मेरे दरवाज़े के बाहर घना पेड़ था
फल मीठे थे,
कई परिंदे उस पर गुज़र-बसर करते थे
जाने किसकी नज़र लगी
या ज़हरीली हो गई हवाएं।
बिन मौसम के आया पतझड़ और अचानक
बंद खिड़कियां कर, मैं घर में दुबक गया था,
बाहर देखा बदहवास से भाग रहे थे सारे पक्षी
कुछ बूढ़े थे तो कुछ उड़ना सीख रहे थे।
छोड़ घोंसला जाने का भी दर्द बहुत होता है
फिर वे तो कल के ही जन्मे चूज़े थे,
जिनकी आंखें अभी बंद थीं, चोंच खुली थी
उनको चूम चिरैया कैसे भाग रही थी।
उसका क्रंदन, उसकी चीखें, उसकी आहें
कौन सुनेगा कोलाहल में?
घर में लाइट देख परिंदों ने
शायद यह सोचा होगा
यहां ज़िंदगी रहती होगी,
इन्सानों का डेरा होगा
कुछ ही क्षण में खिड़की के शीशों पर,
रोशनदानों तक पर
कई परिंदे आकर चोंचें मार रहे थे
मैंने उस माँ को भी देखा, फेर लिया मुंह
मुझको अपनी, अपने बच्चों की चिंता थी।
मेरे घर में कई कमरे हैं उनमें एक पूजा घर भी है
भरा हुआ फ्रिज है, खाना है, पानी है।
खिड़की दरवाज़ों पर चिड़ियों की खटखट थी
भीतर टीवी पर म्यूज़िक था, फिल्में थीं।
देर हो गई, कोयल तोते,
गौरैया सब फुर्र हो गए,
देर हो गई, रंग, गीत, सुर
राग सभी कुछ फुर्र हो गए।
ठगा ठगा सा देख रहा हूं आसमान को
कहां गए वो जिनसे हमने सीखा उड़ना,
कहां गया एहसास मुक्ति का, ऊंचाई का
और असीमित हो जाने का।
पेड़ देखकर सोच रहा हूं
मैंने या मेरे पुरखों ने नहीं लगाया,
फिर किसने यह पेड़ उगाया?
बीज चोंच में लाया होगा उनमें से ही कोई
जिनने बोए बीज पहाड़ों की चोटी पर,
दुर्गम से दुर्गम घाटी में, रेगिस्तानों, वीरानों में
जिनके कारण जंगल फैले, बादल बरसे
चलीं हवाएं, महकी धरती।
धुंधला होकर शीशा भी अब
दर्पण सा लगता है,
देख रहा हूं उसमें अपने बौनेपन को
और पतन को।
भाग गए जो मुझे छोड़कर
कल लौटेंगे सभी परिन्दे,
मुझे यकीं है, इंतज़ार है
लौटेगी वह चिड़िया भी चूज़ों से मिलने।
उसे मिलेंगे धींगामुश्ती करते वे सब मेरे घर में
सभी खिड़कियां, दरवाज़े सब खुले मिलेंगे,
आस-पास के घर आंगन भी
बांह पसारे खुले मिलेंगे।