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उत्तराखंड के ग्रामीण इलाकों तक नहीं पहुंच पाती हैं बेहतर स्वास्थ्य सुविधाएं

फोटो साभार- जितेन्द्र

फोटो साभार- जितेन्द्र

महात्मा गाँधी ने कहा है, “असली भारत गाँवों में बसता हैं।” मगर सच्चाई तो यह है कि हमारे गाँव अब बीमार हो रहे हैं।

हमारा भारत एक लोकतांत्रिक और लोक कल्याणकारी देश है। प्रत्येक नागरिक को बुनियादी सुविधाएं उपलब्ध करवाना सरकार का पहला मौलिक कर्तव्य है। आज़ादी के 73 वर्षों बाद भी हम देश की बड़ी आबादी तक आधारभूत सुविधाएं मुहैया नहीं करवा पाए हैं।

अपने देश के सुदूर ग्रामीण क्षेत्रों की यात्राओं के दौरान मैंने जाना कि अभी तक हम सभी को स्वास्थ्य, शिक्षा और सड़क जैसी मौलिक सुविधाएं भी नहीं दे पाए हैं। 

आखिर ऐसा क्यों?

यह सवाल वर्तमान समय में हमारे देश के लिए और महत्वपूर्ण हो जाता है। एक ऐसे देश में जहां निर्जीव मूर्तियां, मंदिरों, धार्मिक आयोजनों और राजनेताओं के भ्रमण पर करोड़ों रुपये बहा दिए जाते हैं।

यह हमारे देश की विडंबना ही तो है कि यहां मंदिर-मस्जिद, स्वास्थ्य और शैक्षणिक केन्द्रों से ज़्यादा भव्य हैं। हमारे यहां हर बड़े शहर से लेकर प्रत्येक गली-मोहल्लों में धार्मिक केंद्र मिल जाएंगे मगर स्वास्थ्य और शैक्षणिक संस्थान अपेक्षाकृत बहुत कम मिलेंगे।

COVID-19 को लेकर बड़े स्थलों का‌ बंद रहना 

कोविड-19 महामारी के दौरान देश के बड़े से बड़े महान धार्मिक स्थल बंद हैं और गिने-चुने स्वास्थ्य केंद्र ही मानवता को बचाने में लगे हैं। इस दौर ने हमें निष्पक्ष रूप से यह सोचने को विवश किया है कि आखिर भविष्य में हमें ज़्यादा आवश्यकता किसकी है।

इस विश्व स्वास्थ्य दिवस पर देश में स्वास्थ्य स्थिति के सम्बन्ध में मैं अपने अनुभव साझा करना चाहता हूं। ये अनुभव सुदूर ग्रामीण क्षेत्रों के हैं।

पहला अनुभव रातिर गाँव से

रातिर गाँव। फोटो साभार- जितेन्द्र जीत

हम बागेश्वर जनपद की सीमा तय करने वाली रामगंगा नदी के साथ-साथ आगे बढ़ रहे थे। घाटी के ऊपर, पहाड़ की चढ़ाई पर सड़क है मगर दिन में 1 से 2 गाड़ी ही इसे शहर से जोड़ती हैं। कभी-कभी वह भी नहीं चलतीं।

हम नदी पार होकरा देवी से आ रहे थे। अतः हमारे लिए पैदल चलने का विकल्प था। पैदल चलते हुए दूसरे दिन की शाम थी। अब तक कई छोटे-छोटे गाँव से गुज़रे चुके थे।

पहाड़ों में पलायन का असर साफ नज़र आ रहा था। देर शाम हम रातिर गाँव तक पहुचे। एक महिला, आशा देवी (बदला हुआ नाम) ने हमारी सहायता की और रात गुज़ारने के लिए अपने घर में आसरा दिया।

रात को खाना खाने के बाद हम सभी आपस में बातें कर रहे थे। तभी आशा देवी को एक अन्य महिला बुलाने आई। पता चला कि उनकी बच्ची को पेट में ज़ोर का दर्द है और इलाज के लिए वो आशा देवी को बुलाने आई हैं।

गाँव के नज़दीक कोई स्वास्थ्य केंद्र नहीं है

रातिर गाँव के लोग। फोटो साभार- जितेन्द्र जीत

बातचीत में पता चला कि यहां दूर-दूर तक कोई स्वास्थ्य केंद्र नहीं है। आशा देवी ही लोगों का देसी इलाज करती हैं। सुबह जब इसी मुद्दे पर आगे बात हुई तो जो स्थिति सामने आई वह और भी कष्टमय थी।

हमें पता चला कि स्वयं आशा देवी भी अनेक रोगों से ग्रसित और गंभीर चोटिल हैं। वहां एकत्र हुई अन्य महिलाओं ने भी बताया कि जानवरों के चारे के लिए पहाड़ों पर चढ़ते, पेड़ पर लकड़ियां काटते, रात के अंधेरे में आते-जाते समय वह कई बार गिर जाती हैं। शारीर में चोट आती हैं और कई बार अंगुलियां तक टूट जाती हैं।

हमने देखा कि आशा देवी सहित बहुत सी महिलाओं के हाथ और पैर की उंगलियां टेढ़ी-मेढ़ी थीं, जो जगह-जगह से फूली हुयी भी थीं। ऐसा टूटी उंगलियों के ठीक से न जुड़ पाने के कारण हुआ है।

पैरों में पंजे से घुटने तक चोट के कई निशान थे, क्योंकि आस-पास स्वास्थ्य केंद्र ना होने से उन्हें जनपद मुख्यालय जाकर इलाज करवाना पड़ता जिसके पैसे भी नहीं थे। अतः वे टूटी उंगलियों पर पुरानी साड़ी के कपड़े कसकर बांध लेती हैं और फिर पहाड़ों पर निकल जाती हैं।

उन्होंने कहा यूं तो इन सब की आदत हो गई है मगर रात में जब कभी बहुत दुखता है तो कराहने के सिवा कोई और विकल्प नहीं होता है। यहां से चलते समय हमने गर्म पट्टी, कुछ पेन किलर और एक सोलर टॉर्च उन्हें दिया ताकि कुछ दिन ही सही मगर इस दर्द का थोड़ा निवारण हो सके। ऐसे क्षेत्रों में दवाओं का मूल्य, पैसों से कही अधिक होता है।

दूसरा अनुभव नामिक गाँव से

नामिक गाँव के लोग। फोटो साभार- जितेन्द्र जीत

हम नामिक गाँव में ठहरे थे। नदी पार इस घाटी में पिथौरागढ़ जनपद का यह आखरी गाँव है। यह गाँव नामिक ग्लेशियर के कारण प्रसिद्ध है मगर यहां सड़कें नहीं, बिजली नहीं, कोई दूरसंचार सेवा नहीं और सबसे ज़रूरी कोई स्वास्थ्य केंद्र भी नहीं है मगर हां विद्यालय ज़रूर है।

विद्यालय में बच्चों के साथ कुछ काम करने के सिलसिले से हम 2-3 दिन यहीं एक मास्टर जी के घर में रुके थे।

जिस छोटी सी दुकान से ज़रूरी सामान लेते थे, एक रोज़ वह बंद थी। पता चला कि दुकानदार के बच्चे की तबियत ज़्यादा ही खराब है। बच्चे का हाल लेने हम भी उनके घर पहुचें। हमें देखकर दुकानदार थोड़ा उत्साहित हुआ। परदेसी होने के कारण उन्हें मुझसे मदद की कुछ उम्मीद थी।

घर के एक कोने में उनका लड़का कई सारे कपड़े ओढ़े ओंधे मुंह पड़ा था। आस-पास गाँव के ही 10 से 12 पुरुष और महिलाएं बैठी थीं। यहां इलाज की कोई व्यवस्था नहीं थी मगर संवेदना देने के लिए आस-पास के लोग मौजूद थे। शायद यही वे कर भी सकते थे।

गाँव से काफी दूर है स्वास्थ्य केन्द्र

हम अंदर गए तो लड़के की माँ और अन्य लोग हमें आशा भरी नज़रों से देखने लगे। उस वक्त ना चाहते हुए भी हम उनकी नज़रों में किसी डॉक्टर से कम नहीं थे। मैंने अपने बेहद अल्प चिकित्सीय ज्ञान का इस्तेमाल करते हुए जब लड़के को जांचा तो बस इतना समझ आया कि उसे बहुत तेज़ बुखार है।

यहां से सबसे नज़दीकी स्वास्थ्य केंद्र जाने के लिए पहले 4 लोगों को पलंग सहित उस लड़के को लेकर पहाड़ से नीचे गहरी खाई में उतरना पड़ेगा। पुल से नदी पार कर फिर पहाड़ चढ़ना पड़ेगा।

नदी पार अगले गाँव तक पैदल जाने के बाद अगर किस्मत अच्छी हुई तो कोई गाड़ी मिल जाएगी अन्यथा अगले दिन तक इंतज़ार करना होगा। गाड़ी से 5 से 6 घंटे का सफर तय करने के बाद वे किसी नज़दीकी स्वास्थ्य केंद्र तक पहुंच पाएंगे। ऐसी हालत में यह करना लगभग असंभव सा था।

हम बिना बीमारी को जाने दवा नहीं देना चाहते थे क्योंकि इससे समस्या और गंभीर भी हो सकती थी। फिर इस सुदूर क्षेत्र में किसी तरह के साइड इफेक्ट का कोई समाधान मिल पाना भी मुश्किल होता।

मगर स्थिति ऐसी बनी कि हमारे पास कोई अन्य विकल्प नहीं बचा। वहां उपस्थित लोगों की उम्मीदें सिर्फ हमसे ही थीं। लड़के के पिता को सारी संभावनाएं बताने के बाद उनकी सहमती पर हमने अपने मेडिकल किट से बुखार की कुछ दवाइयां उन्हें प्रदान की।

अगले दिन हमें भी लौटना था। रात भर यही डर रहा कि कोई अनर्थ ना हो जाए। वापस निकलने से पहले हम उस लड़के का हाल जानने दोबारा उनके घर पहुचें। अब तबियत कुछ ठीक जान पड़ रही थी। हमें भी मदद की एक संतुष्टि थी।

अन्य गाँवों में भी कुछ ऐसे ही हालात

अन्य गाँव के भी ऐसे अनेक अनुभव हमारे पास हैं। आपके पास भी होंगे। स्वास्थ्य सेवाओं के अभाव में ग्रामीण क्षेत्रों में कितने ही लोगों की अकाल मौत हो जाती है। साथ ही साथ मौजूदा स्वास्थ्य केन्द्रों में निम्न गुणवत्तापूर्ण व्यवस्था के कारण भी लोगों को सही इलाज नहीं मिल पाता और मौत होती रहती हैं।

इसका भयावह सच यह भी है कि विश्व के प्रख्यात मेडिकल जर्नल लांसेट की एक रिपोर्ट के अनुसार, भारत में प्रतिवर्ष 16 लाख लोगों की मौत सिर्फ स्वास्थ्य सेवाओं की निम्न गुणवत्ता के कारण ही होती है। मतलब रोज़ 4,300 मौतें होती हैं।

मौतों की वजहें क्या हैं

आश्चर्य है कि स्वास्थ्य सेवाएं ना मिल पाने के कारण जितने लोग मरते हैं उससे ज़्यादा मौतें निम्न सवास्थ्य सेवाएं मिलने से होती हैं। इन 16 लाख मौतों का कारण गंदे हॉस्पिटल, असंवेदनशील व अकुशल चिकित्सा कर्मी, डॉक्टरों की कमी, उपयुक्त इलाज व जांच सुविधा ना मिलना आदि है।

सिर्फ मौसमी बुखार से ही गाँवों-शहरों में हर साल हज़ारों बच्चों की मौत हो जाती है। वास्तव में हम यह भूल बैठे हैं कि यह सब आंकड़े बनने से पहले इंसान भी हुआ करते थे ।

केंद्र सरकार द्वारा प्रस्तुत आगामी बजट 2020 से 21 में स्वास्थ्य सेवाओं पर कुल 67,484 करोड़ खर्च किए जाएंगे। जबकि सैन्य-सुरक्षा पर इससे 5 गुना अधिक यानी 3,23,053 करोड़ होगा। ऐसे तो निम्न स्वास्थ्य सेवाओं में कोई सुधार नहीं होगा।

‘हमें राफेल चाहिए या वेंटिलेटर’ यह तय करनी होगी

शायद चांद और मंगल पर जाना, मंदिर-मस्जिद और मूर्तियां बनाना, राजनीतिक सभाओं पर लाखों खर्च करना आदि भी आवश्यक हो सकता है लेकिन बेहतर स्वास्थ्य सुविधाएं, गुणवत्तापूर्ण शिक्षा और उचित सार्वजनिक यातायात उपलब्ध होने के बाद।

यह सब प्राप्त करना हमारा अधिकार है और एक लोकतांत्रिक, लोक-कल्याणकारी सरकार का कर्तव्य भी।


संदर्भ- Deccan Herald, Business Standard

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