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“तुम आज़ादी की तलाश में, और कितनी जंजीरें तोड़ोगे?”- एक कोरोनावायरस कविता

 

 

तुम आज़ादी की तलाश में,
और कितनी जंजीरें तोड़ोगे?
आज़ाद जो थे एक अरसे से,
काम में वक्त निकाला करते थे,
समुंदर से चंद बूंदे,
एक मर्तबान में सजाया करते थे,
दब कर ख्वाइशों के बोझ तले,
अपनी जंजीरों को तुम,
दिन-रात सँवारा करते थे।

अब वक्त मुनासिब है तो,
ये बेसब्री, ये फुर्सत, ये रोक-थाम तुम्हें खा रही हैं,
जिन चार दिवारी को तरसे ता-उम्र,
आज उन्हीं दिवारों में रहने से जान जा रही है?

चंद लोगों के कारण ही,
मरते हर दम लाख कई,
बनाई जो रोड़ें मजदूरों ने,
वहाँ भरी पड़ी हैं उन की ही लाश कई।
आज़ादी के मंजर हसीन लगते हैं,
जब जंजीरें बंध जाए पैरों में,
कश्मीर की याद आना मुनासिब है,
जब कश्मीर बन जाए कई शहरों में।
कुदरत ने बनाया सबको आधा है,
सिर्फ तुम्हें ही लगता है पूरे हो तुम,
भौतिकवादी कैदी हो तुम,
हमेशा से बेचैन और अधूरे हो तुम।

तुम आजादी की तलाश में,
और कितनी जंजीरें तोड़ोगे?
जिंदगी को जीना छोड़,
उसके कितने अर्थ ढूंढोंगे?
जिंदगी के सच को तुम,
कब तक अपने हिसाब से मरोडोगे?
तुम बेचैन परिंदे बनकर,
और कितने शहर छोड़ोगे?
जिंदगी के संघर्षों से,
अब कितनी दफा मुह मोड़ोगे?
तुम आजादी की तलाश में,
कितनी दफा खुद को पीछे छोड़ोगे?

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