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कविता: “दीये रौशनी तय करेंगे कब तक, आओ मैं कुछ उजले चेहरों से मिलाती हूं”

फोटो साभार- Flickr

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दीये जलाने से मिटता है अंधेरा
तो आओ मैं तुम्हें अपनी बस्ती दिखाती हूं।

नहीं देख पा रहे तुम,
पगडंडियों पर लहू टपकते कदम
आओ मैं तुम्हें रस्ता बताती हूं।

भूख की आग से झुलस रहे हैं चेहरे कई
आओ मैं तुम्हें ठंडे पड़े चूल्हों की राख बताती हूं।

हर तरफ आग है धुंआ है
भला दीये रौशनी तय करेंगे कब तक
आओ मैं कुछ उजले चेहरों से मिलाती हूं।

पलट जाओगे तुम दीयों को लौ देकर
मेरी ऊंगली पकड़ो
मैं तुम्हें हकीकत की अंधेरी खोह तक ले जाती हूं।

दीये और कुछ नहीं भरम होते हैं रौशनी का
अंधेरा घना है मैं तुम्हें कहे जाती हूं।

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