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“मॉब लिंचिंग के आंकड़ों को जारी ना करना आखिर कौन सी लुकाछिपी है?”

Mob Lynching Palghar

Mob Lynching Palghar

मॉब लिंचिंग है क्या?

मॉब लिंचिंग या लिंचिंग (Lynching का अर्थ भीड़ द्वारा हत्या) कोई भीड़ कानून से ऊपर उठकर किसी व्यक्ति की हत्या कर देती है तो उसे मॉब लिंचिंग या लिंचिंग कहा जाता है।

ऐसी घटनाओ में भीड़ खुद को न्याय का दाता समझकर, किसी को दोषी मानकर खुद न्याय करने के लिए उसी समय पीट-पीटकर हत्या कर देती है।

मॉब लिंचिंग का इतिहास से नाता

मॉब लिंचिंग या लिंचिंग का इतिहास बहुत पुराना है। यूरोप के इतिहास से लेकर अमेरिका के इतिहास तक मॉब लिंचिंग की कई घटनाए हुई हैं। यूरोप में भीड़ द्वारा सज़ा देने के कई उदहारण हैं।

अमेरिका में मॉब लिंचिंग या लिंचिंग का इतिहास काले-गोरों की लड़ाई के रूप में दर्ज़ है। सबसे पहले मॉब लिंचिंग या लिंचिंग शब्द की उत्पत्ति अमेरिका के सिविल वॉर में हुई थी।

भारत में मॉब लिंचिंग की घटनाओं में बढ़ोत्तरी 2014 से हुई है

भारत में मॉब लिंचिंग की घटना बहुत पहले से हो रही है लेकिन पहले बहुत कम छिटफुट कहीं-कहीं होती थी मगर पिछले कुछ सालो में मॉब लिंचिंग की घटना बहुत तेज़ी से बढ़ी है।

2014 के बाद से इसमे एकाएक तेज़ी से बढ़ोत्तरी हुई है। यह बात मैं अपने मन से नहीं, बल्कि सरकारी एजेंसियों के आंकड़ों के अनुसार ही बता रहा हूं। आंकड़ों के अनुसार  कि 2014 के बाद से मॉब लिंचिंग के मामलो में तेज़ी से बढ़ोतरी हुई है।

मॉब लिंचिंग के मामले बढ़ने के निम्न कारण हो सकते हैं

क्या मॉब लिंचिंग या लिंचिंग करने वाली भीड़ के कई रूप होते हैं?

मॉब लिंचिंग या लिंचिंग करने वाली भीड़ के कई रूप होते हैं। कभी अंधविश्वास के चक्कर में कोई भीड़ एकत्रित होती है और किसी को डायन समझकर पीट पीटकर मार डालती है।

कभी बच्चा चोरी या किसी अन्य अफवाह से भीड़ एकत्रित होती है और किसी अनजान को पीटकर हत्या कर देती है।

अधिकतर मॉब लिंचिंग की घटनाएं अफवाह पर आधारित हैं

एक ऐसी भी भीड़ होती है जो धर्म-जाति के नाम पर एकत्रित होती है और किसी अन्य जाति-धर्म के व्यक्ति की हत्या कर देती है। इन भीड़ के कई रूप होते हैं लेकिन सभी का मकसद और परिणाम होता है हत्या कर देना।

आजकल ज़्यादातर मॉब लिंचिंग या लिंचिंग किसी झूठी अफवाह के कारण होती है। अफवाह आज के आधुनिक युग में एक सेकेंड में फैल जाती है। लोग उसे बिना सोचे-समझे सत्य मानकर न्याय करने के लिए निर्णायक बनकर निकल जाते हैं।

लोग कानून को भुलाकर इंसानियत का गला घोंट देते हैं

कानून को तोड़ते हुए इंसानियत को लहूलुहान करके आ जाते है। भीड़ में लोगों का विवेक खत्म हो जाता और लोग राक्षसी रूप धारण कर लेते हैं जिन्हें काबू करना बहुत कठिन हो जाता है।

इस भीड़ में ज़्यादातर युवा होते हैं और इन युवाओ की उम्र 20 वर्ष से लेकर 30 वर्ष तक होती है।

लिंचिंग में युवाओं की संलिप्तता

युवाओं की भीड़ हमें यह सोचने पर मजबूर करती है कि युवाओं में इतनी अज्ञानता और नफरत कैसे भर गई है। जो युवा अभी बाल्यावस्था से निकलकर युवावस्था की तरफ बढ़ रहे हैं, उनके द्वारा ऐसे कृत्य किया जाना हमें सोचने पर मजबूर करता है।

ऐसा लग रहा है हम इन्हें इंसानियत, मानवता और अपनी संस्कृति का बोध नही करा पा रहे हैं। जिसका परिणाम यह हो रहा है कि युवा विवेक हीनता के साथ हिंसक बनते जा रहे हैं जिसका आभास हमें नहीं हो पा रहा है।

अफवाहों के कारण ना जाने कितनी जानें जा चुकी हैं

  1. अखलाक खान को दादरी नोएडा में गौ मांस घर में होने के अफवाह में एक भीड़ पीट-पीटकर मार डालती है।
  2. पहलू खान को गौ तस्करी के शक में एक भीड़ पीट-पीटकर मार डालती है।
  3. जुनैद एक ट्रेन में यात्रा कर रहा था, वहां ना जाने क्या होता है कि ट्रेन वाली भीड़ उसे पीट-पीटकर मार डालती है।
  4. इंस्पेक्टर सुबोध, जो अपना फर्ज़ निभा रहे थे, गौ मांस के शक में एक भीड़ इतना उन्मादी हो जाती है कि उन्हें पीट-पीटकर मार डालती है।
  5. झारखंड के तबरेज़ अंसारी को एक भीड़ मार देती है।
  6. असम में दो स्टूडेंट जो घूमने गए थे, उन्हें एक भीड़ आती है और मार देती है।

ऐसे ना जाने कितनी भीड़ एकत्रित होती है और ना जाने कितनों की हत्या करते-करते अब पालघर में साधुओं तक पहुंचकर उन्हें मार डालती है।

मॉब लिंचिंग की घटनाओं में चेहरे बदलते हैं मगर भीड़ की क्रूरता नहीं!

इन सभी लिंचिंग की घटनाओं में जगह और भीड़ के लोग बदले हैं मगर भीड़ का मकसद और कार्य नहीं बदला है। बदला है तो केवल मरने वालों का नाम।

कभी पहलू खान तो कभी इंस्पेक्टर सुबोध होते हुए, अब पालघर में जूना अखाड़े के दो साधुओं तक पहुंच गई है। सरकार केवल हाथ पर हाथ रखे बैठी देख रही है।

मीडिया को लिंचिंग के बाद कुछ दिनों के लिए प्राइम टाइम का एजेंडा मिल जाता है जिसमें वो यह सिद्ध करने की कोशिश करती है कि मामला हिन्दू-मुस्लिम बन जाए। इससे अधिक मीडिया ने कभी अपना रोल नहीं बढ़ाया है।

मॉब लिंचिंग को रोकने के लिए कभी कोई ठोस पहल नहीं हुई

लिंचिंग रोकने के लिए सरकार कभी प्रयासरत नहीं दिखी क्योंकि हम कुछ युवाओं ने मिलकर एक टीम बनाई थी। जिसका नाम था “स्टॉप मॉब लिंचिंग” और हमने एक मसौदा बनाया था।

उस मसौदे में लिंचिंग रोकने और सर्वाइवर के लिए प्रावधान थे। जिसका नाम “मासुका” अर्थात “मानव सुरक्षा कानून” था।लिंचिंग रोकने के लिए एक मसौदा बनाकर हमने दिया था।

जिसके अनुसार सबसे पहले मणिपुर, उसके बाद पश्चिम बंगाल, राजस्थान और मध्यप्रदेश ने कानून ड्राफ्ट किया लेकिन आज तक राष्ट्रपति महोदय ने उस पर हस्ताक्षर नहीं किए हैं।

मॉब लिंचिंग पर सुप्रीम कोर्ट के निर्देशों को भी अनसुना कर रही है केंद्र सरकार

मसौदा बनाकर हमने सुप्रीम कोर्ट को दिया और सुप्रीम कोर्ट से दिशा-निर्देश भी लेकर आएं। जिसमें कोर्ट ने केंद्र सरकार को कुछ दिशा निर्देश दिए थे, जिसमें केंद्र सरकार और राज्य सरकारों को उसका पालन करना था।

उक्त आदेश में कुछ दिन के भीतर केंद्र सरकार को लिंचिंग रोकने के लिए कानून बनाने को कहा गया था लेकिन सरकार ने आज तक उस पर ध्यान नहीं दिया।

NCRB के आंकड़ों में मॉब लिंचिंग का कोई ज़िक्र नहीं

केंद्र सरकार ने NCRB के आकड़ों में लिंचिंग का आंकड़ा ना जारी करते हुए कई मामलों को छिपा लिया। सरकार लिंचिंग की घटना को कम या खत्म नहीं करना चाहती है, बल्कि छिपाना चाहती है।

इस सरकार के मंत्रियों और नेताओं ने लिंचिंग के अपराध में जेल गए अपराधियोंं को जेल से जमानत मिलने पर फूल माला लेकर स्वागत किया था।

अंततः इस सरकार और उसकी नुमाइंदगी करने वालों से क्या ही आशा रखी जाए! ये लिंचिंग को लेकर दुखी होते हैं और उस पर कुछ कड़े प्रावधान बनाएंगे, यह सोचना बेईमानी है।

मॉब लिंचिंग की घटनाओं पर भी हम राइट-लेफ्ट विंग में क्यों बंट जाते हैं?

किसी भी लिंचिंग पर केवल एक वर्ग का बोलना और दूसरे वर्ग को भला-बुरा कहना और उनसे प्रश्न पूछने तक ही सीमित रह जाता है। कभी किसी लिंचिंग की घटना पर कोई इंसाफ नही मांगता है।

राइट विंग वाले लेफ्ट और लिबरल को ज़िम्मेदार ठहराते हैं, वहीं लेफ्ट और लिबरल लोग राइट विंग को ज़िम्मेदार ठहराते हैं।

बस इसी में हर बार कुछ दिन निकल जाता है और मुद्दा शांत हो जाता है, सब खामोश होकर नए मुद्दे पर जुट जाते हैं। किसी को लिंचिंग के लिए चिंता नहीं है, बस सबको एक-दूसरे को दोषी ठहराना है।

मीडिया की निष्पक्षता भी संदेह के घेरे में है

मीडिया इन्हीं में से दो-चार पहलुओं को लेकर प्राइम टाइम कर लेता है। जिसमें खूब हिन्दू-मुस्लिम होता है जो कि मीडिया को बहुत भाता है। कभी मीडिया ने सरकार से लिंचिंग पर कानून कब बनेगा? सुप्रीम कोर्ट के नोटिफिकेशन का क्या हुआ? कब से पालन कराया जायेगा? इस पर नहीं पूछे हैं।

ना ही पूछा कि NCRB के आंकड़ों में लिंचिंग का आंकड़ा क्यों नहीं है? आप इसे छिपाना क्यों चाहते हैं या कभी यह नहीं पूछा कि आपके मंत्री और नेता लिंचिंग के अपराधियों को जेल से छूटने के बाद फूल-मालाओं से स्वागत क्यों करते है?

सरकार को पालघर की घटना से सीख लेते हुए अब भी जाग जाना चाहिए

अब अगर सरकार ने कुछ ठोस कार्रवाई नहीं की और ऐसे ही लिंचिंग के अपराधियों से राजनीतिक लाभ की कोशिश करती रही, तो वह दिन दूर नहीं कि आप भी एक दिन उस भीड़ के हत्थे चढ़ जाएंगे क्योंकि यह भीड़ अखलाक, इंस्पेक्टर सुबोध होते हुए, अब पालघर में जूना अखाड़े के दो साधुओं तक पहुंच गई है।

इसलिए आवाज़ उठाइए क्योंकि भीड़, भीड़ होती है। जो धर्म, जाति और रंग रूप नहीं देखती है। इसलिए इसे रोकने के लिए एकजुट होकर आवाज़ उठाइए, सेलेक्टिव मुद्दों पर सेलेक्टिव लोगों के लिए नहीं।

ठीक उसी तरह जैसे अखलाक,पहलू और जुनैद पर आवाज़ उठा लिया मगर इस्पेक्टर सुबोध शर्मा और संत सुशील गिरी की हत्या पर चुप्पी साध लिए या इस्पेक्टर सुबोध शर्मा और संत सुशील गिरी पर आवाज़ उठाकर अखलाक, पहलू और जुनैद पर चुप्पी साध लिए।

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