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#MyPeriodStory: पीरियड्स और पैड्स

सैनिटरी नैपकिन्स पर लगाए गए GST को लेकर चल चल रहे विमर्श को देख कर सुखद अनुभूति होती है। अच्छा लग रहा है कि हमारा शिक्षक समाज़ भी अब ख़ुल कर सैनिटरी पैड्स और पीरियड्स जैसे मुद्दों पर फ़ेसबुक जैसे सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म पर ख़ुल कर लिख़ रहा है। मोदी जी ने टैक्स बढ़ा कर उचित तो बिल्कुल भी नहीं किया लेकिन उसका एक अच्छा पहलू ये जरूर रहा कि सैनिटरी पैड्स और पीरियड्स जैसे गंभीर और संवेदनशील विषयों पर शिक्षक समाज मुखर हुआ है।

आजकल BBC हिंदी की वेबसाइट पर पहले पीरियड को लेकर #pehlaperiod के साथ लेखों की एक श्रृंखला चल रही है जिसमें लड़कियाँ/महिलाऐं अपने पहले पीरियड के अनुभव और दुश्वारियाँ शेयर कर रही हैं। उन लेखों को शिक्षकों को विशेष तौर पर पढ़ना चाहिए। अगर हो सके शिक्षिका बहनों को अपने लेख उस श्रृंखला के लिए भेजना चाहिए। लेकिन मुझे ऐसी उम्मीद कम है। शायद ही हम में से कोई शिक्षिका बहन इस मुद्दे पर लिखना चाहे। कारण जानते हैं?

कारण है कि हमने इन मुद्दों को टैबू बना रखा है। महिलाएँ इस मुद्दों पर बात भी करने से हिचकती हैं। मैं एक महिला शिक्षिका को जानता हूँ जो उनके लिए सरकार द्वारा प्रदत्त ‘विशेषावकाश’ लेने से हिचकती थीं। अपने विद्यालय में छः पुरुष शिक्षकों में अकेली महिला थीं। अपनी नौकरी की शुरुआत के 2 साल तक ये संकोच ही न हटा पायीं कि वो पुरुष विद्यालय प्रभारी से कह सकें और आवेदन दे सकें कि उन्हें विशेषावकाश चाहिए। वो तो उनकी CRC की अन्य शिक्षिकाओं ने उन्हें साहस दिया तो वे इसका लाभ लेने लगीं। अन्यथा उस पीड़ादायक अनुभव में भी वो स्कूल आतीं थीं और दिन भर कक्षा सञ्चालन करती थीं।

मुझे पूरा यकीन है कि ऐसी अनेकों महिलाऐं होंगी जिन्हें शुरुआत में हिचकिचाहट हुई होगी इस तरह। कई विद्यालयों में तो ये भी सुनने को मिलता है प्रभारी विशेषसावकाश देने में आना कानी करते हैं और अक्सर डेट्स को लेकर तंज कस देते- “पिछले महीने तो फलाँ तारीख़ को था लेकिन बार चिलां तारीख़ को कैसे हो गया?” ऐसे तंज न सिर्फ असंवेदनशीलता दर्शाते हैं बल्कि महिलाओं के प्रति हम कितनी समझ रखते हैं और उनका कितना सम्मान करते हैं ये भी दर्शाता है। अफ़सोस होता है ये कहते हुए कि हमारा शिक्षक समाज़ कुछ खास संवेदनशील नहीं है महिलाओं के प्रति।

चलिए, अब सैनिटरी पैड्स पर लगाए टैक्स पर वापस लौटते हैं। तो इस मुद्दे पर मेरी राय है कि सैनिटरी पैड्स पर टैक्स तो बिल्कुल लगना ही नहीं चाहिए बल्कि ये टैक्स फ्री होना चाहिए। मैं तो यहाँ तक कहूँगा कि सैनिटरी पैड्स पर सब्सिडी मिलनी चाहिए। आज जो सैनिटरी पैड्स का पैकेट ₹110(stayfree, extra wings, 20 पैड्स का पैकेट) में मिल रहा है वो ₹50 रूपए में मिलना चाहिए। या संभव हो तो प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्रों पर हर महीने एक महिला/लड़की को एक पैकेट फ्री में मिलना चाहिए। बिहार सरकार विद्यालयों में मुफ़्त सैनिटरी पैड्स बाँटने की योजना लाने वाली थी लेकिन न जाने उसका क्या हुआ?

खैर, जो सरकारी स्तर पर होना है वो तो बाद की बात है। लेकिन जो हमारे बस की बात है वो अपने पत्नी/बेटी के लिए सैनिटरी पैड्स ख़रीदना। सामान्य तौर पर महिलाऐं खुद खरीदती हैं ये पैड्स। लेकिन सुखद परिवर्तन हो सकता है अगर हम पुरूष महीने भर के किराने के सामान के साथ अपनी पत्नी/बेटी के लिए एक पैकेट पैड्स ला दें। आखिर ये भी हर महीने की आवश्यक वस्तु है। इससे जो पीरियड्स और पैड्स को लेकर टैबू है वो दूर होगा। महिला शिक्षिकाओं को इस मुद्दे पर अपने विद्यालय की लड़कियों से बात करनी चाहिए। उनमें जागरूकता लानी चाहिए और पैड्स का इस्तेमाल करने के लिए प्रोत्साहित करना चाहिए। सामान्यतः गाँव में लड़कियाँ पैड्स का इस्तेमाल नहीं करती हैं।

इन छोटे-छोटे कदमों से एक बेहतर शुरुआत हो सकती है। ये दुनिया महिलाओं के लिए एक बेहतर जग़ह बन सकती है।

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