देश की आज़ादी से पहले हम एक थे फिर हम दो हुए और आज सब अलग अलग हो गए। पहले धर्मों में बांटे गए फिर जातियों में और अब उन जातियों में भी हम यह तय करने लगे कि कौन जाति ऊंची है और कौन नीची।
यदि अंग्रेज़ों से लड़ते समय भी यही जातिवाद हावी होता तो क्या हम आज़ाद हो पाते?
सोचिए यदि देश की आज़ादी दिलाने में भी यही लागू किया जाता तो क्या हम कभी आज़ाद हो पाते? क्या हम उस अभिव्यक्ति की आज़ादी की बात कर पाते जिसका दम हम भरते घूम रहे हैं।
भारत देश का नाम विकसित देशों में क्यों नहीं है? यदि इस प्रश्न का उत्तर हम खोजने का प्रयास करें तो इसका उत्तर हम अपने द्वारा ही प्राप्त कर सकते हैं।
हमने खुद को इतने भागों में विभक्त किया है कि हम यह ही नहीं समझ पाए कि कौन हमारा है कौन पराया? जबकि हमको यह समझना था कि जो भारत का है, वह हमारा है।
“वसुधैव कुटुम्बकम” का अर्थ हम भूल गए हैं
‘वसुधैव कुटुम्बकम’ को मानने वाले हम लोग इस कथन को आज भी चरितार्थ नहीं कर सके। जब हम कहते हैं कि सम्पूर्ण धरा हमारा परिवार है तो उस परिवार में जातीय भेदभाव कहां से समाहित हो गया? दरअसल, हम ऊंची बातें करना तो जानते हैं, हम उपदेश देना भी जानते है मगर उनको स्वयं पर अमल करना नहीं जानते हैं।
गाँव में कहावत है कि सब चाहते हैं भगत सिंह पैदा हो मगर हमारे घर में नहीं, पड़ोसी के घर में पैदा हो। अर्थात हम समाज सुधारक की वकालत तो करते हैं मगर हमारा उस सुधार में कितना योगदान है, इस पर कभी विचार नहीं करते।
एक शिक्षक की कहानी जिसने जातीय भेदभाव नज़दीक से देखा
जातीय भेदभाव किस स्तर तक लोगों में है, इसको लेकर एक घटना मुझे याद आती है। मेरे एक मित्र हैं मनीष, जो पेशे से एक शिक्षक हैं। वो बताते हैं कि जब उनकी नई नई नौकरी लगी थी तो उन्होंने किस तरह जातिवाद को नज़दीक से देखा था।
मनीष स्वयं एक ब्राह्मण हैं। जब जीवन के अथाह संघर्ष के बाद उनकी नौकरी शिक्षा विभाग में लगी तब वो बहुत उत्साहित थे व खुश भी। उनमें व्यवस्था को बदलने का जज़्बा था।
जब बच्चों ने मिड डे मील खाने से मना कर दिया
उन्होंने विद्यालय में नियुक्ति ले ली थी। प्राथमिक विद्यालयों में भारत सरकार की ओर से मिड डे मील व्यवस्था का संचालन किया जाता है। इस व्यवस्था के तहत बच्चों को दोपहर का भोजन दिया जाता है।
एक रोज़ मनीष ने देखा कि विद्यालय के कुछ बच्चे भोजन नहीं करते हैं। उन्होंने बच्चों से भोजन ना करने का कारण पूछा। उन बच्चों में से कुछ ने कहा कि घर वालों ने मना किया है तो कुछ बच्चों ने कहा कि हम नहीं खाएंगे क्योंकि खाना नीची जाति के लोग बनाते हैं।
मनीष को समाज ताने सुनाता था
मनीष हतप्रभ था कि इतने छोटे बच्चों में भी जातिवाद का ज़हर इस कदर क्यों है? मनीष ने यह भी विचार किया कि आखिर इन बच्चों को इस गंदगी से निकालकर समाज की मुख्य धारा में कैसे लाया जाए। उन्होंने एक उपाय खोजते हुए यह तय किया कि कल से वो स्वयं बच्चों के साथ भोजन करेंगे।
मनीष के बारे में गाँव के लोगों ने तरह तरह की बातें भी करनी शुरू की। जैसे- ब्राह्मण होकर नीची जाति का बना भोजन खा रहे हो और ना जाने क्या क्या। एक रोज़ मनीष ने गाँव वालों को बुलाकर बैठक की जिसमें उन्होंने जातिवाद दूर किए जाने पर वक्तव्य दिया।
गाँव से जातिवाद का दंश बहुत हद तक मनीष निकालने में सफल रहें हैं। वर्तमान में हमको ऐसे ही मनीष की आवश्यकता है, जो लोगों को जागरूक करते हुए समाज से जातिवाद रूपी ज़हर निकालने में मदद करें।
आइए हम भी मनीष बनते हैं।