Site icon Youth Ki Awaaz

लॉक डाउन और मजदूर वर्ग की त्रासदी

कोरोना का कहर और मजदूर तबका
कोरोना ने इस समय पूरी दुनिया में अपना कहर मचाया है। चीन के वुहान प्रान्त से फैली इस महामारी ने आज दुनिया के लगभग हर देश को अपनी चपेट में ले लिया है। भारत, बांग्लादेश, पाकिस्तान जैसे गरीब देश हों या अमेरिका, इटली, स्पेन जैसे महाशक्ति और अमीर देश; सभी ने इस इस महाविपदा के आगे घुटने टेक दिए हैं। अभी तक इस महामारी से बचने का कोई भी ठोस तरीका कोई भी सरकार नहीं ढूंढ पाई है। हालांकि ज्यादातर सरकारों ने इससे बचने के लिए लॉक डाउन का ही सहारा लिया है। भारत सरकार ने भी 22 मार्च को जनता कर्फ्यू का आह्वान किया जो काफी सफल रहा हालांकि शाम होते होते बहुत से मूर्ख लोग अपने घरों से बाहर भीड़ के रूप में आकर कोरोना को भगाने के लिए थाली, चमचे, शंख, घण्टे, घड़ियाल बजाने लगे गोया कोरोना कोई एक ऐसा जीव हो जो इतनी तेज आवाज से बहरा होकर दुम दबाकर भाग जाएगा। गाँवों में जंगली जानवरों से अपनी फसल बचाने के लिए किसान इस तकनीक का सहारा पुराने समय से लेते रहे हैं।
इसके बाद 24 मार्च को प्रधानमंत्री जी ने देश के नाम सम्बोधन में 14 अप्रैल तक 21 दिन के सम्पूर्ण लॉक डाउन की घोषणा की हालांकि उससे पहले ही तमाम राज्य जिलाबन्दी और राजयबन्दी के रूप में लॉक डाउन जैसे उपाय उठा चुके थे। लोगों ने इस महाविपदा की घड़ी में अपने प्रधानमंत्री और मुख्यमंत्रियों के हर आह्वान का स्वागत किया और उनका साथ देने का माद्दा दिखाया। लेकिन दो तीन दिन बाद ही इस आह्वान की धज्जियां उड़ती दिखाई दी जब हजारों लाखों की संख्या में मजदूरों का सैलाब सड़कों पर उमड़ पड़ा क्योंकि फैक्ट्री मालिकों ने तालाबंदी की वजह से उन्हें काम से निकाल दिया और मकान मालिकों ने उनसे मकान खाली करा लिए। राशन की दुकानों ने उन्हें उधार में राशन देने से मना कर दिया क्योंकि काम न होने की वजह से उन्हें अपने पैसे मिलने की उम्मीद नहीं थी। हजारों की संख्या में मजदूर पैदल ही सैंकड़ों हजारों किलोमीटर दूर अपने घरों के लिए निकल पड़े। इस अप्रत्याशित घटना ने सरकार के बिना कोई सुस्पष्ट योजना बनाए लॉक डाउन लागू करने के कदम की पोल खोल कर रख दी। जो कोरोना हवाई जहाज में बैठकर अमीरों के कंधे चढ़कर भारत में आया अब उसकी गाज गरीब प्रवासी मजदूरों पर पड़ने लगी थी। प्रवासी मजदूर जो सैंकड़ों हजारों किलोमीटर दूर अपने परिजनों से दूर रहकर काम धंधा करके कुछ पैसे बचाकर अपने परिवार को भेजते हैं ताकि परिवार का गुजारा हो सके। हमारे देश का विकास कुछ इस तरह से हुआ कि कुछ राज्यों में ही खेती के लिए सिंचाई, आधुनिक उपकरण और उद्योग धंधों का विकास किया गया और देश के बड़े हिस्से इस विकास की बयार से महरूम ही राह गए जिस कारण उत्तर प्रदेश, बिहार, बंगाल, उड़ीसा से लाखों मजदूर रोजगार के लिए दिल्ली, हरियाणा, पंजाब, गुजरात, महाराष्ट्र का रुख करते हैं। अपने घर परिवार से दूर ये मजदूर बड़ी ही दयनीय हालातों में रहकर इन राज्यों की समृद्धि में योगदान करते हैं और काम निकलने पर ये राज्य इन्हें अपनाने से इनकार कर देते हैं जैसा कि इस लॉक डाउन के दौरान खूब गहरे से देखने को मिला। 10 बाई 10 के कमरे में 5-6 मजदूर कैसे रहते होंगे जिसमें रसोई भी उन्हें उसी के अंदर बनानी पड़ती है। 20-30लोगों पर एक ही टॉयलेट और नल की सुविधा से हम अंदाजा लगा सकते हैं कि किन नारकीय स्थितियों में ये मजदूर गुजर बसर करते होंगे। लेकिन काम धंधे बंद होने से ये मजदूर इन मकानों के किराया चुका पाने में असमर्थ हो गए और पड़ोस के किरयाने वालों ने भी इन्हें सामान देने से मना कर दिया। इसलिए उन्हें भूखों मरने की नौबत में यहाँ से अपने-अपने राज्यों के लिए पैदल ही निकलना पड़ा। सिर पर गठरी लिए, जेब मे चंद रुपये लिए पैदल ही हजारों मजदूर निकल पड़े मानो इन्हें देश निकाला दे दिया गया हो। कोई बच्चों को गोद में लिए चले जा रहा था तो कोई साइकिल पर अपने परिवार को लेकर। इनका कहना था कि यहाँ भूख और कोरोना से मरने से बेहतर है अपने घर जाकर मरना। अपने घर जाकर जैसे भी हो रूखी सुखी खाकर गुजारा कर लेंगे। कई मजदूर बेचारे सड़क दुर्घटनाओं में मर गए तो कई पुलिस की मार खाकर अपमान से। जब ये मजदूर अपने घर पहुँचे तो गाँव वालों ने भी इन्हें लेने से मना कर दिया और अब हजारों मजदूर बेहद बुरे हालातों में गाँव के बाहर बने क्वारन्टीन सेंटरों में बंद हैं। बरेली में प्रशासन द्वारा इन सबको बैठाकर सेनेटाइज करने के नाम पर खतरनाक केमिकल की बौछार कर दी गई जिसकी वजह से आंख में केमिकल जाने की वजह से कइयों को अस्पताल में भर्ती होना पड़ा। प्रशासन और सरकार की लापरवाही केवल इतनी ही नहीं थी बल्कि इस दौरान भी उत्तर प्रदेश की सरकार द्वारा इनकी जेब से किराए के रूप में आखिरी कौड़ी भी निकाल लेने की कोशिश की गई। पुलिस द्वारा इन लोगों को लाठी डंडों से पीटा गया। जानवरों की तरह बर्ताव करते हुए इनके आत्मसम्मान को कुचल कर मुर्गा बनाया गया, ऊठक बैठक लगवाई गई। गुरुग्राम, हिमाचल में कई जगह कोरोना फैलाने के लिए मजदूरों की पिटाई तक की गई। अपने घरों में अंताक्षरी खेल रहे, समोसे इत्यादि डिश बनाकर सोशल मीडिया पर डालने वाले मध्यम वर्ग द्वारा इन्हें देश में कोरोना फैलाने का जिम्मेवार बताया गया। वो मध्यम वर्ग जो सोसाइटी की बालकनी में खड़े होकर ताली-थाली पीट रहे थे या दिए-टोर्च जलाकर उत्साह के साथ दीवाली मना रहे थे, उनको डर था कि अगर ये मजदूर ऐसे ही सड़कों पर चलते रहे तो कोरोना फैल जाएगा। उन्हें इन मजदूरों की भूख, उनकी लाचारी या उन्हें कोरोना होने का खतरा नहीं था बल्कि इन मजदूरों की वजह से उन्हें बाकी लोगों में कोरोना फैलने के खतरे से वे भयभीत थे। वे ऐसे समय में जब उनकी खुद की नौकरियां और सैलरी सुरक्षित थी, इन मजदूरों को नफरत और हिकारत की नजर से देख रहे थे। वे ऐसे खतरनाक दौर में इन मजदूरों की पिटाई के वीडियो मीम और चुटकुले बनाकर शेयर कर रहे थे। मीडिया का रोल हमेशा की तरह इस दौरान भी मजदूर विरोधी ही रहा और मीडिया के एक बड़े हिस्से के द्वारा मजदूरों को कोरोना फैलाने वाले विलेन के तौर पर पेश किया गया। हालांकि पुलिस-प्रशासन, मध्य वर्ग के एक हिस्से ने इन मजदूरों के दुख दर्द को समझते हुए इनकी सहायता भी की और जगह जगह इनके खाने के बंदोबस्त किया और कुछ मीडियाकर्मियों द्वारा इनके हालात को मीडिया में जगह दी गई। जो मजदूर निकल नहीं पाए और वहीं फंसे रह गए, उनके बहुत बुरे हालात हैं और सूरत में ऐसे मजदूरों का गुस्सा फूट पड़ा और उन्हें खाने के लिए सड़कों पर उतरना पड़ा।
उच्च वर्ग के जो लोग विदेशों में फंस गए थे सरकार द्वारा उन्हें सम्मानित तरीके हवाई जहाज से रेस्क्यू(देश लाया गया) किया गया और उन्होंने अपनी ट्रेवल हिस्ट्री छुपाकर देश मे घूमकर कोरोना फैलाया लेकिन इन मजदूरों को ऐसे हालातों में लॉक डाउन कर दिया गया। क्या यह देश इन मजदूरों का नहीं है जो अपने खून पसीने से इस देश का निर्माण करते हैं। क्या लॉक डाउन करने से पहले सरकार को इन सब परिस्थितियों का अंदाजा नहीं था। अगर लॉक डाउन लम्बा खिंचता है, जैसा कि सभी राज्य अपील कर रहे हैं तो इन मजदूरों का क्या होगा। ये ऐसे यक्ष प्रश्न हैं जिनका जवाब सरकार को देना ही चाहिए।

Exit mobile version