Site icon Youth Ki Awaaz

“ये मेहनतकश मज़दूर अब शायद सालों तक शहरों की ओर नहीं लौटेंगे”

फोटो साभार- Flickr

फोटो साभार- Flickr

गत दो दिनों से सोशल मीडिया के माध्यम से और ऑनलाइन मीडिया पोर्टल्स के ज़रिये जो खबरें सबसे ज़्यादा पढ़ने में आ रही हैं, वे विचलित करने वाली हैं। लॉकडाउन के बाद प्रवासी मज़दूरों के घर लौटने और उनके साथ आ रही दिक्कतें बहुत ही भयावह हैं।

मीडिया भरा पड़ा है इसी तरह की खबरों से। बहुत दया और करुणा से भरी कहानियां सुनने व देखने को मिल रही हैं।

सरकार ने लॉकडाउन से पहले क्या इस वर्ग के बारे में सोचा था?

सवाल यह है कि यह वर्ग अब तक क्यों नही दिख रहा था सबको? सरकार ने लॉकडाउन से पहले क्या इस वर्ग के बारे ज़रा भी सोचा था? मोदी जी एक झटके में कह गए, “सबको बस अपने अपने घर मे रहना है।” उनके पूरे भाषण में ‘घर’ पर रहने पर काफ़ी ज़ोर था।

आज जिनके बारे में मीडिया इतना सब कुछ दिखा रहा है, उनके घरों के बारे में ना कभी पहले झांककर देखने की कोशिश हुई, ना शहरों में उनके हालतों के बारे में कभी कोई रणनीति सामने आई।

क्यों लोकप्रिय प्रधान सेवक की मार्मिक अपील के बावजूद लाखों लोग वहीं नहीं रुके जहां वे थे? आखिर क्यों तमाम शहरों में इन मज़दूरों के लिए  इतनी आत्मीयता विकसित नहीं हो पाई जिसके उन्हें विश्वास होता और वे यहीं ठहर जाते।

जो करोड़ों रुपये के दान अब निकलकर आ रहे हैं, पहले क्यों नहीं निकलकर आए?

दिहाड़ी पर काम करने वाले मज़दूर लॉकडाउन के बाद अपने गाँव की ओर जाते।

शहरों और सरकारों ने इन मज़दूरों की सस्ती उपलब्धता को हमेशा भुनाया और उन्हें हमेशा शहर के सबसे गंदे, वंचित और सबसे बेकार इलाको में रखकर अछूत जैसा व्यवहार किया।

इन मज़दूरों को हमेशा बाहरी, गरीब और ज़रूरतमंद कहकर संबोधित किया जाता रहा। कभी इसके दूसरे पहलू जिसमें शहरी ज़रूरतों में इनकी मुख्य भूमिका को उस तरह ना तो आंका गया और ना ही वो महत्व दिया गया।

अगले कुछ हफ्ते देश के लिए बेहद अहम होंगे

दूसरी बात, अगले कुछ हफ्तों में अगर कोरोना संक्रमण बढ़ा तो इसकी ज़िम्मेदारी इन वंचित मज़दूरों के सिर पर मढ़ने की कवायद शुरू हो जाएगी, इसकी पूरी आशंका है।

आज जिनको करुणा से दाल पूरी खिला-खिलाकर सेल्फियां ली जा रही हैं, कल उनको अपने-अपने गाँवों में जहां वो बड़ी मुश्किलों से पहुंचे हैं, वहीं पर अभिशप्त कर दिया जाएगा।

कहीं मज़दूरों पर ही हम महामारी का ठीकरा ना फोड़ दें

प्रतीकात्मक तस्वीर। फोटो साभार- Flickr

हम सबकी याददाश्त इतनी कमज़ोर है कि आज हम सब कोरोना को विदेशों से आई आफत की तरह देख रहे हैं। विदेशों में खान-पान के तरीकों को इस वायरस की वजह बता रहे हैं। कल हम सब मिलकर इन बेघर मज़दूरों पर इस महामारी का ठीकरा फोड़ने लग जाएंगे।

आप चाहकर भी चीन और इटली का कुछ नहीं बिगाड़ सकते लेकिन ये मज़दूर जल्दी ही आपके निशाने पर आ जाएंगे। आज तक इन पर शहरों में गंदगी फैलाने वाले, गरीबी फैलाने के आरोप लगते रहे। अब इन पर कोरोना फैलाने के आरोप लगाए जाएंगे।

आखिर क्यों शहर के लोगों ने मज़दूरों को भुला दिया

जिन मज़दूरों को शहरों ने बिना आत्मीयता दिखाए, पैदल या जान हथेली पर लेकर अपने गाँव लौटने को मजबूर किया है, क्या वे जल्दी ही तुम्हारे शहरों में लौटकर आएंगे?

क्या तुम्हारे बहुमंज़िला इमारतों की मीनारें रातों रात खड़ी हो पाएंगी? क्या तुम्हारी फैक्टरियों की जंग लगी मशीनों को तुम बिना इन मेहनतकशों के चला सकोगे?

ये मज़दूर कभी शहर आना ही नहीं चाहते थे!

शहर वालों, ये कभी शहर आना ही नही चाहते थे। बस इनकी मज़बूरियों ने तुमको सस्ते लोग उपलब्ध करा दिए। तुमको लगा कि ये सब इंसान नहीं है, बस मशीनें हैं। जब तुमने चाहा काम लिया फिर मुंह फेर लिया।

तुम इनकी गिनती नहीं करते। तुन्हें इनका सम्मान नहीं है। तुम्हें पहले कभी ये लोग आते-जाते उस तरह से नहीं दिखे। इस बार तो तुमने उन्हें जाते हुए ही सही देख तो लिया है।

थोड़ी करुणा भी उमड़ आई है। अभी तुम्हे उनकी कमी नहीं खलेगी मगर जब तुम फिर से अपनी ज़िंदगी पटरी पर लाने की कोशिश करोगे तो पाओगे कि कुछ अधूरा है, कुछ सूना है। शहर थम गया है, गति बन नहीं पा रही। असली दर्द तब शुरू हो शायद।

Exit mobile version