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थर्ड वेव ऑफ़ माइग्रेशन( Third wave of migration)

थर्ड वेव ऑफ़ माइग्रेशन( Third wave of migration)

रोजगार बुनियादी जरूरत है। बुनियादी माने रोजी-रोटी हेतु दूसरी ओर सामाजिक स्वीकार्यता और सम्मान हेतु। रोजगार किस तरह का होगा ये आदमी क्या जानता है, क्या कर सकता पर लगभग पूर्णतया निर्भर है। हाल-फिलहाल कॅरोना संकट के मद्देनज़र जो देशव्यापी बंद सरकार ने किया, उसके उपरान्त देश के आर्थिक केन्द्र के रूप में स्थापित शहर Tier one, Tier Two शहरों से गाँवो की ओर भीषण पलायन हुआ। तमाम लोग अभी फँसे है।लोग पैदल घरों की तरफ निकल पड़े। संकट में पैतृक निवास ही याद आया। ये ‘थर्ड वेव ऑफ़ माइग्रेशन’ है। जो शहरों से गाँवों की तरफ हुआ है। स्थिरता कितनी मालूम नहीं। किन्तु नया सच है “थर्ड वेव ऑफ़ माइग्रेशन”

इस पलायन से स्पष्ट हुआ की सीमावर्ती गाँवो से हज़ारों मील दूर रोजगार के लिये एक बड़ा वर्ग निकलता है। रोजगार करता है, जो बचा पाया वो पैसा परिजनों के लिया भेज अपने कर्तव्यों की इतिश्री करता है। शहरों में फुटपाथ पर सोता है। तमाम अपमान झेलता तमाम अनिश्चितायें भी। इन सबके बीच परिवार को गाँव छोड़ शहर आता है। ज्यादा कमाने शायद।

इन सब के बीच सवाल ये है कि जब गाँवों में MNREGA जैसी सुनिश्चित रोजगार वाली योजना गाँवो में तामील है तब लोग पलायन कर बड़े शहरों की ओर कुछ क्यों करते है? ये भी गौरतलब है की मनरेगा के अलावा भी रोजगार के भी मौके है उनमे न्यूनतम मजदूरी फिक्स है। क्या इसके मायने ये हुये की बड़े शहरों की ओरे पलायन इसलिये है कि यहाँ न्यूनतम मजदूरी बहुत ज्यादा है? या जीवन स्तर बहुत बेहतर है। इसका विश्लेषण आगे जाते हुये करेंगे किन्तु समझिये की ‘थर्ड वेव ऑफ़ माइग्रेशन’ में चुनौतियाँ है। पलायित मजदूरों को रोजगार हेतु अब गाँव में रजिस्टर होना होगा। वोटर लिस्ट में नाम ऐड कराना होगा, राशन कार्ड बनवाना होगा। नए परिवर्तन से नयी चुनौतियाँ।

खैर चर्चा को आगे बढ़ाते है। जिन बिल्डर्स और ठेकेदारों की निगरानी में अधिकतर मजदूर बड़े शहरों में काम करते है। वो तीन और टट्टर से बानी झुग्गियों से ज्यादा मजदूरों को शायद ही कुछ दे पाते है। पलायित मजदूरों का रजिस्ट्रेशन भी कम बेहद कम होता है। जिससे मिल सकने वाली स्वास्थ्य, शिक्षा, राशन पानी की सुविधा भी नहीं पहुँच पाती। इसके इतर गाँवों में परिजनों का साथ है, जैसा भी सहीं अपना घर भी है, हर गाँव में शिक्षा हेतु सरकारी स्कूल है, ग्राम प्रधान के पास तमाम योजनाये है, मनरेगा के अलावा तमाम रोजगार और भी है जैसे खेतों में काम, मौसमी रोजगार जैसे गन्ने की मिलों में काम जैसे तमाम काम जो किये जाते रहे है किये जा सकते है। सबसे बड़ी सामाजिक पहचान भी है, सामाजिक स्वीकार्यता का संकट जरूरत कुछ केसेस में।

बिहार, UP, पश्चिम बंगाल, मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़ और तमाम अन्य जगहों से निकल, ट्रेन की सामान्य बोगियों में भूसे की तरह भरे लोग शहरों की ओर पलायन करते है। दूसरा पहलू ये भी है कि केरल, आँध्रप्रदेश, तेलंगाना, पँजाब से लोग विदेशों की ओरे भागते है। अपने शहरों में रोजी रोटी उपलब्ध होने के बाद भी। 1991 में तत्कालीन अर्थशास्त्री और वित्तमन्त्री मनमोहन सिंह ने जब भारत की ‘बन्द अर्थ व्यवस्था’ को ‘ओपन’ किया तब विकास की किरण एक आस गाँवों तक पहुँची गुजरते वक्त के साथ उसकी रोशनी बढ़ी और चकचौंध भी। रेडियो से टीवी और टीवी में दूरदर्शन से शुरू होकर बढे कई चैनेलो से रोशनी घर घर आयी। बाहर जाकर कमाने की प्रवृत्ति भी।

जब मैं कभी-कभी सोचता हूँ ऐसा क्यों? पलायन क्यों अपना सब छोड़ थोड़े से कुछ के लिये वो भी हज़ारो मेल दूर। तब मुझे एक जवाब देता है नीचे दिया गया चित्र। जिसे पढ़े लिखे लोग ‘Maslow Hierarchy of needs’ के नाम से जानते है।

रोजगार होने के बाद भी आदमी गाँव से शहर क्यों भागता है? गाँवों में एक बड़े तबके को कभी सामाजिक स्वीकार्यता नहीं मिली रसूखदारों के बराबर बैठने की, पीढ़ियों से चले आये इस मानसिक बोझ को नयी पीढ़ी ढोना नहीं चाहती। माने किसी व्यक्ति का नौकर बनकर उसकी बात सुनना गुलामी के अहसास बन्दिशें आदमी तोड़ देना चाहता है। यही उन लोगो पैट भी लागू होता जो देह छोड़कर विदेश भागते है।

इस सब के चलते जब बाहर नौकरी करता है। होली दीवाली जब गाँव आता है तब ‘Maslow Hierarchy of needs’ की Third Layer और fourth layer मानें ‘Psychological Needs’ के अहसास को बल मिलता है। जीन्स पहन कर जब लोगो से मिलने जुलने निकलता है तब सीना तानकर, विश्वास से भरा हुआ। बरस में एक आध बार मुलाकात होने पर गाँव के बड़े बुजुर्ग काम के बारे पूछ लेते है, हाल चाल भी, आदमी भी अपनी कमाई को बढ़ा चढ़ाकर बताता है। काम में मिलने वाली आज़ादी का भी वर्णन भी करता है। कुछ मिलाकर सामाजिक स्वीकार्यता का अहसास आदमी को ख़ुशी देता है। एक घर के दो चार भाई बाहर हुये तो घर में नयी ईंटे लगती है। एक जरूरत के नाते दूसरा दिखावे के नाते। ‘Maslow Hierarchy of needs’ की चौथी लेयर तक सिमट कर ही रह जाते है। पाँचवी तक कुछ लोग ही पहुँच पाते है। बहुत कम लोग। देश छोड़ विदेश जाने वाले अमूमन तीसरी लेयर से पाँचवी लेयर तक विचरण करते रहते है।

कॅरोना के दौरान देशव्यापी बंद में ‘Maslow Hierarchy of needs’ की सभी लेयर भरभराकर गिर पड़ी। सब कुछ आकर पहली लेयर यानी जमीनी हकीकत पर आकर सिमट गया। ये हकीकत आदमी की भी है यही हकीकत सरकारी दावों की भी है। जो विस्थापित मजदूरों के रजिस्ट्रेशन नहीं करते है। उसी तरह जैसे FIR न लिख कर अपराध काम दिखा दिये जाते है। उसी तरह मजदूरों का रजिस्ट्रेशन न कर जमीनी हकीकत और मजदूरों की मौलिक हक़ से मुँह फेर लेते है।

जब देश के प्रधान सेवक देशव्यापी बंद की घोषणा कर रहे है तब उन्हें इस बात का पूर्ण जानकारी राज्य सरकारों ने कभी दी ही नहीं थी। इस नाते उन्हें कभी ‘थर्ड वेव ऑफ़ माइग्रेशन’ होने की जानकारी या अहसास नहीं रहा होगा। राज्य सरकार मजदूरों के आँकड़ों में कितना हेर-फेर करती है ये बन्द से जाहिर हुआ। लेबर कमिशनर के ऑफिस से ये खेल शुरू होता है और “Interstate Migrant Workmen Act 1979” धूलचाट जाता है। नया एक और नया कानून बनता पुराना ख़ाक छानता है।

नोट: ये लेख उन लोगो की बात करता है जो बमुश्किल अपनी रोजी रोटी का जुगाड़ कर पाते है, पैतृक सम्प्पतियाँ ना के बराबर है सामाजिक स्वीकार्यता और सम्मान न के बराबर है। तमाम जानकारियाँ और सोच को सपोर्ट करने वाले आँकड़े मेरे अपने गाँव और उसके मजदूरो की सोच के आधार पर है।

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