‘मैं लिखती क्यों हूं?’ यह सवाल मुझे ऐसा ही लगा मानो जैसे कोई पूछ रहा हो कि मैं सांस क्यों लेती हूं? आठवीं या नौंवी कक्षा में थी मैं शायद जब मुझे पहली बार किसी अपने ने ही गलत तरह से छुआ था।
उस वक्त तो मोलेस्टेशन जैसे भारी-भरकम शब्द की जानकारी भी नहीं थी मुझे। मैनें छुपाया नहीं था, आस-पास मौजूद हर उस महिला को बताया था जो मुझसे बड़ी थी।
उन्होंने समझा-बुझाकर बात को निपटा दिया। उनके अनुसार बातें खराब हो जाएंगी, रिश्ते टूट जाएंगे और गलती से घर के पुरुषों को पता चला तो अनर्थ ही हो जाएगा।
मैं भी चुप हो गयी थी। कुछ दिन बीतने के बाद चीज़ें भी सामान्य हो गई थी मगर कभी-कभी मन में टीस उठती थी कि मैं खुद के लिए कुछ ना कर पाई तो बाकियों के लिए क्या ही आवाज़ उठा पाऊंगी। इस घटना के बाद मैंने चीज़ों को अपनी डायरी में लिखना शुरू कर दिया।
अपनी सबसे पहली डायरी के पहले पन्ने पर मैंने अपनी कुछ बचकानी ख्वाहिशें लिखी थी। वो भले ही मेरे लिए ख्वाहिशें थीं मगर मेरे अपनों के लिए बगावत के स्वर थे। मेरी डायरी का पहला पन्ना जिसमें सारी ख्वाहिशें थीं वो मम्मी ने पापा को कहकर जलवा दिया था। मेरे भाइयों ने मेरी बातों का खूब मज़ाक बनाया था।
यह सब कुछ हो जाने के बाद मैंने और लिखना शुरू किया और तब से लेकर अब तक मैंनें अपने मन में उठे हर सवाल को, हर भाव को, हर उथल-पुथल को अपनी कलम में भरकर पन्ने पर उतारा है।
मैंने लिखा मेरे मोलेस्टशन के बारे में, भेद-भाव के बारे में, अपने साथ हुए धोखे के बारे में और वो भी बिना किसी हिचक और इस डर के कि लोग मेरे बारे में क्या सोचेंगे? आज मेरा लिखना डायरी से कई आगे बढ़ गया है।
वैसे अब लोग मेरे लिखे को पढ़कर हंसते या फाड़ते नहीं मगर सोचते और समझते हैं। मेरा लिखना अब केवल मेरे लिए शौक नहीं मगर सवाल करने का तरीका है।
अब चाहे कोई कितने ही पन्ने फाड़ या जला दे लेकिन मैं लिखना कभी नहीं छोडूंगी। हर उस बात पर, हर उस सवाल पर लिखूंगी जो मन में संदेह उत्पन्न करेगा और अपने जैसे कईयों की आवाज़ की वजह बनूंगी।