देश इस समय बड़ी महामारी से गुज़र रहा है, ऐसे में कोरोना पर कई लोगों ने विचार रखे हैं और इस विषय पर कुछ और कहना मुझे उचित नहीं लग रहा है।
लेकिन एक विशेष मुद्दे पर मैं सबका ध्यान आकर्षित करना चाहता हूं। जनता कर्फ्यू के दिन से ही एक परिवर्तन सबके समक्ष है, मुझे लगता है अब तक सभी ने महसूस भी कर लिया होगा। हालांकि उस दिन मेरे द्वारा पर्यावरण पर टिप्पणी करने पर कुछ लोगों ने बिना बात समझे प्रतिक्रिया भी दी लेकिन बाद में सबको एहसास हुआ कि प्राकृतिक संतुलन सकारात्मक रूप में बदला है, वायु स्वच्छ हुई है और एक हद तक सबने इस बारे में कुछ लिखा भी है।
दूसरी ओर देखें तो हमने उपभोग भी कम किया है और चाह कर भी हम अतिरिक्त खर्च नहीं कर पा रहे हैं, इसके अतिरिक्त कूड़े इत्यादि में भी कमी आई है। यह सब कुछ हमारे लिए सकारात्मक संकेत हैं, यह कह सकते हैं कि कोरोना के दुष्परिणाम में कुछ सकारात्मक परिणाम भी आये हैं, हर बात में सकारात्मक सोचने वालों के लिए यह एक अच्छा विषय है।
लेकिन सबसे बड़े किसी मुद्दे पर मैं ध्यान केंद्रित करना चाहता हूं वह थोड़ा संवेदनशील मुद्दा है जिस पर हमारा ध्यान जा तो रहा है लेकिन टिक नहीं रहा है। जो ध्यान देने की बात है वह ये है कि कहीं हम इस संतुलन में ही असंतुलित तो नहीं हो रहे हैं ? क्या हम कोई छोटी गलती पुनः दुहरा रहे हैं जिससे प्रकृति पुनः हमें बड़ी चुनौती दे सकती है?
बात यह है कि हम सभी ने कहा कि प्राकृतिक छेड़छाड़ या प्राकृतिक असंतुलन से यह महामारी फैली है तो इसी संदर्भ में अगर हम देखें तो आज जब हम अपने घरों में हैं, सब कुछ यथावत पड़ा है ऐसे में इसी प्रकृति का एक बड़ा हिस्सा भी बड़े संकट से गुज़र रहा है। हां हम मानते हैं कि बड़ी संख्या में मानव जीवन अस्त व्यस्त हुआ है और प्रभावित हुआ है लेकिन सरकार तथा कई सामाजिक संगठनों का ध्यान मानव जीवन पर है और कुछ हद तक इस से उभर पाने में कोशिश की जा रही है लेकिन इस स्थिति में पशुओं की स्थिति काफी दयनीय है। अगर सही कहें तो जिन्हें हम अपना सबसे वफादार मानते हैं वो सच में आज मरने की स्थिति में हैं।
मेरे मन में चलते रहता है कि मनोकामना पूर्ति हेतु जो लोग घी लगी रोटी उसे कुत्ते को देने जाते हैं जिसके बारे में कहा जाता है कि कुत्ते को घी हज़म नहीं होता आज जब उसे आपकी नमक लगी रोटी की ही सबसे ज्यादा आवश्यकता है तब हम उसकी सहायता क्यों नहीं कर पा रहे हैं ?
मेरे मन में हमेशा यह घूमते रहता है कि जिन गायों हेतु कितनी खबरें बन जाती हैं आज वहीं गायें सड़कों पर भूखे पेट हड्डियों के ढांचे के साथ घूम रही हैं तो कोई कुछ क्यों नहीं कर रहा है? हम कविताओं और कहानियों में चिड़ियों के चहचहाने का बखान कर उस लेख, उस कविता, उस पाठ की शोभा बढ़ा देते हैं लेकिन आज सच में उन की चहचहाहट बरकरार रखनी है तो हम एक कटोरा पानी और चार दाने रखने में कैसे असमर्थ हो जा रहे हैं?
मैं मानता हूं कि बहुत से संगठनों का ध्यान इस ओर है और लोग कार्य भी कर रहे हैं लेकिन इसका स्तर उतना व्यापक नहीं है जितनी आवश्यकता है। जो लोग अपने अधिकारों, अपने राशन, अपनी सहायता हेतु सरकार से लगातार लड़ते हैं मुझे लगता है कि उन्हें एक लड़ाई इन बेजुबानों के हित की भी लड़नी चाहिए। जो लोग आज उपभोग की वस्तुओं पर खर्च नहीं कर रहे हैं, जो आज पुण्य कमाने के अन्य कार्यों पर खर्च नहीं कर रहे हैं उनसे एक आग्रह है कि भगवान को मन मंदिर में स्थापित कर उनके द्वारा ही रचित इन बेजुबानों हेतु एक छोटा प्रयास अवश्य करें। *जीव सेवा ही ईश सेवा है* को पूर्णतया आत्मसात करते हुए एक प्रयास इनके हेतु अवश्य करें।
अगर आज आप सजग नहीं होते हैं तो परिणाम स्वरूप जब यहीं जीव कहीं मरे मिलेंगे, या किसी गंभीर बीमारी का शिकार होंगे तो इस असंतुलन से पुनः फ्लू, या किसी घातक बीमारी का जनन हो सकता है। प्रकृति में अगर ये जीव मरी हुई अवस्था मे विद्यमान रहते हैं तो हो सकता है कि किसी रासायनिक प्रतिक्रिया के परिणाम स्वरूप कोई प्रकृति जनित रोग की पुनः उत्तपत्ति हो जाये। अतः सभी ओर से प्रकृति के इस संतुलन को बनाये रखने हेतु एक प्रयास इन जीवों के हित मे अवश्य करें जिससे निश्चित रूप से हम एक सुदृढ, स्वच्छ, संतुलित एवं आनंदमय वातावरण की स्थापना करने में सफल होंगे।??