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कोरोना महामारी से क्या विश्व और भारत क्या सीख सकता है?

 

 

कोरोना महामारी से विश्व और भारत क्या सीख सकते हैं?

 

इसमें कोई शक नहीं कि भारत स्वास्थ्य, पोषण एवं शिक्षा के कई अन्तर्राष्ट्रीय मानकों पर विश्व की पिछड़ी सूची में आता है।  हालाकिं भारत दुनिया की तीन बड़ी अर्थव्यवस्थाओं में से एक गिना जाता हैै लेकिन प्रति व्यक्ति आय के मामले में भारत अभी भी दुनिया के निम्न मध्यम आय वाले देशों में आता है। सांख्यिकी और कार्यक्रम कार्यान्वन मंत्रालय के अनुसार, हमारे देश की प्रति व्यक्ति प्रति माह आय तक़रीबन सवा ग्यारह हज़ार रूपए मात्र है। उदारीकरण में हालांकि भारत ने अपने आर्थिक पक्षों पर मज़बूती से काम किया है। जिससे मातृ शिशु मृत्यु दर एवं प्राइमरी शिक्षा जैसे महत्वपूर्ण मानदंडों पर अनुकूल प्रभाव पड़ा है।

मानव सभ्यता के लिए बड़े लक्ष्यों को प्राप्त करना बाकि है

भारत की लोकतान्त्रिक सरकारों ने सामाजिक-आर्थिक मापदंडो पर सुधार हेतु लगातार काम किया है। कोरोना महामारी ने न सिर्फ भारत वर्ष बल्कि पूरी मानवता को यह साबित कर दिया है कि SDG के 17 संकल्पों के अलावा भी मानव सभ्यता के लिए काफी बड़े लक्ष्यों को प्राप्त करना बाकि है। कोरोना ने यह प्रदर्शित किया कि संवेदना और प्रेम ही वह उपाय है जिससे यह विश्व सही मायनों में एक मानवीय समुदाय बन सकता है। कोरोना महामारी हमारे सामने यह यक्ष प्रश्न रखती है कि क्या उदारीकरण का उद्देश्य विश्व को एक वैश्विक समुदाय बनाने का है या बाज़ार के आगे कुछ नहीं देख सकता? अंग्रेज़ी में इसे उदारीकरण का ब्लाइंड स्पॉट भी कह सकते हैं।

कोरोना की आर्थिक मार 2008 की वैश्विक मंदी से भी बड़ी है

पृथ्वी के जीवनकाल में सारी मनुष्यता एक साथ इतने बृहद रूप से अपने घरों में शायद ही कभी बंद हुई होगी। विशेषज्ञ बताते हैं कि इस महामारी की आर्थिक मार पिछले 2008 की वैश्विक मंदी से भी ज़्यादा होने का अनुमान है। पूरी सम्भावना है कि महामारी के खत्म होते ही विश्व फिर से उत्पादन और विपणन के अपने पुराने ढर्रे पर लौट जाएगा। दुनिया को यह खुद ही समझना होगा कि यही वह वक्त है जब वैश्विक समुदाय को एक साथ आकर सभी देशों और समाज की आर्थिक प्रगति के नए आधार तय करने चाहिए। 

ऐसे आधार जिनमें इस तरह की वैश्विक महामारी में आर्थिक प्रबंधनों का व्याकरण थोड़ा अलग हो। जहां ज़रूरत के समय किसी देश को किसी दूसरे देश से ज़रूरी दवा, किट और यहां तक कि स्वास्थ्य कर्मचारी के लिए बेरोक टोक आने जाने कि व्यवस्था बने। निजी अस्पतालों को भी प्रति बिस्तर खर्च के आर्थिक मापदंडों से जुड़े लाभ-हानि के गणित में मूलभूत बदलाव करने चाहिए। 

भारत में डॉक्टर और जनसंख्‍या का अनुपात मानकों से कम है

यह सच है कि भारत में डॉक्टर और जनसंख्या का अनुपात WHO के मानकों से काफी कम है और भारत की लचर स्वास्थ्य व्यवस्था के लिए भारत की सभी सरकारों को जितना भी दोष दिया जाए वह कम है। ऐसे में अगर हम अब भी अपने मूलभूत मुद्दों के विपरीत, देश के एजेंडे स्थापित करते रहेंगे तो फिर समझ लीजिए कि आपने इस महामारी से कुछ खास नहीं सीखा।

आने वाले समय में भारतीय लोकतांत्रिक व्यवस्था का सबसे बड़ा इम्तेहान यही होना चाहिए कि कैसे वह इस संसाधनविहीन व्यवस्था को ठीक करती है। आज भी देश का दो तिहाई मानस गांव-देहात में ही बसता है और उनके लिए जिस प्राथमिक चिकित्सा व्यवस्था का नियोजन सरकारों को करना चाहिए वह सिर्फ आयुष्मान भारत जैसे योजनाओं से होना संभव नहीं है। अब तक की भारतीय चिकित्सा व्यवस्था में ग्रामीण-शहरी भेद साफ ज़ाहिर होता है। हालांकि राष्ट्रीय चिकित्सा आयोग का गठन एक स्वागत योग्य प्रयास है लेकिन चिकित्सा अध्ययन को निजी हाथों में सौपने का परिणाम, निजी इंजीनियरिंग और प्रबंधन संस्थानों जैसा न हो जाए? ऐसा करने के लिए सरकार को न सिर्फ एक मज़बूत नियामक का कार्य करना होगा बल्कि देश के पिछड़े एवं गरीब छात्रों के लिए शिक्षा के ऐसी कई संस्थाओं का निर्माण में भी अपनी भूमिका स्थापित करनी होगी।  

जीवन मूल्य आधारित व्यवस्था ही एक मात्र विकल्प

लाभ आधारित आर्थिक व्यवस्था की जगह जीवन मूल्य आधारित व्यवस्था ही एक मात्र विकल्प है। साथ ही यह बात भी समझ लेनी चाहिए कि यहां बड़ी संख्या में स्वस्थ्य कर्मचारी की उपलब्धता सरकारी अनुदान व प्रयास के बिना संभव नहीं है। जब भारत विश्व की सबसे बड़ी सेना का वहन कर सकता है तो उसको जनसंख्या के अनुपात में स्वास्थ्य कर्मियों को रखना भी सीखना होगा। इसमें न सिर्फ डॉक्टर्स बल्कि नर्स, आंगनवाड़ी एवं आशा भी शामिल होनी ही चाहिए।  

शहर में मिलने वाली मज़दूरी इनके लिए गांव में जीने का ज़रिया है

भारत की जनसंख्या का एक बड़ा भाग आज भी अत्यंत गरीब है। इसके लिए आज भी अपनी जाति, समुदाय या बिरादरी के अलावा कोई और सुरक्षा तंत्र मौजूद नहीं हैं। सरकारी राशन अक्सर इनके बुरे वक्त का सहारा होता है। जी बात मज़दूरों की हो रही है, शहर में मिलने वाली इनकी मज़दूरी इनके लिए गांव में जीने का एक ज़रिया है।

बीते दिनों हमने शहरी क्षेत्रों से लॉक डाउन के दौरान पलायन करते हुए ऐसे ही बहुत सारे मज़दूरों को देखा है। शहरों की गरीब बस्ती में रहने को मजबूर ऐसे मज़दूर हैं जो शहरों को चलायमान रखने के लिए ज़रूरी श्रम देते हैं। जब काम नहीं होने के कारण पलायन को मजबूर यह वर्ग इस तालाबंंदी का सबसे बड़ा शिकार हुआ है। सिर्फ प्रत्यक्ष दिखने वाले गरीब मज़दूर समुदायों का यह हाल है तो हमारी आंखों से छिपे हुए मानवीय समूहों की इस वक्त कल्पना करना ही भयावह है। 

देश में लगभग 2 करोड़ अनाथ बच्चे हैं और पिछली जनगणना के हिसाब से डेढ़ करोड़़ से ज़्यादा बुज़ुर्ग अकेले ही जीवन यापन कर रहे हैं। इस महामारी का इन सभी समुदायों पर इस महामारी और इसके कारण लगी बंदी का क्या प्रभाव पड़ेगा यह तो वक़्त ही बताएगा लेकिन हम भविष्य में किस तरह से खुद को तैयार करते हैं यह हमारे समाज की सामूहिक समझ का एक आइना ज़रूर होगा। पुनः विश्व गुरु बनने की तमन्ना रखने वाले भारतीय समाज को मनुष्य कल्याण के मूल्यों को सबसे पहले अपने समाज में स्थापित करना होगा। इसके अतिरिक्त किसी और माध्यम से की गयी प्रगति अल्पकालिक ही साबित होगी। 

 

यह आलेख पहले यहाँ पर प्रदर्शित हुआ है।

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