शुरूआत

अब इस आपदा के बाद से देश को एक नए सुधार के साथ अर्थव्यवस्था की शुरुआत करनी चाहिए क्योंकि यही बदलाव का सही समय है। आपदाओं के दौरान में नीतियों  में बदलाव होते हैं। ऐसे में उस बदलाव के अनुसार देश को ढालकर नई शुरुआत करनी चाहिए।

इससे देश उस आपदा के असर से जल्दी बाहर आ सकेगा। इस आपदा ने हमें आर्थिक रूप से लगभग शून्य कर दिया है बेरोजगारी चरम पर है। लगभग आधी आबादी बेरोजगार है या बेरोजगारी के कगार पर है।

पूरा असंगठित क्षेत्र और छोटे मझोले कारोबारी टूट चुके हैं, इसलिए इस समय देश को बड़े आर्थिक नीतिगत बदलाव की ज़रुरत है जो इस आपदा से उबारकर फिर उसी रफ्तार में अर्थव्यवस्था को पटरी पर दौड़ाने लगे।

लॉकडाउन में देश की अर्थव्यवस्था को हो रहा है भारी नुकसान

एचडीएफसी की रिसर्च रिपोर्ट बताती है कि 21 दिन के लॉकडाउन से  भारतीय अर्थव्यवस्था को दस लाख करोड़ का नुकसान हुआ है।

वहीं आईएलओ की रिपोर्ट कहती है कि 21 दिन के लॉकडाउन से  लगभग 40 करोड़ असंगठित श्रमिक बेकार हो चुके हैं।  इन 40 दिनों के  लॉकडाउन के दौरान भारतीय अर्थव्यवस्था  को 20 से 40 लाख करोड़ का नुकसान हुआ है।

अब लॉकडाउन बढ़ जाने से मध्य वर्ग यानी मझोली व बडी कंपनियों के कर्मचारी बेकारी की कतार में शामिल हो जायेंगे।

लॉकडाउन के बाद रोजगार और बाज़ार के हालात होंगे पहले से अलग

अब अंदाजा लगाया जा रहा है कि 3 मई के बाद जब लॉकडाउन खुलेगा तो रोजगार, कमाई और बाज़ार में कुछ भी वैसा नहीं रहेगा जैसा कि लॉकडाउन  से पहले मार्च में था। इसलिए सरकार को अर्थव्यवस्था को संभालने की ज़रुरत है।

यह वक्त भारत की अर्थव्यवस्था के सेहत के साथ यह भी देखने का है क‍ि इस गाढे़ वक्त में सरकार की तैयारियां क्या हैं?

क्या है भारत में कोविड-19 के जांच की सच्चाई 

मोदी जी दावा कर रहे हैं कि जब कोरोना का एक भी केस नहीं था तब से ही विभिन्न एअरपोर्ट्स पर स्क्रीनिंग शुरू कर दी गयी थी लेकिन सवाल ये है कि वो कितनी गंभीर और सार्थक रही।

अगर ये सच है कि जब एक भी केस नहीं था तब से स्क्रीनिंग हो रही है तो फिर मोदी जी को ये बताना चाहिए कि कोरोना हमारे देश में कैसे आया या तो मोदी जी झूठ बोल रहे हैं?

जब कोरोना का एक भी केस देश में नहीं था तब से ही एअरपोर्ट्स पर स्क्रीनिंग हो रही थी या हमारे अधिकारी इतने लापरवाह थे की उन्होंने गंभीरतापूर्वक जांच ही नहीं की।

अब सरकार को इस सवाल का जबाब देना चाहिए कि सच क्या है अगर पहले दिन से जब कोरोना का एक भी केस नहीं था तब से ही एअरपोर्ट्स पर स्क्रीनिंग हो रही थी तब कोरोना कैसे आया और कौन लेकर आया?

भारत में कितने है कोरोना जांच केंद्र और क्या है उनकी स्थिति?

भारत में लॉकडॉउन के 30 दिन से अधिक हो जाने पर भी 720 जिलों के लिए केवल 219 कोरोना टेस्ट सुविधायें हैं। यानी तीन-चार जिलों के बीच केवल एक टेस्ट लैब बन पाया है।

यदि कोरोना का नियंत्रण तेज और सामूहिक जांच पर निर्भर है तो सरकार को किस चीज की कमी थी कि एक माह में हर जिले में एक परीक्षण लैब तक नहीं बना सकी? ऐसे में सवाल उठता है कि 15000 करोड़ रुपये का हेल्थ पैकेज कहां और कैसे खर्च हो रहा है?

जब हम मास टेस्ट ही नहीं कर पा रहे हैं तो पता कैसे चलेगा क‍ि खतरा कितना बढ़ा है? अभी तक सरकार लॉकडाउन के एक महीना पूरा हो जाने पर प्रति एक लाख लोगों में केवल 16 लोगों की ही कोरोना की जांच हुई है।

अभी प्रत्येक जिले में एक लैब भी नहीं है और भारत में कोविड-19 के जांच का औसत श्रीलंका, पा‍कि‍स्तान, ईराक से भी कम है तो फिर क्या भारत केवल लॉकडाउन पर निर्भर रहेंगा या टेस्ट की संख्या बढ़ाकर जोन वाइज़ इलाकों को कोरोना फ्री भी किया जाएगा?

मौत के बाद आई जांच रिपोर्ट

इस बीच उत्तर प्रदेश से विचलित कर देने वाली एक खबर आई है जिस पर तत्काल ध्यान देने की ज़रुरत है, क्योंकि यूपी में होने वाली मौतों में 5 की कोरोना टेस्ट रिपोर्ट उनकी मौत के बाद आयी है जो कि एक खतरनाक संकेत है।

इसमें कानपुर से एक  मरीज की मौत के बाद रिपोर्ट आयी की सैंपल पॉजिटिव है इसके बाद बस्ती, वाराणसी, बुलंदशहर और आगरा में भी यही हुआ था जो सरकार के कार्यप्रणाली और जांच के सिस्टम पर बड़ा प्रश्नचिन्ह है?

लॉकडाउन में नज़र आई अमीर और गरीब के बीच खाई

लॉकडाउन भारत की एक  ऐसी सच्चाई को सामने लेकर आया जिसका बहुत कम लोगो को अंदाजा था।लॉकडाउन ने बताया कि भारत की बहुत बड़ी आबादी ऐसी है जो रोज कमाती-खाती है। बिना रोजगार के उनके पास 21 दिन भी रह पाने की क्षमता नहीं है।

कोरोना ने एक बार फिर गरीबों और अमीरों के बीच की खाई को सबके सामने लाकर खड़ा कर दिया है। सरकार भी अमीरों का ही सुन रही है। गरीबों को कहीं-न-कहीं अनसुना करके दरकिनार किया जा रहा है।

इसका एक उदाहारण ये है कि सरकार अमीरों को विदेशों से लाने के लिए हवाई जहाज भेजती है, अमीरों के बच्चो के लिए सरकारी बस भेजती है लेकिन गरीब मजदूर लॉकडाउन की वजह से दर-दर भटक कर हजारों किलोमीटर पैदल चल कर घर जाने को मजबूर हैं।

सरकार केवल भाषण बाजी और झूठे प्रचार में व्यस्त है और जब तक इस संकट से निकलने के लिए कोई सार्थक काम नही होंगें, तब तक में देश का भला नहीं हो सकता है।

इस कोरोना संकट की घड़ी में देश को दोहरी मार झेलनी पड़ रही है। ये देश में जान-माल का काफी नुकसान कर रहा है। देश का आर्थिक नुकसान तेजी से बढ़ता जा रहा है।

फिलहाल इससे बचने का एक ही तरीका नज़र आता है कि जल्दी से जल्दी अधिकाधिक जांच करा कर संक्रमण को रोका जाए।

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