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बेगूसराय में प्रशासन-सामंती ताकतों का गठजोड़ और सामाजिक न्याय आंदोलन कार्यकर्ता की हत्या

क्या नीतीश कुमार सामाजिक न्याय का चैंपियन कहलाने का अधिकार रखतें हैं?

बिहार में भाजपा जैसी फांसीवादी सामंती पार्टी के साथ गठजोड़ कर सरकार चला रहे नीतीश कुमार पिछले 2005 से मुख्यमंत्री पद पर बने हुए हैं। सामाजिक न्याय का चैंपियन कहलाने वाले नीतीश कुमार का बिहार में मुख्य आधार अति पिछड़ा और महादलित वोट रहा है।

इस तथाकथित सामाजिक न्याय वाली सरकार में सवर्ण सामंती ताकतों और सवर्ण वर्चस्व वाले प्रशासनिक मशीनरी के बीच गठजोड़ का हमला दलित-अति पिछड़े समाज के ऊपर बिहार में साफ दिखता है।

बिहार की वास्तविक स्थिति

इस तरह के कई उदाहरण में से एक उदाहरण पिछले दिनों बेगूसराय जिले में देखने को मिला। जहां अति पिछड़े समुदाय से आने वाले संतोष शर्मा और पिछड़ा समाज से आने वाले विक्रम पोद्दार की सवर्ण सामंती ताकत और प्रशासन के गठजोड़ के जरिए हत्या होती है।

बिहार में पहले लालू यादव-राबड़ी देवी और बाद में भाजपा के साथ गठजोड़ कर नीतीश कुमार नेतृत्व में पिछले तीस सालों से सामाजिक न्याय की सरकार के बतौर उच्च ओबीसी (upper OBC) सत्ता पर काबिज रहा है।

बिहार में अति पिछड़ों,अल्पसंख्यक,दलित लोगों पर हो रहे हमले नीतीश सरकार पर सवाल उठाते रहेंगे

सामाजिक न्याय के झंडाबरदार सरकारें सत्ता पर काबिज हैं। इसके बावजूद बिहार जैसे सवर्ण सामंती दबदबे वाले राज्य में दलित-अति पिछड़ों-पिछड़ों-अल्पसंख्यकों पर सवर्ण सामंती ताकतों के हमले होते रहे हैं।

हालांकि यह बात जरूर है कि सामाजिक न्याय के नाम पर बनी सरकार और वंचित-शोषित तबके के जमीन पर हकदारी और सामाजिक मान-सम्मान के लिए भूमिहीनों-गरीब किसानों के रैडिकल वामपंथी आंदोलनों ने दलितों-अतिपिछड़ों-पिछड़ों और अल्पसंख्यक समुदाय के अंदर सामाजिक-राजनीतिक चेतना और सामाजिक न्याय की आकांक्षा को जरूर आगे बढ़ाया है।

जिसके परिणामस्वरूप इन तबकों ने अपने पहचान और अपने सवालों के साथ खासकर उच्च ओबीसी समुदाय ने राजनीति में मजबूत दावेदारी पेश किया।

आरक्षण व्यवस्था ने कुछ हद तक पिछड़े, दलित, अल्पसंख्यक को मजबूती प्रदान की है

सरकारी नौकरियों में आरक्षण लागू होने से इन समुदायों को सरकारी तंत्र में प्रतिनिधित्व मिल पाया, जिस कारण से सरकारी ऑफिसों तक पहुंच पाना थोड़ा आसान हो पाया। बिहार में कर्पूरी फार्मूला के तहत अति पिछड़ा वर्ग को अलग से आरक्षण मिलने के वजह से ये समुदाय भी सामाजिक सरंचना में थोड़ा ऊपर उठ पाया।

परन्तु नब्बे के दशक से वैश्वीकरण के बढ़ते प्रभाव के कारण इनके पारंपरिक पेशा खत्म होने के कगार पर पहुंच गया,जिस कारण से अतिपिछड़े समुदाय के एक बड़े हिस्से को वर्तमान समय में बहुत ही दयनीय आर्थिक स्थिति का सामना करना पड़ रहा है।

सामाजिक न्याय की सरकार रहने के बावजूद दलित-अतिपिछड़ों को भूमि अधिकार सुनिश्चित नहीं हो पाया है

बिहार में अतिपिछड़ों की सामाजिक स्थिति दलित समुदाय से जरूर ऊपर रहा है लेकिन आर्थिक स्थिति और खासकर भूमिहीनता के मामले में कमोबेश बराबर की स्थिति है। बिहार के समाजिक संरचना में भूमि का मामला इसलिए और ज्यादा महत्त्वपूर्ण हो जाता है कि बिहार जैसे प्रदेश में सामंती प्रवृति और वर्चस्व बनाए रखने में जमीन की भूमिका अहम रही है।

पिछले तीस साल से सामाजिक न्याय की सरकार रहने के बावजूद दलित-अतिपिछड़ों को भूमि अधिकार सुनिश्चित नहीं हो पाया है। कई सारे कमेटी के रिकमेंडेशन के बावजूद भूमि सुधार लागू नहीं हो पाया है।

बिहार की राजनीति में अतिपिछड़ों की राजनैतिक दावेदारी व मजबूत नेतृत्व अभी तक उभर कर सामने नहीं आ पाया है

अतिपिछड़े समुदाय के अंदर सैकड़ों जातियां शामिल हैं और इन जातियों का अलग-अलग देखने पर इनकी आबादी बहुत कम है। परन्तु अतिपिछड़ों को एक समूह के तौर पर देखा जाए तो यह बिहार के अंदर सबसे बड़ी आबादी वाला समूह है। लेकिन इसके बावजूद बिहार की राजनीति में अतिपिछड़ों की  राजनीतिक दावेदारी व मजबूत नेतृत्व अभी तक उभर कर सामने नहीं आ पाया है।

दयनीय आर्थिक-सामाजिक स्थिति होने तथा अतिपिछड़ों के लिए कानूनी सुरक्षा कवच नहीं होने के कारण से इनके ऊपर सामंती ताकतों का हमला होना बहुत आसान हो जाता है।

मीडिया में वंचित वर्ग का प्रतिनिधित्व न होने के कारण उनके शोषण व हत्या की खबरें सामने नहीं आ पाती है

मीडिया में इनके प्रतिनिधित्व नहीं होने से अतिपिछड़े समाज के लोगो की आपराधिक हत्या और इनके ऊपर सामंती हमले की खबर भी नहीं के बराबर आ पाती है। सरकारी ऑफिसों तक इन समुदायों की पहुंच नहीं रहने के कारण सरकारी फाइलों में भी इस तरह का मामला दर्ज हो पाना मुश्किल होता है।

इस समुदाय के मजबूत राजनीतिक नेतृत्व के अभाव के कारण शोषण और हत्या के अधिकतर मामलों में न ही कोई राजनीतिक दबाव बन पाता है।

फुले-अंबेडकर विचारधारा का बढ़ता प्रभाव परिवर्तन की राह पर है

विगत कुछ वर्षों में पूरे देश भर में फुले-अंबेडकर विचारधारा का बढ़ते प्रभाव और नए तेवर के साथ सामाजिक न्याय आंदोलन के उभार से अतिपिछड़े समाज के अंदर भी स्थानीय स्तर पर अतिपिछड़े पहचान और सवालों के साथ राजनीतिक हिस्सेदारी-महात्वाकांक्षा और ब्राह्मणवाद-सामंती वर्चस्व के खिलाफ प्रतिरोध का स्वर स्पष्ट तौर पर देखने को मिलता है।

उदाहरण के तौर पर बेगूसराय में संतोष शर्मा जैसे राजनीतिक-सामाजिक कार्यकर्ता के रूप में देख पाते हैं।

एक नज़र बिहार के बेगूसराय ज़िले पर

बिहार के अंदर सामंती वर्चस्व वाले जगहों में से एक बेगूसराय जिला भी रहा है। ये अलग बात है कि यहां पर CPI की भी ठीक ठाक स्थिति रही है। इसके बावजूद इस लोकसभा सीट पर सवर्ण जाति का दबदबा हमेशा से रहा है। 2009 में मोनाजिर हसन को छोड़कर हर बार सवर्ण उम्मीदवार ही जीतते आए हैं।गरीब मजदूर और वंचित तबके के नुमाइंदगी का दावा करने वाले CPI का भी उम्मीदवार (अख्तर हाशमी, 1962 को छोड़कर) सवर्ण जाति के ही रहे हैं।

बेगूसराय जनपद की राजनीति में सवर्ण वर्ग का रहा है दबदबा

बेगूसराय में सवर्ण मानसिकता का प्रभाव ऐसा रहा है कि CPI के विधायक रहे भोला सिंह भी 2014 में भाजपा में शामिल होकर संसद पहुंचने का सफर तय करते हैं। अभी वर्तमान में देश में साम्प्रदायिकता का जहर बोने वाले सवर्ण वर्चस्ववाद के अगुआ गिरिराज सिंह बेगूसराय से ही सांसद है।

गिरिराज सिंह ने 2019 के लोकसभा चुनाव में CPI के उम्मीदवार व जेएनयू छात्रसंघ के पूर्व अध्यक्ष कन्हैया कुमार को शिकस्त दी थी। दोनों ही उम्मीदवार सवर्ण पृष्टभूमि से आते हैं।

बेगूसराय से एक अनूठी प्रेम कहानी

पिछले दिनों बेगूसराय जिला के वीरपुर थाना क्षेत्र के विक्रम पोद्दार अपने गांव के ही ब्राह्मण लड़की से चल रहे प्रेम-प्रसंग में लड़की को साथ लेकर दिल्ली चला जाता है। दिल्ली में ही विक्रम पोद्दार के पिता और एक बड़ा भाई भी दिहाड़ी मज़दूरी का काम करता है। पुलिस-प्रशासन लड़की के सवर्ण सामंती परिवार के दबाव में आकर विक्रम और उसकी प्रेमिका दोनो को लगभग 59 दिन बाद दिल्ली से पकड़ कर बेगूसराय लाता है और विक्रम को वीरपुर थाना को सौंप देता है।

इसके बाद पारिवारिक दबाव में आकर लड़की प्रेम सम्बन्ध से मुकर जाती है तथा थाना परिसर में ही सवर्ण सामंती दबंगो द्वारा थाना प्रभारी (जो लड़की के सजातीय है) के साथ पंचायत होती है।

वीरपुर थाने में तीन दिन बाद विक्रम पोद्दार की संदेहास्पद स्थिति में गमछे के फंदे से लटकता हुआ शव मिला।

24 मार्च को स्थानीय पुलिस पूरे मामले को आत्महत्या का मामला बताते हुए विक्रम पोद्दार की दिव्यांग भाभी को सूचना देती है। लॉक डाउन में पिता और भाई के फंसे होने के वजह से घर आकर विक्रम की लाश लेने में असमर्थता के कारण लाश कुछ दिनों तक अस्पताल में ही पड़ा रहा।

विक्रम की मौत कई गंभीर सवाल खड़े करती है

सामाजिक-राजनीतिक तौर पर सक्रियता के वजह से यूथ ब्रिगेड के अध्यक्ष के तौर पर संतोष शर्मा ने विक्रम पोद्दार की संदिग्ध मौत पर सोशल मीडिया और प्रशासन के सामने कई गम्भीर सवाल खड़ा करते हुए 26 मार्च को बेगूसराय सदर SDO से एक शिष्टमंडल के साथ भेंट की।

विक्रम पोद्दार की संदेहास्पद मौत की उचित जांच और लाश का प्रशासन के द्वारा अंतिम संस्कार करवाने के लिए स्थानीय प्रशासन पर दबाव बनाना शुरू किया।

आख़िर विक्रम को जेल की बजाय स्टाफ या स्टोर रूम में क्यों रखा गया?

संतोष ने सवाल खड़ा करते हुए पूछा कि विक्रम को थाने के कस्टडी रूम के बजाय स्टाफ या स्टोर रूम में क्यों रखा गया? विक्रम पोद्दार प्रेम प्रसंग के मामले को लेकर थाने में थाना प्रभारी और सवर्ण सामंती ताकतों के बीच हुई पंचायत की CCTV फुटेज की भी मांग की गई।

संतोष ने वीरपुर थाना प्रभारी के लड़की पक्ष के सजातीय होने तथा सामंती ताकतों के दबाव में आकर काम करने के वजह से पुलिस की भूमिका को संदिग्ध बताते हुए विक्रम पोद्दार की मौत को स्पष्ट तौर एक सोची समझी प्रशासनिक हत्या करार दिया।

संतोष शर्मा बेगूसराय में फुले-अंबेडकर के विचारों की रोशनी आगे बढ़ाने का कार्य कर रहें थे

संतोष शर्मा बेगूसराय जैसे सामंती वर्चस्व वाले जगह में फुले-अम्बेडकर के विचारों की रौशनी में आगे बढ़ाते हुए अतिपिछड़े समुदाय के सामाजिक-राजनीतिक दावेदारी व हिस्सेदारी के साथ सामाजिक न्याय के आंदोलन को आगे की ओर ले जाने की कोशिश करता है।

संतोष जैसे युवा नये तेवर के साथ लोगों की आवाज़ बन रहें थे

नीतीश कुमार बिहार में अतिपिछड़ों का विश्वास जीत कर अपना वोट बैंक बनाने में जरूर कामयाब रहे। लेकिन अतिपिछड़े समाज में भी संतोष जैसे सामाजिक-राजनीतिक कार्यकर्ता ब्रह्मणवादी सवर्ण वर्चस्व के आगे सरेंडर करने के बजाय नीतीश कुमार के सामाजिक न्याय के मॉडल को खारिज कर रहे हैं।

वे नए तेवर के साथ समाज में अतिपिछड़ों-दलितों-अल्पसंख्यक सवालों के साथ राजनीतिक तौर पर आगे बढ़ने का प्रयास करता है। राजद द्वारा राज्यसभा चुनाव में सवर्णो के टिकट दिए जाने को लेकर सोशल मीडिया के माध्यम से अपनी असहमति दर्ज कराता है।

अंबेडकर के बताये रास्ते पर चलने की वकालत सदैव करते रहें थे संतोष

अपने जातीय कार्यक्रमों के मंच से भी समाज के लोगों को संतोष लगातार अम्बेडकर के बताए रास्ते पर चलने तथा हक-अधिकार और राजनीतिक हिस्सेदारी-प्रतिनिधित्व बढ़ाने की बात मजबूती से करता रहा है।

जनसंख्या के अनुपात में आरक्षण को बढ़ाने तथा देश में जातिवार जनगणना कराने के एजेंडे को अपने संगठन यूथ ब्रिगेड के माध्यम से संतोष सामाजिक न्याय के आंदोलन को मौजूदा स्थापित धारा से आगे बढ़ाकर ले जाने की बात करता है।

अल्पसंख्यक समाज को बहुजन राजनीति में लाए बिना सामाजिक न्याय की उम्मीद नहीं कि जा सकती

अल्पसंख्यक समाज को बहुजन राजनीति के कोर नेतृत्व में लाए बिना सामाजिक न्याय की मुक्कमल लड़ाई सम्भव नहीं है। इस समझदारी के साथ यूथ ब्रिगेड के गठन और नेतृत्व संरचना बनाने की कोशिश संतोष ने अपने राजनैतिक प्रैक्टिस में किया और बिहार व झारखंड में CAA-NRC-NPR के ख़िलाफ़ चल रहे कई धरनों में बहुजन राजनीति के नज़रिया को रखते हुए मौजूदा साम्प्रदायिक फांसीवादी केंद्र सरकार के खिलाफ मजबूती से बात रखते हुए डट कर मुकाबला करने का काम किया है।

सामाजिक न्याय आंदोलन का उभरता हुआ चेहरा था संतोष

बेगूसराय जैसे सवर्ण सामंती दबदबे वाले क्षेत्र में संतोष शर्मा पिछले साल से फुले-अम्बेडकर के रास्ते सामाजिक न्याय के आंदोलन के तहत जिले में दलित-पिछड़ों-अतिपिछड़ों व अल्पसंख्यक के सवालों पर सक्रिय भूमिका में थे। वे अति पिछड़ा समुदाय से सामाजिक न्याय आंदोलन का उभरता हुआ चेहरा बन रहा था। जिसके वजह से लगातार वह सवर्ण सामंती ताकतों की नज़रों में चढ़ा हुआ था।

जब बिहार पुलिस ने संतोष की गिरफ्तारी की

विक्रम पोद्दार की प्रशासनिक हत्या के ख़िलाफ़ लगातार आवाज़ उठाने के कारण सामंती जातिवादी ताकत तथा सवर्ण जाति के पुलिस-प्रशाशन के नजरों में चढ़ना बहुत ही स्वभाविक था। अपने गांव छतौना में संतोष को 6 अप्रैल को एटीएम से पैसा निकालकर घर आने के क्रम में नावकोठी थाना की पुलिस लॉक डाउन का उल्लंघन के आरोप में उठाकर थाना के पीछे जंगल में ले गयी।

जहां 2-3 घंटे तक लगातार बर्बरतम तरीके से संतोष का पिटाई किया गया, जिसमें संतोष को गहरी अंदरूनी चोट आई। स्थानीय स्तर के अम्बेडकरवादी और सामाजिक न्याय आंदोलन के कार्यकर्ताओं के द्वारा दबाव बनाने के बाद पुलिस ने संतोष को पकड़ने के 3 घंटे बाद छोड़ा।

अंततः पुलिस की प्रताड़ना से चोटिल संतोष ज़िंदगी की जंग हार गया

पिटाई के बाद संतोष का सदर अस्पताल में इलाज करा कर घर लाया गया। कुछ दिन बाद दर्द से और ज्यादा तकलीफ बढ़ने के बाद बेगूसराय के ही एक प्राइवेट नर्सिंग होम में एडमिट कराया गया लेकिन हालत ज्यादा गम्भीर होते चले जाने से डॉक्टर ने संतोष को पटना रेफर कर दिया गया। पटना ले जाने के क्रम में ही 17 अप्रैल को रास्ते में संतोष ने दम तोड़ दिया।

संतोष के पिताजी जो बढ़ईगिरी का काम करते थे। इनकी भी मृत्यु तीन महीने पहले ही बीमारी की वजह से हो गई थी। संतोष अपने पीछे दो बच्चे (3 साल का और 2 साल का) और पत्नी को छोड़ गए।

आखिर उभर रहे बहुजन आंदोलन से सत्तारूढ़ दल को समस्या क्यों है?

ये बात सपष्ट है कि अंतर्जातीय प्रेम करने के कारण विक्रम पोद्दार की हत्या सामंती-प्रशासन गठजोड़ ने जातिवादी वर्चस्व बनाए रखने के लिए किया। वही दूसरी ओर संतोष शर्मा की हत्या नीतीश कुमार-भाजपा गठजोड़ के फोल्ड से बाहर रहकर फुले-अम्बेडकर के रास्ते पर चलते हुए बहुजन एकजुटता के साथ अतिपिछड़ा पहचान व दावेदारी को बुलंद करते हुए ब्रह्मणवादी सवर्ण सामंती वर्चस्व को चुनौती देने के कारण हुई है।

यह बात तय है कि ब्रह्मणवादी सवर्ण सामंती ताकतों को असली खतरा अतिपिछड़ा समाज के अपने पहचान के साथ ब्रह्मणवाद विरोधी दिशा में बढ़ने और उभर रहे नये बहुजन आंदोलन से है।

(नोट: लेखक वीरेंद्र कुमार जवाहर लाल नेहरू विश्वविद्यालय में शोधार्थी है।)

शोधार्थी, जेएनयू, दिल्लीसा

माजिक राजनीतिक कार्यकर्ता, झारखंड

Twitter- @birendra195

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